पराधीन सपनेहु सुख नाहीं Paradhin Sapnehu Sukh Nahi
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पराधीन सपनेहु सुख नाहीं Paradhin Sapnehu Sukh Nahi
पराधीन सपनेहु सुख नाहीं 800 Words
स्वाधीन यानि स्वतंत्र, अपने अधीन और अपना शासन या अपने जीवन को संयम एवं सुरक्षा के तटबंध प्रदान करने वाले अपने नियम-विधान। इस के विपरीत पराधीन यानि पराये या दूसरे के अधीन और परतंत्र अर्थात् पराये और बलपूर्वक थोपे गये नियम-विधान, सभी प्रकार के बन्धनों को मानने के लिए विवश । इस व्याख्या से स्वाधीन और पराधीन का सामान्य अर्थ एवं व्यवहार तो स्पष्ट हो ही जाता है, दोनों का अन्तर भी पता चल जाता है। इस तथ्य की एक स्पष्ट झलक भी मिल जाती है कि लोग क्यों स्वाधीन रहना चाहते हैं? पराधीनता को सष्टि का कोई भी प्राणी क्यों पसन्द नहीं करता?
पराधीनता व्यक्ति और समाज से उसकी अपनी इच्छाएँ तक छीन लिया करती है। उसके मुँह पर भी ताला ठोंक दिया करती है। अर्थात् पराधीन व्यक्ति न तो कभी किसी प्रकार की स्वतंत्र इच्छा ही कर सकता है और न अपने स्वतंत्र विचार रख तथा प्रकट ही कर सकता है। इतना ही नहीं, धीरे-धीरे उसके मन-मस्तिष्क भी ठूस होकर रह जाया करते हैं अर्थात सोचने-विचार करने की शक्ति से ही पराधीन जन हाथ धो बैठा करता है। उसे दूसरे की आँख से देखना, दूसरे के मुँह से बोलना, दूसरे के लिए ही अपने हाथों से काम करना, यहाँ तक कि अपने पैरों से चलना भी दूसरों के लिए ही पड़ता है। इस तरह पराधीन व्यक्ति के पास स्वत्व का स्वाभिमान का सर्वथा अभाव हो जाया करता है। बस, एक ऐसा मिट्टी का लोटा बन कर रह जाना पड़ता है, जिस में प्राण तो होते हैं। पर अपने नहीं, पराये और पर वश।
स्वाधीनता का सुख ही निराला होता है। स्वाधीन व्यक्ति के दिन, रात, सभी तरह के कार्य-व्यापार, सपनें, भावनाएँ सभी कुछ अपना यानि नितान्त निजी हआ करता है। वह अपनी इच्छा से सोया-जागा, खाया-पिया और प्रत्येक कार्य-कलाप किया करता है। उस के शरीर तो क्या मन-मस्तिष्क पर, कल्पना की उड़ान पर, सपनों की पहचान पर किसी भी वस्तु पर कोई प्रतिबन्ध नहीं हुआ करता। वह अपनी इच्छा का मालिक स्वयं आप हआ करता है। मनमानी राह पर बढ़ सकता है। हर शिखर पर स्वेच्छा और प्रयत्न से चढ सकता है। सभी दिशाओं में उछल-कूद कर गा और कुहुक सकता है। सभी को अपनी बात सुना और सभी को सुन सकता है। उसके दिन, उसके चाँद-सितारे सभी अपने अपने घर के दीपक और उजाल हुआ करते हैं। उसका हर शब्द एक प्रकार का आदेश और अमर वाणी हुआ करता है।
इस सब के विपरीत पराधीन रहने वाला व्यक्ति कभी भल कर भी किसी सुख की कल्पना नहीं कर सकता। यदि कल्पना कर भी ले तो उसे पाने के लिए उसकी तरफ हाथ बढ़ाने का अधिकार नहीं रखता। सुख पाने का सपना देखना भी उसके लिए वर्जित हुआ करता है। इस तथ्य को, पराधीनता की इस विषय स्थिति और पीड़ा को प्रत्येक मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी तक भी जानते हैं। तभी तो स्वर्ण-पिंजरे में बन्द पक्षी उदास ही रहता हैं | अपना गाना, चहचहाना सभी कुछ भुला कर निर्जीव-सा जीवन जिया करता है। तनिक-सा अवसर मिलते ही पिंजरे से निकल कर पेड़ों की उन्मुक्त हरियाली में बैठ स्वतंत्रता से फुदकने और चहचहाने लगता है। वह पराधीनता को हजार दुःखों का कारण और स्वतंत्रता को हज़ार नेहमतों का अगर स्वीकार करता है। एक चींटी तक को अपनी स्वतंत्रता में बाधा पड़ने पर छटपटाते हुए देखा-परखा जा सकता है। तभी तो मनुष्य हो या पशु-पक्षी, कोई भी पराधीन नहीं रहना चाहता।
पराधीनता वस्तुतः नरक तुल्य दुःखदायक हआ करती है। वहाँ अपने पास अपना कहने को कुछ रह ही नहीं जाया करता। हर चीज़ बिक जाती है। पराई हो जाया करती है। ऐसा न हो, तभी तो स्वतंत्रता सेनानी प्राणों पर खेल कर भी, लाठी-गोली खा और जेल के सींखचों के पीछे बन्द होकर भी स्वतंत्रता के नारे लगाते रहे। अन्तिम साँस तक लड़ते-संघर्ष करते रहे। स्वतंत्रता छीन कर कोई पराधीन न बना ले, इसी भावना से अनुप्राणित होकर वीर सैनिक तोपों के दहाने पर अड़ कर भी शत्रु को आगे नहीं बढ़ने देते। हमारी स्वतंत्र सीमाओं का कोई अतिक्रमण न करने पाए, इसी भावना से प्रेरित होकर साहसी सैनिक अपने घर-परिवार, सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी की परवाह किए बिना झुलसा देने वाले रेगिस्तानों और जमा देने वाली बर्फानी चोटियों पर खड़े होकर प्रहरी बने रहते हैं।
सच तो यह है कि पराधीनता से छुटकारा पाने, स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए अपने सुखों का तो क्या सिर का मोल चुकाना पड़ता है। खाण्डे की धार पर चलना पड़ता है। सर्वस्व बलिदान करना पड़ता है। ऐसा करके ही वह सब पाया जा सकता है कि जो पराधीनता में कभी सुलभ नहीं होता। यही सब सोच कर, स्वतंत्रता का महत्त्व बताने के लिए गोस्वामी तुलसीदास ने कहाः
“पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।