पुस्तक की आत्मकथा Autobiography of a Book in Hindi Essay – Pustak Ki Atmakatha
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Essay on Autobiography of a Book in Hindi
Autobiography of a Book in Hindi 800 Words
अतीत….बीता हुआ समय और जीवन……वर्तमान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो; पर सभी को अपना अतीत हमेशा सुखद और आकर्षक लगा करता है। सभी उस तरफ लौट जाने की इच्छा किया करते हैं। मैं अपने अनुभव के आधार पर ही यह सब कह-सुना रही हूँ-मैं पुस्तक।
आज यानि वर्तमान में मैं एक पुस्तक हूँ। मेरी गणना श्रेष्ठ मानी जाने वाली पुस्तकों में होती है, आम घटिया और सड़क छाप पुस्तकों में नहीं। मुझे ज्ञान-विज्ञान और समझदारी का, आनन्द और मनोरंजन का खज़ाना माना जाता है। इस कारण मैं धड़ाधड़ बिका करती हूँ। आज तक मेरे अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। बड़े-बड़े विद्वान् मुझे अपना और मेरी प्रशंसा कर चुके और निरन्तर करते रहते हैं। लेकिन आदर-मान की यह स्थिति मुझे एकाएक या सरलता से नहीं मिल गई है। मेरा अतीत बड़ा गहरा, सुहावना और हरा-भरा है, आनन्द-मस्ती से झूमता हुआ।
मेरा मूल घर एक सघन जंगल में था। वहाँ कई जातियों के पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ आदि हम मिल-जुल कर रहा करते थे। हवा चलने पर साथ हिल कर मस्ती में झूमा करते थे। कई बार तेज़ बवण्डर या तूफान आकर हमें झुकाने या तोड़ डालने का प्रयास भी करते; पर आकर गुजर जाते । हाँ, उन की तीव्रता के कारण हमारी डालियों पर रहने वाले बेचारे अनेक पक्षियों के घोंसले अवश्य ही उड़, गिर और नष्ट हो जाते। हमारे आस-पास कई जातियों-प्रजातियों के पशु भी मुक्त भाव से रहा और विचरा करते। लेकिन लगता है, प्रकृति को और तुम मनुष्यों को हमारा यह सुख स्वीकार नहीं था। तभी तो उन का प्रकोप कुल्हाड़ा बनकर गिरा हम पर।
एक दिन सुबह-सुबह आँख खुलने पर देखा, कुल्हाड़े उठाए कुछ लोग आए और विशेष कर हमारी जाति के पेड़ों को काटने लगे। साँझ ढलने तक उन्होंने मेरे सभी साथी जाति भाइयों को काट कर ढेर कर दिया। अगले दिन कुछ लोगों ने आकर आरी से रेत-रेत कर हमारे विशाल शरीर को छोटे टुकड़ों में बाँट दिया। कुछ दिनों बाद ट्रकों पर लाद कर हमें एक विशाल आँगन में लाकर पटक दिया गया। वहाँ आ कर पता चला कि वह कोई मिल है। लोग उसे कागज-मिल कह रहे थे। कुछ दिन वहीं पड़े रहने के बाद हमें उठाकर एक मशीन के तख्ते पर रख दिया गया। वह चला और हम काँपने लगे। ओह ! हाय ! आह ! कड़-कडडड़ देखतेही-देखते हमारे वे टुकड़े पिस और कूटे जाकर चूरा-चूरा हो गए। इसके बाद हमें बड़े हौजों में भरे पानी में डाल दिया गया और काफी समय तक हम उन्हीं में डूबते-उतरते, सड़ते-गलते हुए एक गाढ़ा घोल-सा बन गए। वहाँ से निकाल कई रासायनिक प्रक्रियाओं और मशीनों की गर्मी से गुजरने के बाद एक तरफ़ से जब हम बाहर निकले, तब हमारा रंग-रूप और नाम तक सभी कछ बदल चका था। मैंने सना. वहाँ के लोग आपस में कह रहे थे-‘वाह ! कितना बढ़िया कागज बना है इस बार !’
वहाँ से मिल-गोदाम और कुछ दिनों बाद एक ट्रक पर बण्डलों के रूप में लाद कर हमें शहर में एक कागज-विक्रेता के गोदाम में पहुंचा दिया गया। कुछ दिन के बाद एक आदमी आया और हमें खरीद कर अपने यहाँ ले जा कर एक ढेर-सा कोने में लगा दिया। देखा, वहाँ एक तरफ तो कुछ लोग खानों में से अलग-अलग अक्षर निकाल कर उन्हें जोड़ते जा रहे थे, जबकि एक तरफ़ घरघरांती हुई एक मशीन-सी चल रही थी। साँस रोककर सोचते रहे-पता नहीं, अब हमारे साथ कैसा व्यवहार किया जाएगा? जल्दी ही हमें उठा कर उस मशीन पर चढा दिया गया और हम एक-एक पर छप-छप कर कछ छपने लगा। छपने के बाद एक दिन एक अन्य आदमी हमें उठवा कर अपने यहाँ ले गया। वहाँ बैठे अन्य छोटे-बड़े आदमी हमें मोड़-मोड़ कर रखने लगे। फिर एक मशीन से स्टिच किया और सिया गया। उसके बाद आसपास से काँट-छाँट कर संवारा और जिल्दबन्दी की गई। ऊपर लेई से कुछ चिपकाया और एक कवर-सा लपेट दिया गया- हाँ यही; जो इस समय भी मुझ पर चढ़ा हुआ मेरे तन की रक्षा तो कर ही रहा था, मेरी शोभा भी बढ़ा रहा था।
इस प्रकार मुझे वर्तमान स्वरूप और आकार मिल पाया और मैं पुस्तक कही जाने लगी। अरे, हाँ, मैं उस का नाम तो भूल ही गई, जिस बेचारे ने कड़ी मेहनत कर के मेरे भीतर छपने-सजने वाला सब-कुछ दिया। उस बेचारे व्यक्ति को लेखक कहा जा सकता है कि जिस के बिना मैं बन ही नहीं सकती। परन्तु मैं क्या, प्रकाशक तक पुस्तक छप जाने के बाद उस बेचारे लेखक के हित का ध्यान नहीं रखा करते। उसे कतई भूल जाया करते हैं।
जो हो, मेरे बनने और अस्तित्व में आने की कहानी मात्र इतनी ही है। लेखक महोदय ने अपने लम्बे जीवन-व्यवहारों के अनुभव से जो सीखा, उसे भाव और विचार के रूप में मुझ में संजो रखा है। इसी कारण मैं ज्ञान-विज्ञान, आनन्द-मनोरंजन का भण्डार कहलाती और मानी जाती हूँ। मेरे अभाव में पढ़ाई-लिखाई कतई संभव नहीं। जिस देश समाज में मुझ पुस्तक का सम्मान न हो, उसे असभ्य और अशिक्षित माना जाता है।