Bhartendu Harishchandra in Hindi Essay भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पर निबंध
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Bhartendu Harishchandra in Hindi
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के संदर्भ में लिखा है, ‘इससे भी बड़ा कार्य उन्होंने यह किया कि साहित्य को नवीन मार्ग दिखाया और उसे शिक्षित जनता के साहचर्य में ले आए। नई शिक्षा के प्रभाव से लोगों की विचारधारा बदल चली थी। उनके मन में देशहित, समाजहित आदि की नई उमंगें उत्पन्न हो रही थीं। काल की गति के साथ साथ उनके भाव और विचार तो बहुत आगे बढ़ गए थे, पर साहित्य पीछे ही पड़ा था। भक्ति श्रृंगारादि की पुराने ढंग की कविताएं ही होती चली आ रही थीं। भारतेन्दु ने इस साहित्य को दूसरी ओर मोड़कर जीवन के साथ फिर से लगा दिया। इस प्रकार हमारे जीवन और साहित्य के बीच जो विच्छेद पड़ रहा था उसे उन्होंने दूर किया। हमारे साहित्य को नए-नए विषयों की ओर प्रवृत्त करने वाले हरिश्चंद्र ही हुए।” इस उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भारतेन्दु जी का हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में ऐतिहासिक योगदान रहा है। वस्तुत: भारतेन्दु हरिश्चंद्र ही वह महान रचनाकार थे, जिन्होंने साहित्य के क्षेत्र में आधुनिक काल का प्रवर्तन किया।
भारतेन्दु जी बहुमुखी प्रतिभा के रचनाकार थे। उन्होंने अपने अत्यंत अल्प जीवन में अप्रतिम रूप से एक विपुल साहित्य की रचना की। उन्होंने नाटकों की रचना की, निबंध लिखे, कविताओं की रचना की, आलोचना लेखन का आरंभ किया और साथ ही एक अधूरा उपन्यास भी लिखा, जो उनके आकस्मिक निधन के कारण कभी पूरा नहीं हो सका।
भारतेन्दु जी द्वारा रचित मौलिक नाटक निम्नलिखित हैं – वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, चंद्रावली, विषस्य विषमौपधम, भारत दुर्दशा, नीला देवी, अंधेर नगरी, प्रेम वियोगिनी और सती प्रताप आदि। इसके अतिरिक्त भारतेन्दु जी ने प्रचुर मात्रा में अन्य भाषाओं से नाटकों के सुन्दर अनुवाद भी प्रस्तुत किए। भारतेन्दु ने ‘नाटक’ नामक एक आलोचनात्मक लेख भी लिखा, जिसे हिन्दी साहित्य की प्रथम सैद्धान्तिक आलोचना होने का गौरव प्राप्त है। इसी के साथ भारतेन्दु ने ब्रज, अवधी आदि अनेक भाषाओं में प्रेम, भक्ति और श्रृगांर से सबंधित सुन्दर कविताएं भी लिखीं। इनमें उनका भावुक कवि हृदय पूरी तरह से अभिव्यक्त हो सका है। इसके साथ ही भारतेन्दु ने ‘कुछ जगबीती कुछ आप बीती’ नामक एक उपन्यास लिखना भी आरंभ किया था, जिसे वह पूरा नहीं कर सके।
भारतेन्दु जी आधुनिक काल के प्रवर्तक रचनाकार हैं। उन्होंने जिस नवीन मार्ग का स्पर्श साहित्य को अपनी सशक्त लेखनी के माध्यम से कराया, समग्र रूप से परवर्ती हिन्दी साहित्य उसी सुदृढ़ धरातल पर विकसित और गतिशील हुआ। इस दृष्टि से भारतेन्दु को ऐतिहासिक बोध से संपन्न रचनाकार कहा जा सकता है। उन्होंने भारतीय समाज की तत्कालीन नवीन आकांक्षाओं को न केवल अपनी सूक्ष्म दृष्टि के माध्यम से पहचाना, अपितु उसे अपने साहित्य के माध्यम से प्रभावी रूप से अभिव्यक्त भी किया।
भारतेन्दु जिस युग विशेष के रचनाकार थे वह युग स्वयं में भारतीय पराधीनता का दौर था। भारत का सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक शोषण हो रहा था। भारतेन्दु की आलोचनात्मक बुद्धि ने अपने समय के इस कटु यथार्थ को पूरी स्पष्टता के साथ समझा था। वस्तुत: भारतेन्दुसाहित्य समग्र रूप से अपने युग से संबंद्ध काव्य रहा है। उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से ब्रिटिश शासन की इस दुर्दम्य लूट का व्यापक चित्रण किया है। अंधेर नगरी’ और ‘भारत दूर्दशा’ नामक नाटकों का इस दृष्टि से अप्रतिम महत्व है। इन्ही दोनों नाटकों के माध्यम से भारतेन्दु ने ब्रिटिश शासन के भयावह शोषणवादी स्वरूप को उजागर कर दिया है।
अन्त में, कहा जा सकता है कि भारतेन्दु का जीवन पूरी तरह से साहित्य को समर्पित जीवन रहा है। उन्होंने साहित्य को साधना की भांति ग्रहण किया था। उनके साहित्य में इसी कारण जीवंतता इतनी प्रचुर मात्रा में विद्यमान दिखलायी पड़ता है जो उनके साहित्य की सामाजिक सापेक्षता और संदर्भिता को आज भी प्रासंगिक बनाए हुए है।
Era of Bhartendu Harishchandra in Hindi
ब्रिटिश शासन ने भारत को सन् 1757 के आस-पास पूरी तरह से अपने अधीन बना लिया था। इसके बाद तो उन्होंने भारतीय समाज का आर्थिक शोषण खुले हाथों से करना आरम्भ कर दिया। उन्होंने यहाँ के सभी उद्योग-धन्धों और व्यापारिक गतिविधियों को न केवल बाधित किया अपितु उन्हें समूल नष्ट भी करना आरम्भ कर दिया। अंग्रेजों ने भारतीय कुटीर और हथकरघा उद्योग को पूरी तरह से बरबाद कर दिया। यही कार्य उन्होंने भारतीय कृषकों के साथ भी किया। उन्होंने गरीब और अभावग्रस्त किसानों पर अनेक भांति के कर थोप दिए, जिससे उनकी कमर पूरी तरह टूट गयी।
किसान परम्परागत संसाधनों और साधनों के माध्यम से ही कृषि कार्य किया करते थे। अत: उनकी कृषि पैदावार प्रायः समान रहती थी किन्तु ऋणों और करों की दरें साल-दर-साल बढ़ती जाती थीं। इसी के साथ अकाल और बाढ़ भी किसानों के दुर्भाग्य को बढ़ाने के लिए प्रायः चले आते थे। कहने का अभिप्राय है कि अंग्रेजी शासन के दौरान भारत का आर्थिक और संसाधनगत शोषण भयानक रूप से हुआ, जिसकी परिणति सन् 1857 के विद्रोह के रूप में हमारे सामने आई । इसी के साथ वैचारिक और बौद्धिक स्तर पर भारत का बुद्धिजीवी वर्ग नवजागरण की विराट-चेतना को भी प्रस्तुत करने में लगा हुआ था। भारतेन्दु और उनका मण्डल अपनी इन्ही समसामायिक स्थितियों-परिस्थितियों से प्रेरित और प्रभावित थे। उन्होंने इन नवीन जीवन-स्थितियों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से काव्य का विषय बनाया। इससे साहित्य के क्षेत्र में आकस्मिक रूप से क्रांति आ गयी। साहित्य की रीतिवादी धारा खण्डित हो गयी और साहित्य क्षेत्र सम-सामयिकता और आधुनिकता की प्रतिध्वनियों से गुंजने लगा।
डॉ नगेन्द्र ने इस संदर्भ में लिखा है: “आर्थिक, औद्योगिक और धार्मिक क्षेत्रों में पुनर्जागरण की प्रक्रिया आरम्भ होने लगी। पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली ने शैक्षिक क्षेत्र में भी वैयक्तिक स्वतंत्रता को प्रेरणा प्रदान की। अंग्रेजी का प्रचार-प्रसार यद्यपि जनता से सम्पर्क-स्थापन और प्रशासकीय आवश्यकताओं के लिए किया जा रहा था, पर अंग्रेजी साहित्य के अध्ययन ने अन्य देशों के साथ तुलना का अवसर भी प्रदान किया और इस तरह राष्ट्रीय भावना के विकास के लिए उचित वातावरण बन गया। मुद्रण-यन्त्रों के विस्तार और समाचार पत्रों के प्रकाशन ने भी जन जागरण में योग दिया। परिणामस्वरूप तत्कालीन साहित्य-चेतना मध्यकालीन रचना-प्रवृत्तियों तक ही सीमित न रहकर नवीन दिशाओं की ओर उन्मुख होने लगी।
भारतेन्दु-युग के प्रमुख कवियों में स्वयं भारतेन्दु, बदरी नारायण, प्रतापनारायण मिश्र, जगमोहन सिंह, अम्बिकादत्त व्यास और राधाकृष्ण दास आदि प्रमुख हैं। भारतेन्दु युगीन काव्यधारा में जिन उल्लेखनीय काव्य-प्रवृतियों का प्रधान्य रहा है, उनमें राष्ट्रीयता, सामाजिकचेतना, भाषा की चेतना, भक्ति-भावना, शृंगारिकता, हास्य, व्यंग्य और प्रकृति चित्रण आदि प्रमुख हैं।
राष्ट्रीयता इस काव्य-धारा की प्रमुख काव्य-प्रवृत्ति रही है। कवियों ने भारत को व्यापक शोषण से बचाने के लिए युवकों में राष्ट्र-भावना और देशभक्ति की भावना को जाग्रत करने का कार्य किया। भारतेन्दु ने लिखाः
भीतर भीतर सब रस चूसँ, हंसि हंस के तन मन धन मूसै।
जाहिर कातल में अति तेज, क्यों सखि साजन नहिं आँगन।।
भारतेन्दु – युगीन काव्य और कविताओं को अति जीवंत और सजीव काव्य-धारा कहा गया है। इसी के कारण इस कविता में स्पष्टता और तीक्ष्णता सबसे अधिक पाई जाती है। इन कवियों ने अंग्रेजी शासन के भय की चिंता न करते हुए उसके शोषक और साम्राज्यवादी स्वरूप खूब आलोचना की उसमें देश भक्ति की भावना और राष्ट्र-सेवा की उत्कंठा हमें सर्वाधिक प्राप्त होती है।
इसी के साथ इस काव्य-धारा में व्यंग्य और पकृति चित्रण को भी पूरा महत्त्व बना दिया गया। जैसे:
प्रकाश पतंग सो चोटिन के विकसै अरविन्द मलिन्द सुझूम
तसे कटि मेखला के जगमोहन कारी घटा घन धोरत धूम
यही कहा जा सकता है कि भारतेन्दु-युगीन काव्य धारा का महत्व ऐतिहासिक और समसामयिक है। उसमें जिस सजीवता के दर्शन हमें होते हैं वह आज भी उतनी ही अनिवार्यता रखती है।
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