दैव दैव आलसी पुकारा Dev Dev Alsi Pukara
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दैव दैव आलसी पुकारा Dev Dev Alsi Pukara
Dev Dev Alsi Pukara 800 Words
संसार में दैववाद या भाग्यवाद और कर्मवाद या उद्यमवाद नाम से दो तरह की विचारधाराएँ प्रचलित हैं। पहली दैव या भाग्यवादी विचारधारा के समर्थक लोग यह मानते हैं कि संसार में भाग्य ही सब कुछ है। बिना भाग्य के मनुष्य कुछ भी, किसी भी प्रकार की सफलता या सुख-समृद्धि प्राप्त नहीं कर सकता। दैव की इच्छा न होने या भाग्य खराब होने के कारण आदमी चाहे कितने भी हाथ-पैर मार ले, कितना भी परिश्रम कर ले, उसे कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ करता। कभी-कभी तो ऐसा भी होते देखा गया है कि भाग्य खराब रहने के कारण व्यक्ति के पास जो कुछ रहता भी है, वह सब भी देखते-ही-देखते, बचाने की लाख चेष्टा करने पर भी चौपट होकर रह जाया करता है। अतः
“भाग्यं फलति सर्वत्र, न च विद्या न च पौरुषम्।।”
अर्थात इस व्यापक और व्यावहारिक जीवन में आदमी का भाग्य ही सदा फला करता है अर्थात भाग्य का दिया ही व्यक्ति भोगता है। सो उसकी विद्या बुद्धि और पुरुषार्थ का कतई कोई महत्त्व नहीं हआ करता। आदमी कितना भी पढ़ा-लिखा, विद्वान-बुद्धिमान है, कितना भी सोच-विचार का कार्य क्यों न करे, रात-दिन कठोर परिश्रम क्यों न करता रहे; यदि भाग्य अच्छा नहीं, तो वह सब व्यर्थ होकर रह जाया करता है। इस प्रकार दैववादी या भाग्यवादी पक्ष की विचारधारा का स्वरूप स्पष्ट है। कई बार यह ठीक भी प्रतीत होने लगता है।
भाग्यवादियों की उपर्युक्त मान्यताओं के विपरीत कर्म या पुरुषार्थवादियों का मन्तव्य अथवा अवधारणा शीर्षक सूक्ति में एकदम स्पष्ट है। वह यह कि ‘भाग्य ही सब कुछ है, भाग्य ही जीवन में अच्छा-बुरा परिणाम लाया करता है या फिर भाग्य खराब चल रहा है या अच्छा चल रहा है, भाग्य अच्छा होने पर दिन फिरते देर नहीं लगता। ये और इस प्रकार की बातें आलसी लोग ही कहा या हरेक के पास जाकर सुनाया करते हैं। निठल्ले और कामचोर लोग ही हर समय भाग्य खराब होने का रोना रोया करते हैं। वे लोग बिना हाथ-पैर हिलाए, केवल बातों के सहारे जीवन के सब सुख पा लेना चाहते हैं। पर ऐसा न तो कभी संभव हुआ और न हो ही सकता है। हाथ-पाँव हिलाने अर्थात् निरन्तर कर्म करने से ही उसका कुछ-न-कुछ फल अवश्य मिला करता है। चलने वाला ही अपने गन्तव्य पर पहुँच पाने के आनन्द की विभूति से विभोर हुआ करता है, चौराहे या राह के किनारे पर मात्र बैठा रहने वाला निकम्मा और बातूनी व्यक्ति भाग्य को कोसते रहने के सिवा और कर ही क्या सकता है। कर्मशील व्यक्ति समय की गति पहचान और कर्म-निरत होकर जीवन को सुखी और सफल बना लिया करता है, जबकि निठल्ला भाग्यवादी बैठा-बैठा माथे की लकीरें पीटता रह जाता है। इस तरह से कर्म या पुरुषार्थवादियों की स्पष्ट धारणा है कि :
“उद्यमेन ही सिद्धयन्ति कार्याणि।’
अर्थात मात्र उद्योग या परिश्रम करते रहने से ही सब तरह के कार्य सिद्ध हो सकते हैं, अन्य किसी भी तरीके से नहीं । पुरुषार्थवादियों का यह भी स्पष्ट मानना और कहना है कि “उद्योगिनां हि सिंहनुपैति लक्ष्मीः” अर्थात उद्योग या परिश्रम करते रहने वाले सिह-समान वीर पुरुषों का वरण ही लक्ष्मी किया करती है। दूसरे शब्दों में परिश्रमी व्यक्ति हर प्रकार की सुख-समृद्धियाँ, धन-सम्पत्तियाँ अपने परिश्रम के बल पर अर्जित कर लिया करते हैं। इस प्रकार की मान्यता ही जगत के जीवन्त अनुभवों के आधार पर अधिक प्राणवान एवं सत्य प्रतीत हुआ करती है।
कर्म कर के व्यक्ति सब-कुछ प्राप्त कर सकता है, इस धारणा को तब ठेस लगती है जब जीवन-समाज में हर तरह से कर्मलीन व्यक्तियों को भी कई बार मारे-मारे फिरते देखा करते हैं। उनके विपरीत कर्महीन-हेरा फेरी प्रवीण लोग फलते-फूलते दीख पड़ते हैं। दिनभर मज़दूरी करते रहने वाला मज़दूर और किसान परिवार प्रायः भूख और अभावों का शिकार रहा करता है जबकि उनकी कमाई से खाने वाला परिवार दिन-प्रतिदिन हर स्तर पर ऊँचा ही उठता जाता है। ऐसी स्थिति में कर्मवाद को महत्त्व देने वाले सिद्धान्त कैसे हज्म हो सकते हैं। इस प्रकार की आशंकाओं का समाधान यह कह कर किया जाता है कि पहले व्यक्ति के कर्म में कोई बुनियादी भूल उसे मारा-मारा फिरने को विवश कर दिया करती है। वह भूल तकनीकी भी हो सकती है और चरित्र-स्वभावगत भी। दूसरे मजदूर-किसान आदि का कर्म अनियोजित होने के कारण उन्हें भूखों-अभावों से पीड़ित रहने को विवश किए रहता है। लेकिन इस प्रकार की दलीलों को पूर्ण सत्य नहीं; बल्कि आँशिक सत्य ही कहा जा सकता है।
सत्य तो यह है कि भाग्य और पुरुषार्थ दोनों का उचित तालमेल एवं सामंजस्य ही जीवन में सुख-समृद्धि का कारण बना करता है। निरन्तर कर्म भाग्य को सजा-संवार अवश्य सकता है यद्यपि भाग्य के माथे में मेख नहीं गाड़ सकता। खाने के लिए हाथ-मुँह हिलाना ज़रूरी है; पर तभी कि जब वह खाना सामने रखा हो। सो भाग्य और कर्म या पुरुषार्थ दोनों मिल कर ही जीवन को जीने योग्य बनाया करते हैं।