Essay on Bhagwan Mahavir Swami in Hindi & Mahavir Jayanti in Hindi भगवान महावीर स्वामी पर निबंध
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Essay on Bhagwan Mahavir Swami in Hindi – भगवान महावीर स्वामी पर निबंध
Essay on Bhagwan Mahavir Jayanti in Hindi
भारत देश को महापुरूषों की धरती कहा जाता है। समय-समय पर यहां ऐसे महापुरुष पैदा होते रहे हैं, जिन्होंने अपने कृतित्व और व्यक्तित्व के प्रकाश से मानव जीवन और समाज के हर अंधेरे कोने को प्रकाशित करने को सार्थक प्रयत्न किया ही, साथ ही उस सबके लिए हर तरह के कष्टों से छुटकारा पा सकने का मार्ग भी प्रशस्त कर गए। अपनी मानवीय दया, करुणा और सहज सहानुभूतियों के बल पर उन्होंने अवतारी परमपुरुष होने का गौरव भी प्राप्त कर लिया। फलतः उनके जीवन और कार्य किसी एक वर्ग अथवा जाति के लिए ही नहीं; अपितु सारी मानवता के लिए परम अनुकरणीय बन गए। सो आज भी उनके अनुयायी अपने और सारी मानवता के कल्याण की कामना से उनके जयंतियाँ अथवा जन्मदिन महापर्व अथवा त्योहार की तरह मनाया करते हैं। महावीर जयंती एक ऐसा ही पावन पर्व है, जो मानव-कल्याण की कामना से न केवल भारत अपितु संसार के जहाँ कहीं भी उनको मानने वाले अनुयायी रहते हैं, प्रत्येक उस स्थान पर हर्षोल्लास के साथ मनाते है।
भारतवर्ष विशाल हिन्दू समाज का एक प्रमुख अंग है- जैन समाज। मानवीय दया, करुणा, प्रेम और अहिंसा तथा सभी धर्मों, सम्प्रदायों के प्रति आदर भाव रखने की शिक्षा देने वाले इस धर्म का प्रवर्तन महावीर स्वामी ने किया था। दयनीय परिस्थितियों और मानवीय करुणा से
आविभूत होकर वे छोटी आयु से ही घर-बार त्याग कर तपस्या-लीन हो गए थे। परिणामस्वरूप ज्ञान प्राप्ति के बाद समस्त मानव-समाज के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने के लिए उन्होंने जिस नये सम्प्रदाय, समाज अथवा धर्म का प्रवर्तन किया; वह जैन-धर्म, जैनमत अथवा जैन सम्प्रदाय कहलाता है। मुख्यत: इसी संप्रदाय के लोग हर साल अप्रैल माह में अपने आदि पुरुष का पुण्य स्मरण करने के लिए महावीर जयंती को एक पर्व की तरह हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं।
सहज मानवीय करुणा, जीव-दया, अहिंसा, सत्य, उदारता, शुद्धाचार-व्यवहार, सदाचार, सभी के साथ भाईचारा और प्रेम, सभी धर्मों-मतों-सम्प्रदायों के प्रति समभाव ओर वृहद स्तर पर मानव-हित-साधन और कल्याण के लिए उदात्त कार्य- ये महावीर स्वामी द्वारा प्रवर्तित जैन-संप्रदाय के मान्य सिद्धांत, हैं। महावीर जयंती को एक पर्वोत्सव के रूप में मनाकर जैन-धर्मावलंबी लोग इन्हीं सब के प्रचार-प्रसार किया करते हैं। इस अवसर पर इन सिद्धांतों और मान्यताओं को अपने जीवन में ढालने का व्रत भी सामूहिक स्तर पर लिया जाता है। मानवीय मूल्यों और धर्मों के प्रति यह आस्था ही इस पर्व की महत्ता और सार्थकता को प्रतिपादित करती है।
जैसा प्रत्येक संप्रदाय अथवा धर्म मत के साथ हुआ है; शुरू में एक रहे जैन संप्रदाय के भी आगे चल कर मुख्यत: दो मत हो गए। एक श्वेतांबर जैन और दूसरा दिगंबर जैन। पहले मत के लोग गुरु और मुनि आदि श्वेत वस्त्र धारण करते हैं, जबकि दूसरे मत के अधिकांशत: एकदम नग्न रहते हैं। कुछ अन्य मान्यताओं में भी दोनों के मध्य मतभेद हो सकते हैं; पर जहाँ तक मूल सिद्धांतों और मान्यताओं का सवाल है, दोनों में किसी भी प्रकार का मतांतर नहीं है। इसी वजह से दोनों वर्गों के लोग अपने अवतारी पुरुषों की जयंतियाँ आदि भी समान स्तर पर और मिल-जुलकर हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। सभी में समान उल्लास, उत्साह और भक्ति-भाव होता है।
महावीर जयंती का पर्व बड़े हर्षोल्लास से, संपूर्ण निष्ठा और बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस दिन जैन मंदिरों में प्रात: काल नियमित पूजा-उपासना तो होती ही है, प्रभात-फेरियाँ भी निकालने का रिवाज है। उसके बाद दिन में विशाल एवं भव्य शोभा यात्रा निकालने का चलन है। इसमें जैन-धर्मावलंबी स्कूलों के छात्र-छात्राएँ अधिकांशत: श्वेत गणवेश बनाकर, बैण्ड-बाजे के साथ तरह-तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए भाग लेते हैं, अन्य सभी स्त्री-पुरुष भी आनंद से भर कर महावीर स्वामी तथा अन्य अवतारों की जय-जयकार करते हुए जुलूस निकालते हैं। पालकियों और रथों में भी महावीर स्वामी तथा अन्य अवतारों की मूर्तियाँ स्थापित की जाती हैं। उनके आगे स्तुतिपरक गीत गाने वाली भजन-मंडलियाँ गाती चलती हैं। पालकियाँ रथ और बैठने के सिंहासन आदि सभी कुछ विशेष तरह के बने रहते हैं और जयंती पर्व मनाने के बाद एक निश्चित स्थान पर सुरक्षित रख दिए जाते हैं। इस तरह की शोभा-यात्राओं में साध्वियाँ और जैन-श्रमण (साधु) भी विशिष्ट रूप से भाग लेते हैं। सभी ने दूध के-से उजले वस्त्र आदि धारण करते हैं। सो धीरे-धीरे उद्देश्य की तरफ शोभा-यात्रा को निहार कर लगता है कि जैसे पवित्र और शुभ्र दूध का अछोर सागर शांत भाव से बहा चला जा रहा हो।
इस तरह लगभग अप्रैल महीने में, हर साल जैन-समाज द्वारा भगवान् महावीर स्वामी का जयंती-पर्व पूर्ण भव्यता के साथ मना कर यह प्रस्तुत किया जाता है कि इस विशाल देश में उज्जवलता का महत्त्व ही अधिक है- बाह्य और आंतरिक दोनों प्रकार की उज्जवलता (पवित्रता) का। यह भी कि इस राष्ट्र की महान् सभ्यता और संस्कृति में प्रेम, सत्य, मानवीय करुणा, अहिंसा और दया की लहरें उठाकर उन्हें संसार के कोने-कोने में पहुँचा देने की अपूर्व-अद्भुत गुण भी विद्यमान है।
Essay on Bhagwan Mahavir Swami in Hindi 1000 Words
भूमिका
एक महापुरुष
भारत एक ऐसा देश है जिस ने एक नहीं, अनेक महापरुषों को जन्म दिया जो समय-समय पर सन्तप्त मानव को शान्ति प्रदान करते रहे तभी तो विदेशों से आकर दूसरे लोग भी भारत में शिक्षा लेते थे। वे भारत से प्रकाश के कण लेकर अपने अज्ञान के अन्धकार को दूर करते थे। जिन महापुरुषों के कारण भारत जगतगुरु कहलाया, उन्हीं महापुरुषों में वर्धमान महावीर स्वामी का नाम विशेष उल्लेखनीय है।
परिस्थितियां और स्थान
वर्धमान महावीर स्वामी भी उसी समय पैदा हुए जबकि गौतम बुद्ध हुए थे, इसलिए दोनों की परिस्थितियां लगभग एक जैसी ही हैं। अन्तर केवल इतना है कि बुद्ध ने अपना नया मत चलाया जबकि वर्धमान महावीर स्वामी जैनियों के 24वें तीर्थकर बने। वैसे तो जैन धर्म का आरम्भ ईसा से बहुत पहले हो चुका था और उसके 23 तीर्थकर भी क्रमशः सामने आ चुके थे जैसे ऋषभदेव, नेमिनाथ, पाश्र्वनाथ आदि। जैन धर्म को समाज के सामने प्रस्तुत करने में, जैन धर्म के सिद्धान्तों की विधिवत् व्याख्या करने में, पुराने तीर्थंकरों के उपदेशों को इकट्ठा करने में जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर श्री वर्धमान महावीर स्वामी का विशेष नाम है इसलिए कुछ लोग प्रमवश जैन धर्म का आरम्भ ही वर्धमान महावीर स्वामी जी से मानते हैं। उनका यह मत उचित नहीं है। वास्तव में जैन धर्म का उदय बहुत पहले हो चुका था।
जीवन झांकी
श्री वर्धमान महावीर स्वामी का जन्म ईसा-पूर्व 598 में, गंडक नदी के तट पर कुण्ड ग्राम से, वैशाली नाम के स्थान पर सिद्धार्थ राजा के घर त्रिशला रानी के गर्भ से चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन हुआ। कहते हैं, बच्चा पैदा होने से पहले त्रिशला को चौदह सुन्दर स्वप्न आए थे जिन से यह सिद्ध होता था कि पैदा होने वाला लड़का अत्यल तेजस्वी होगा। इस लड़के का असली नाम कुमार वर्धमान था। कहते हैं कि एक बार इस ने जीवित विषैले सांप को पकड़ लिया था, इसलिए इसका नाम महावीर रखा गया। उन्होंने यशोधरा नामक लकड़ी से विवाह किया जिससे प्रियदर्शना नामक लड़की पैदा हुई। दिगम्बर जैनी इस वृत्त को नहीं मानते। उनका कहना है कि महावीर स्वामी सारा जीवन ब्रह्मचारी रहे। घर वालों ने विवाह के लिए प्रयल ज़रूर किया पर वे सफल न हो पाए। पिता ने बच्चे को उदासीन देख कर राजकाज में लगाना चाहा पर महावीर स्वामी ने तीन वर्ष की आयु में घर छोड़ कर संन्यास ले लिया और गण्डकी नदी के किनारे तपस्या करने लगे। 12 वर्ष उन्हें तपस्या करते हुए बीत गए। आखिर ऋजुकूला नदी के किनारे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। तीस वर्ष उन्होंने घूम-घूम कर अपने विचारों की व्याख्या की और 72 वर्ष की आयु में उन्हें निर्वाण-पद प्राप्त हुआ।
जैन धर्म के सिद्धान्त-जैन धर्म के सिद्धान्तों की आधारशिला अहिंसा है। मन, वचन और कर्म से जीव-मात्र को दुःख न देना अहिंसा है। महावीर स्वामी ने हिंसा के चार प्रकार बताए।
- संकल्प – जान-बूझकर जीव की हत्या करना संकल्प हत्या है। युद्ध, शिकार आदि में की गई हत्याएं इसी कोटि में आती हैं।
- आरम्भी – अनजाने में जीवों का हनन जैसे झाडू लगाने से कीड़ों आदि का नाश आरम्भी हिंसा है। लकड़ी जलाते हुए या पानी पीते हुए जो सूक्ष्म कीटाणु मरते हैं वे इसी हिंसा में आते हैं। यही कारण है कि जैन साधु और साध्वी मुंह पर पट्टी रखते हैं और हाथ में एक कोमल रजोहरण पकड़े रहते हैं और पानी छान कर पीते हैं।
- उद्योगी – अहिंसा के प्रयत्न करने पर भी जो हिंसा हो जाए वह उद्योगी हिंसा कहलाती हैं।
- विरोधी – बदले की भावना से किसी की जो हिंसा की जाए, उसे विरोधी हिंसा कहा जाता है। इस प्रकार स्वामी जी ने हिंसा का बहुत सूक्ष्म विवेचन किया। इसके विपरीत चलना अहिंसा है।
वर्धमान महावीर स्वामी ने जैनियों के दो तरह के धर्मों का उल्लेख किया है। पहला भिक्षु-धर्म और दूसरा श्रावक-धर्म। जो जैनी साधु बन जाते हैं, उनके लिए जो धर्म है, वह भिक्षु धर्म है, इसके सिद्धान्त बहुत कठोर है। दूसरा धर्म गृहस्थियों के लिए है, उसे श्रावक धर्म कहते हैं। महावीर स्वामी जी का कहना है कि गृहस्थी को भी मुक्ति मिल सकती है, वह भी मुनियों जैसा जीवन व्यतीत कर सकता है यदि उस में कर्म की शुद्धता हो। आपका कहना है कि जहां तक हो सके, मोह से दूर रहो। यह मन, वाणी और मोह ही संकटों का कारण है। मोह ही मनुष्य को संसार के जाल में फंसाता है। इसलिए श्रावक को मोह का त्याग करना चाहिए। दूसरा दोष है लोभ। मोह की तरह लोभ भी भंयकर दोष है। लोभ ही मनुष्य को इधर-उधर भटकाता है। लोभ और असन्तोष के कारण ही मनुष्य बुरे काम को करता है, इसलिए श्रावक को संयम का सहारा लेना चाहिए और लोभ का त्याग करना चाहिए।
अपरिग्रह अत्यन्त आवश्यक है, अर्थात् अधिक वस्तुओं का संग्रह नहीं करना चाहिए। वस्तुओं का संग्रह करने से लोभ की भावना बढ़ती है और लोभी व्यक्ति फिर धर्म का विवेक किए बिना दुष्कर्मों की ओर प्रवृत होता है। अभिमान भी मनुष्य को सद्मार्ग से विचलित करता है।
महावीर स्वामी ने उद्यम को बहुत महत्त्व दिया है। अहिंसा के समर्थक होते हुए भी उन्होंने क्षत्रियत्व की रक्षा की है। इस सम्बन्ध में उन्होंने कहा है कि –
यः शस्त्रवृत्तिः समरे रिपुः स्यात्। यः कटेको वा विजयमण्डलस्य॥
अखाणि तत्रैव नृपः क्षिपन्ति। न दीन-कायेषु शुभाशयेषु॥
अर्थात् जो युद्ध में शस्त्र लेकर आया हो या देश के लिए कांटा हो, उसी पर राजन्य शस्त्र उठाता है। दीन, कायर या सदाशयी पर नहीं, वह अहिंसा है। इस प्रकार महावीर स्वामी ने क्षात्र कर्म की रक्षा की है। अहिंसा के इतने बड़े पक्षपाती होते हुए भी उद्यम के क्षेत्र में शस्त्र उठाने को उन्होंने अनुपयोगी या अधर्म नहीं माना।
महावीर स्वामी जी का विचार है कि अच्छे किए हुए कर्म बुरे कर्मों को नष्ट करते हैं और कर्मों के नष्ट होने से मनुष्य संसार के बन्धनों से मुक्त होता है और तब उसकी दशा अरिहन्त बन जाती है। इसलिए जहां तक हो सके वासनाओं को दमित करना चाहिए। वासनाओं का दमन कठोर तपस्या और उपवासों से ही हो सकता है। आपका कहना है कि सच बोलना चाहिए जो प्रिय हो कटु न हो। नशीली वस्तु का प्रयोग नहीं करना चाहिए और चोरी भी नहीं करनी चाहिए। अधिक संचयशील नहीं होना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को ब्रह्मचारी बनना चाहिए। गृहस्थ के बारे में उन का कहना है कि अगर गृहस्थी स्त्री या पुरुष अपने पुरुष या स्त्री के अतिरिक्त किसी अन्य का मन, वाणी, कर्म से चिन्तन नहीं करता या करती तो वह ब्रह्मचारी है। संसार दुःखों का घर है। कर्म दुःखों का कारण है। इस तरह महावीर स्वामी जी ने अपने सुनहरे सिद्धान्तों से मानव-मात्र को कल्याण का मार्ग दिखाया और उनका कहना है कि ‘जीओ और जीने दो। इसलिए महावीर स्वामी की गणना महापुरुषों और विश्व की महान् विभूतियों में की जाती है।
वस्तुतः महावीर स्वामी भारतीय एकता के प्रतीक थे। उन्होंने हमें जो भी सन्देश दिया वह अमर है। आज आवश्यकता इस बात की है कि उनका पवित्र सन्देश घर-घर पहुंचाया जाए जिस से विश्व युद्ध की ज्वाला से छुटकारा पाये, लोग अहिंसा के महत्त्व को समझें, लोभ तथा भेदभाव मिटा कर एक सूत्र में ग्रथित हों।
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