Essay on Cinema in Hindi सिनेमा पर निबंध

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hindiinhindi Essay on Cinema in Hindi

Essay on Cinema in Hindi 500 Words

सिनेमा पर निबंध

मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ भौतिक सख-साधनों में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई। छाया चित्रों का भी क्रमिक विकास हुआ। फिर इन चित्रों में गति उत्पन्न हुई। धीरे-धीरे ये मूक चित्र बोलने व चलने-फिरने लगे और चलचित्रों का जन्म हुआ। इस आविष्कार ने संसारभर की मनुष्य जाति के मन-मस्तिष्क पर अपना साम्राज्य बना लिया और आज चलचित्रों के प्रभाव से कोई भी अछूता नहीं है।

प्रकाश, ध्वनि व चित्रों की सहायता से किया गया यह अनुपम आविष्कार आज मनोरंजन का प्रमुख साधन है। आरंभ में मूक चित्रों का निर्माण किया गया। फिर श्वेत-श्याम ध्वनियुक्त चलचित्र प्रकाश में आए। भारत में प्रथम महायुद्ध के समय इस आविष्कार ने अपना प्रभाव जमाना आरंभ किया। नाटक, कहानी, प्रहसन का आनंद लोगों को चलचित्र में मिलने लगा। धीरे-धीरे छोटे-बड़े सभी शहरों और कस्बों में चलचित्रों की लोकप्रियता बढ़ती गई।

चलचित्र मनोरंजन का उत्तम साधन है। इसके द्वारा अपने देश की संस्कृति व सभ्यता को जीवित रखा जा सकता है। पौराणिक कथाओं पर आधारित चलचित्रों के माध्यम से समाज में आदर्शात्मक गुणों की स्थापना की जा सकती है।

चलचित्रों के माध्यम से देश की कठिन-से-कठिन समस्याओं को सुलझाने में मदद मिल सकती है। सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध अभियान छेड़ने में चलचित्र प्रमुख भूमिका निभाते हैं। भावात्मक कथाप्रधान चलचित्रों के माध्यम से समाज की बुराइयों व कुप्रथाओं को दूर किया जा सकता है। चलचित्रों द्वारा किसी भी प्रथा के कारण, कार्य व परिणाम दिखाकर दर्शकों के विवेक को झकझोरा जा सकता है। अनेक गंभीर समस्याओं को कथाओं के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाकर उन्हें जागरूक व सचेष्ट किया जा सकता है। वर्तमान में बढ़ रही मद्यपान, मादक द्रव्यों का सेवन, दहेज-प्रथा, रिश्वत, भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं के प्रति जनमानस की विचारधारा को आंदोलित करने में चलचित्रों की भूमिका सराहनीय हो सकती है।

चलचित्र जीवन का व्यावहारिक ज्ञान देते हैं। किसी भी विषय पर बना चलचित्र दर्शकों को उनकी रुचि के अनुकूल आनंद व शिक्षा प्रदान करता है। देश-विदेश के चलचित्रों को देखकर लोग न केवल दूसरों के रहन-सहन से परिचित होते हैं अपितु उनकी जीवन-शैली और विचारधारा प्रेक्षकों की कार्यप्रणाली को प्रभावित करती है। देशभक्ति की भावना से पूर्ण चलचित्रों का युवाओं के मन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। वे देशसेवा के कार्यों में जुटने की प्रेरणा प्राप्त करते हैं।

चलचित्रों का प्रयोग शिक्षा के प्रसार हेतु भी किया जा सकता है। आजकल गणित, भूगोल, इतिहास तथा तकनीकी शिक्षा देने के लिए भी चलचित्र उत्तम माध्यम माने जा रहे हैं। दृश्य व श्रव्य होने के कारण ये छात्रों के मन में ज्ञान व व्यवहार संबंधी अमिट प्रभाव छोड़ते हैं। डॉक्यूमेंट्री चलचित्रों द्वारा देश की विभिन्न समस्याओं, दुर्गम दर्शनीय स्थलों, विभिन्न कार्य योजनाओं के विषय में विस्तृत जानकारी दी जा रही है।

देश में आर्थिक संपन्नता लाने में भी चलचित्रों का बड़ा योगदान है। विश्वभर में भारतीय विचारधारा, कला, संस्कृति, धर्म, दर्शन का प्रचार-प्रसार करने में चलचित्रों की विशेष भूमिका है। प्रचारको व विज्ञापनदाताओं के लिए तो चलचित्र वरदान सिद्ध हुए हैं।

चलचित्र मनोरजन तथा ज्ञान-वृधि के उत्तम साधन हैं। कछ लोगों का मानना है कि मनोरंजन के लिए विकसित इस कला ने अब विकृत रूप धारण कर लिया है। हिंसा से भरे, अश्लील व भौंडे दृश्यों के माध्यम से चलाचत्र-निर्माता सस्ती लोकप्रियता व धनार्जन करना चाहते हैं। इस प्रकार से बने चलचित्र युवाओं में अनेक मानसिक विकृतियों को जन्म देते हैं।

चलचित्रों के पक्ष व विपक्ष में अनेक प्रकार के विचार समाज में उपलब्ध हैं। चलचित्रों के लाभ सैद्धांतिक हैं, परंतु व्यावहारिक रूप में इसकी हानियाँ ही अधिक प्रकाश में आ रही हैं। कला की उन्नति व चलचित्रों की विधा का समाज को भरपूर लाभ मिले, इसके लिए सामाजिक, सरकारी व व्यक्तिगत प्रत्येक स्तर पर भरपूर प्रयास की आवश्यकता है ताकि मनोरंजन के इस उत्तम साधन का समाज व राष्ट्रहितार्थ सदुपयोग संभव हो सके।

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Essay on Cinema in Hindi 600 Words

सिनेमा बनाम समाज

आज हम जिस समाज में रह रहे हैं वह सूचना का सजग युग है। यह शताब्दी संचार-क्रांति की महान शताब्दी है। आज पूरे विश्व को सूचना एवं संचार के एक सूत्र में पूर्णत: पिरोया जा चुका है। आज हर देश, बाकी देशों से इसी के माध्यम से जुड़ा हुआ है। विश्व के किसी भी कोने में अगर कोई घटना घटती है तो वह क्षणभर में पूरे विश्व में फैल जाती है। विश्व के किसी भी कोने में प्रायोजित किए जाने वाले कार्यक्रम आज हम घर बैठे देख सकते हैं। यह मानव सभ्यता की जितनी बड़ी उपलब्धि है, उतनी ही महान एक क्रांति भी है।

आज मनुष्य अपनी वैचारिक एवं भावनात्मक जरुरतों को पूरा करने के लिए टी-वी अथवा सिनेमा के साथ जुड़ा हुआ है। उस पर दिखाये जाने वाले कार्यक्रम उसकी मनोरंजन की चेष्टा एवं जरुरत को पूर्ण करते हैं। सिनेमा आज आदमी के जीवन का नितांत अनिवार्य और अपरिहार्य अंग बन गया है’: यह कहना समसामयिक प्रवृतियां एवं सिनेमा की सामाजिकभूमिका को देखने के उपरांत, कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा। सिनेमा आज आदमी की औसतन आवश्यकताओं को पूरा करता है। उसे विश्व की अनेक जानकारियों की प्राप्ति तो सिनेमा के ही माध्यम से होती है।

हम ‘दूरदूर्शन’ देखते हैं, उसके चैनल पर प्रायोजित होने वाले कार्यक्रम प्रमुखत: ज्ञान-विज्ञान, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक विषय, नवीनतम सूचना एवं जानकारियों आदि से संबंध रखने के साथ ही बालकों, वयस्कों आदि के मनोरंजन से भी संबध रखते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सिनेमा आज अपने व्यापक प्रसार में मानवीय जीवन के बहुतांश को अपने में समेट लेता है। वस्तुत: सिनेमा का समाज पर पड़ने वाला प्रभाव अत्यधिक व्यापक होता है। अगर कहा जाए कि सिनेमा आज हमारे समाज का न केवल प्रतिबिंब बन गया है। अपितु वह हमारे समाज का सजग प्रतिनिधित्व भी करता है – तो कुछ गलत न होगा और न ही यह कोई अतिशयोक्ति होगी। सिनेमा से समाज में आने वाले परिवर्तनों एवं प्रभावों को कुछ इस प्रकार समझा जा सकता है।

एक समय था, जब समाज अथवा समस्त मानव-समुदाय सामान्य जानकारियाँ प्राप्त करने के लिए कुछ एक गिने-चुने माध्यमों पर ही अवलम्बित रहता था। समाज के कुछ एक जागरुक लोग सम्पूर्ण समाज को सम्बोधित किया करते थे। वे उन्हें जिस प्रकार से बातें बताते अथवा सिखाते थे वे उन्हें वैसा ही मानते थे। किन्तु आज सिनेमा ने मानव-समाज को प्रत्यक्ष रूप से सम्बोधित करना आरम्भ कर दिया है। वह जनता को राजनीति की तमाम घटनाओं, उनके कारणों एवं उन घटनाओं के फलस्वरुप उत्पन्न होने वाले परिणामों को सीधे जनता के सामने रख देता है। इससे जनता में गहरी राजनैतिक-चेतना पैदा होती है। जनता में राजनैतिक चेतना पैदा करना सिनेमा का समाज पर पड़ने वाला एक अत्यंत महत्वपूर्ण सकारात्मक प्रभाव कहा जाना चाहिए।

इसी के साथ सिनेमा आदमी को उसके आस-पास के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश एव वातावरण की सूक्ष्मता से जानकारी प्रदान करता है। इससे उसमें समाजिकता का विकास होता है। वह अपने देश की सांस्कृतिक-परम्परा एवं उसके समग्र इतिहास से परिचित होता है। उसमे सामाजिक-चेतना का विकास होता है। इसी के साथ दूरदर्शन पर अनेक ऐसे कार्यक्रम प्रस्तुत किये जाते हैं जो अर्थव्यवस्था और हमारी कृषि-व्यवस्था आदि से संबंधित होते हैं। हम दूरदर्शन पर प्रस्तुत होने वाला कृषि-दर्शन कार्यक्रम भी देखते हैं। इस कार्यक्रम से किसानों को अपरिमित लाभ पहुंचा है। उन्होंने इस कार्यक्रम के माध्यम से अनेक ऐसे यंत्रों, साधनों एवं बीजों के बारे में जानकारियां को प्राप्त की हैं, जिनका उपयोग करके वे अपनी कृषि उत्पादन कई गुना बढ़ा सकते हैं।

इसी के साथ दूरदर्शन का एक और महत्वपूर्ण प्रभाव सामाजिक – पारिवारिक संबंधों पर भी पड़ता है। दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले मनोरंजन कार्यक्रम हमारा मनोरंजन करने के साथ-साथ हमारे भीतर नैतिक मूल्य और आदर्श भी भरते हैं।

इस प्रकार सिनेमा और दूरदर्शन ने हमारे समसामयिक जीवन को अत्यंत व्यापक रूप से प्रभावित किया है। इसलिए उसे हमारे समाज का सच्चा पथ प्रदर्शक कहना ही चाहिए।

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डिजिटल सिनेमा पर निबंध 600 Words

हमारे देश के सिनेमा जगत में पायरेसी एक बहुत बड़ी समस्या है। पायरेसी के द्वारा बॉलीवुड लगभग 50 प्रतिशत तक का नुकसान होता है।

फिल्म उद्योग से जुड़े लोग नई फिल्म को दूर-दराज के इलाको में इसलिए रिलीज नहीं करते कि वहां से उनकी नई फिल्म की पायरेसी हो जायेगी। पायरेसी से निपटने के लिए विकसित देशो में डिजिटल तकनीकि का प्रयोग किया जाता है, जिससे वहां एक साथ फिल्म के ढेर सारा प्रिंट रिलीज होते हैं और उनकी आमदनी भी अधिक होती है। अमेरिका में फिल्म के 2000 प्रिंट एक साथ रिलीज होते हैं और पहले ही सप्ताहांत (शनिवार-रविवार) में फिल्म 100 करोड़ डॉलर (करीब 500 करोड़ रुपये) तक का कारोबार कर डालती है। भारत के सालाना फिल्म कारोबार (4600 करोड़ रुपये) को अगर फिक्की के आकलन के अनुसार, 2009 तक 12,900 करोड़ रुपये तक पहुँचना है तो इसे भी डिजिटल तकनीक को अपनाना होगा। इस तकनीक को अपनाने की पैरवी कुछ कम्पनियां कर भी रही हैं। ये कम्पनियां डिजिटल सिनेमा के क्षेत्र में उतर चुकी हैं या जल्द उतरने वाली हैं। इनका दावा है कि पायरेसी का नामोनिशान मिटा देंगे और फिल्मों के प्रिंट बनाने के खर्च को इतना सस्ता कर देंगे कि हॉलीवुड की तरह बॉलीवुड भी नई फिल्म के 1000-2000 प्रिंट रिलीज कर के कम दिनों में ज्यादा कमाई कर सकेगा।

यह एक ऐसी केन्द्रीकृत तकनीक है, जिससे सिनेमा हॉल को जोड़ देने से सेटेलाइट के जरिए किसी फिल्म के प्रिंट को सिनेमा हॉल में जरूरत पड़ने पर किसी भी वक्त पहुँचाया जा सकता है।

इस तकनीक को अपनाने वाली कंपनी सबसे पहले फिल्म निर्माता से उनकी फिल्म को एमपीईजी 3 तकनीक से डिजिटल बनाने की अनुमति लेती है। फिर इनको वह कम्पनी अपने सेन्ट्रल मर्वर में अपलोड कर देती है। उसके बाद उसे उन सिनेमा हॉलों में ऑनलाइन वितरित कर देती है, जहाँ डिजिटल फिल्मों को रिसीव करने की तकनीक लगी हुई है। इस तकनीक में मारे सिस्टम को इनक्रिप्ट कर दिया जाता है, ताकि फिल्म की पायरेसी न हो सके।

मीडिया बजट (8 से 10 करोड़ रुपये) की फिल्में बनाने के लिए फिल्मकार नई फिल्म को औसतन 200 से 250 सिनेमाहॉल में रिलीज करते हैं। एक प्रिंट बनाने में 60,000 रुपये का खर्च आता है। अब अगर वे नई फिल्म को एक साथ 200 सिनेमाहॉल में लीज कर रहे हैं तो फिल्म के 200 प्रिंट बनाने का खर्च एक करोड़ बीस लाख रुपये हो जाता है। प्रिंट दिने ज्यादा होंगे बजट भी उसी हिसाब से आगे जायेगा। इसलिए ज्यादातर निर्माता अपनी फिल्मों को बड़े शहरों में पहले रिलीज करते हैं और फिर एक हफ्ते बाद उसी प्रिंट को छोटे शहरों में रिलीज करते हैं। लेकिन तब तक पायरेसी से उनकी फिल्में देश भर में सीडी-डीवीडी पर उपलब्ध हो जाती हैं। डिजिटल सिनेमा प्रिंट के इस खर्चे को एक चौथाई से भी कम कर देता है। कोई निर्माता जो अपने खर्चे बचाने के लिए अपनी नई फिल्म के कम प्रिंट रिलीज करता है, वह अब उसी खर्चे में चार गुना अधिक प्रिंट रिलीज कर सकता है। सामान्य सिनेमाहॉल को डिजिटल बनाने का खर्च 10 से 15 लाख तक आता है। डिजिटल तकनीक से बॉलीवड की कुछ फिल्म रिलीज भी की जा चुकी हैं।

डिजिटल तकनीक निश्चित रुप से बॉलीवट की तकदीर बदल सकती हैं। इससे बालीवु को कम खर्च में अधिक लाभ प्राप्त होगा तथा इस तरह के प्रिंट को सालों साल तक सुरक्षित रखा जा सकेगा। सेटेलाइट तकनीक से 100 से अधिक शहरों में बिना अतिरिक्त खर्च के फिल्म प्रिंट भेजे जा सकते हैं। कहा जा सकता है कि आने वाले समय में डिजिटल सिनेमा बॉलीवुड के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा।

सिनेमा पर निबंध Essay on Cinema in Hindi 700 Words

सिनेमा का प्रभाव

साहित्य और कला का रचनात्मक माध्यम और स्वरुप चाहे कैसा और कोई भी क्यों न हो; उसकी सफलता का मूल्याँकन समाज का दर्पण बन कर उसके अन्त:-बाह्य को प्रकट करने की क्षमता से ही किया जाता है। जो साहित्य और कला-रूप इस मापदंड पर खरा नहीं उतर पाता, उसे व्यर्थ की कोशिश से अधिक कुछ भी माना नहीं जाता। साहित्य और विविध कलाएँ अपनी वास्तविक सृजन-प्रक्रिया द्वारा जीवन और समाज का दर्पण तो बन ही सकती है, अपनी स्वभावगत मनोरंजन और आनंददायिनी प्रवृत्ति से जन-शिक्षण तथा जन-समस्याओं के निराकरण में भी अपना महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकती हैं, ऐसा प्रत्येक जन-हितैषी एवं समझदार व्यक्ति का स्पष्ट विचार है। लेकिन आज का सर्वाधिक सुलभ, सस्ता और लोकप्रिय दृश्य-श्रव्य माध्यम, कला-रूप सिनेमा तकनीकी स्तर पर बहुत आगे बढ़ कर भी समाजिक जीवन का हित-साधन तो क्या, उसके वास्तविक स्वरुप का दर्पण तक बन पाने में असमर्थ हो रहा है।

भारत में पहले मूक और फिर बोलते चित्र के रूप में सिनेमा की शुरुआत बींसवी शताब्दी के लगभग तीसरे दशक से शुरू हो सकी। तब से लेकर लगभग पांचवे-छठे दशक तक वह वास्तव में जीवन और समाज के व्यावहारिक एवं आवश्यक पक्षों का रोचक चित्रण करता रहा। यही नहीं, स्वतंत्रता-संघर्ष के दिनों में सिनेमा जनमानस को स्वतंत्रता संघर्ष में सम्मिलत करने, भाईचारा, पारस्परिक प्रेम ओर एकता का प्रचार-प्रसार करने की दिशा में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रदान करता रहा। लगभग सातवें दशक के सिनेमा में भी सामाजिक संबंधों का न्यूनाधिक उभार देखने को मिल जाता है। उसके बाद से संसार का वह सबसे लोकप्रिय और मजबूत माध्यम जन-समाज के वास्तविक आयामों से लगातार अलग होता गया, आधुनिक सिनेमा का तो हमारे व्यावहारिक जीवन-समाज से कहीं दूर का भी कोई संबंध नहीं रह गया है, यह तथ्य दु:ख के साथ स्वीकारना पड़ता है।

आधुनिक सिनेमा में जिस तरह के कृत्रिम लोग, कृत्रिम कहानियाँ, कृत्रिम वातावरण प्रस्तुत, किया जाता है और जो बनावटी परिणाम सामने लाए जाते हैं, इन सबका समाज के व्यवहारिक, जीवन से कहीं दूर का भी संबंध नहीं होता और भविष्य में भी कभी समाज वैसा बन सकेगा इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती। अश्लीलता, नग्नता, हिंसा, खाली सपनों की बनावट और विकृति जिस आयातित अपसंकृति का प्रचार-प्रसार आज का सिनेमा कर रहा है वह भारतीय जीवन-समाज को पतन के किस गर्त में ले जायेगा, आज उसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती। कोरे सपनों के सौदागर सिनेमा, ने आज के भारतीय समाज को अपराधी मनोवृत्तियों वाला बना कर रख दिया है। आधुनिकता के नाम पर वह घर-परिवार से कटता हुआ मात्र सिनेमाई बनता जा रहा है। किशोरों की बात तो दूर नन्हें-मुन्ने बच्चे तक सिनेमाई अपसंस्कृति के प्रभाव से बुरी तरह प्रभावित होकर अनेक प्रकार के दोषों-बीमारियों का शिकार होते जा रहे हैं। जो मजबूत दृश्य-श्रव्य मीडिया संक्रमण करके इस दौर में जीवन और समाज के नव निर्माण में सहयोगी हो सकता था वही उसे उजाड़ कर किसी घोर अमानवीय बियावान में ले जाकर जंगली दरिंदों की हिंसा का शिकार हो जाने के लिए छोड़ देना चाहता है।

आज के सिनमा में कुछ भी तो स्वाभाविक नहीं होता। गाँव-खेत हर चीज बनावटी होती है – महल, झाड़ियों और बनावटी घिनौने फार्मूले, बनावटी अस्पताल, डॉक्टर, नर्से ओर बनावटी ही पुलिस यहां तक कि नायक-नायिका का बातें और व्यवहार तक बनावटी और अनैतिक। ऐसे में सिनेमा से भला जीवन-समाज के लाभ या भले की आशा क्या और कैसे की जा सकती है? अकेला दबला-पतला नायक, पहलवान टाईप के बीसियों आदमियों को मार गिराता है। क्या जीवन और समाज में कभी ऐसा हुआ या हो सकता है? सिनेमा में डॉक्टरों नर्सी, पुलिस वालों को जितना स्वाभाविक और सहृदय दिखाया जाता है, यदि व्यवहार में भी वे वेसे हो जाएँ, तो हमारा सामाजिक ढाँचा वास्तव में स्वर्ग बन जाए।

आज का प्रत्येक चलचित्र प्रायः एक जैसी हिंसा, अश्लील और नग्न, मारधाड़, बलात्कार, नृत्य द्विअर्थक गंदी भाषा आदि दिखाकर आखिर किस तरह के समाज का निर्माण करना चाहता है? घिनौने और भौडे मनोरंजन के नाम पर वह हमें दे ही क्या रहा है – वह भी जनता की माँग पर उसी के माथे पर अपनी कुरुचियों का भाँडा फोड़कर, यह सोचने-विचारने की बात है। यदि यही सब जीवन और समाज के लिए परोसे जाते रहना है, तो उचित यही है कि इस माध्यम को बंद ही कर दिया जाए या फिर इसका दुरुपयोग रोकने के लिए नियमों की सख्त पाबंदी लगाई जाए। तभी यह कलात्मक माध्यम शायद समाज और जीवन का वास्तविक दर्पण बन सके।

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सिनेमा पर निबंध Essay on Cinema in Hindi 1000 Words

सिनेमा का समाज पर प्रभाव 

सिनेमा चलचित्र विज्ञान की देन है। कैमरे और बिजली के आविष्कार ने इसके जन्म में सहायता दी है। 1860 के लगभग इस दिशा में प्रयत्न आरम्भ हो गए है। सर्वप्रथम मूक चलचित्र आरम्भ हुए। छोटी-छोटी फिल्में होती थीं जिन में संवाद नहीं होते थे। 1917 में पहली बोलने वाली फिल्म बनी। अभी भी इस क्षेत्र में नए नए प्रयोग चल रहे हैं। रंगदार और सिनेमास्कोप तो अब आम हो चुके हैं। ‘थ्री डाइमॅशनल’ फिल्मों का प्रयोग भी हुआ है जो पूरी तरह से सफल नहीं हो पाया।

पुराने समय में नाटक, नाच-गाना, बाजीगरों और मदारियों के तमाशे जनता के मनोरंजन का मुख्य साधन थे। आज ये सब पीछे छूट गये हैं और सिनेमा मनोरंजन का मुख्य साधन बन चुका है। छोटे-छोटे नगरों में भी सिनेमा हाल हैं। गांवों में भी चलती-फिरती टाकियां पहुंच जाती हैं। बड़े-बड़े शहरों में तो अनेक एयरकंडीशंड सिनेमा हाल होते हैं। हर बच्चा, बूढ़ा, जवान सिनेमा में रुचि रखता है। आज जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं, जहां चलचित्रों का प्रभाव न पड़ा हो। रहनसहन, खान-पान, वेश-भूषा, साज-सज्जा, सब कुछ सिनेमा से प्रभावित हैं।

रेडियो से प्रसारित हो रहे अन्य कार्यक्रमों को शायद ही युवक पसन्द करते हों। वे विविध भारती या कोई और ऐसा स्टेशन ढूंढते हैं, जहां से फिल्म संगीत और फिल्मी कहानी का प्रसारण हो रहा हो। फिल्मी गानों की लोकप्रियता को देख कर मन्दिरों और जागरणों में उन्हीं की तर्ज पर लिखे गये धार्मिक गीत या भेटें गाई जाती हैं। पुराने समय में सामाजिक तथा पारिवारिक उत्सवों पर लोक गीत गाने का रिवाज था। सिनेमा के प्रभाव ने इस रिवाज को भी मिटा दिया है। अब मुंडन हो या सगाई, यज्ञोपवीत हो या विवाह, वहां फिल्मी गानों के रिकार्ड ही सुनाई देते हैं। सामाजिक सभा या राजनीतिक जलसा आरम्भ करने से पूर्व भीड़ इकट्ठी करने के लिए फिल्मी गाने बजाये जाते हैं। जनता की संगीत सम्बन्धी रुचि को सिनेमा ने प्रभावित किया है।

फिल्म में किसी अभिनेता या अभिनेत्री ने यदि कोई नए डिजाइन का कपड़ा पहन लिया तो रातों-रात वह फैशन चल पड़ता है। मिलें धड़ाधड़ वैसा कपड़ा बनाने लगती हैं और दर्जी भी नये कपड़े सीने में लग जाते हैं। किसी अभिनेता ने बाल बढ़ा लिए, दाढ़ी-मूंछ रख ली तो सभी युवक उसके पीछे विश्वास पात्र चेलों की तरह चल पड़ते हैं। किसी फिल्म सुन्दरी ने माथे पर लट डाल ली, एक ओर बाल कुछ कटवा लिए या बाल छोटे करवा लिए या खुले छोड़ लिए तो नगरों की किशोरियां कुछ दिनों में उसी रंग ढंग को अपनाए दिखाई देंगी। कहने का भाव यह है कि रहन-सहन और वेश-भूषा पर सिनेमा का प्रभाव पड़ता है।

आजकल प्राय: प्रेम की भावुकतापूर्ण कहानियों पर फिल्में बनती हैं और हमारे युवक-युवतियों के मन पर उनकी गहरी छाप पड़ती है। वे पारिवारिक जीवन की जगह वैसा ही अनिश्चित और निठल्ला जीवन चाहते हैं। फिल्मों के संवाद उनके लिए शास्त्रों के वाक्य बन जाते हैं। आजकल बनने वाली फिल्मों में तस्कर व्यापार, हिंसक और नग्नता का प्रदर्शन होता है। अनेक प्रकार के अपराध दिखाए जाते हैं। इन सब बुराइयों का युवा मन पर प्रभाव पड़ता है। ऐसी खबरें आई हैं जहां अपराधियों ने स्वयं स्वीकार किया है उन्होंने अमुक फिल्म से सीख कर यह अपराध किया था। इसका अभिप्राय यह नहीं कि सिनेमा बुरा है और बुरा प्रभाव ही डालता है। वस्तुत: दृश्य होने के कारण चित्रों और शब्दों का मिला जुला प्रभाव हर बात को मन मस्तिष्क तक पहुंचा देता है। अच्छी फिल्में अच्छे आदर्शों की शिक्षा भी दे सकती हैं।

सिनेमा के इस प्रभाव तथा वर्तमान दशा को देखते हुए अब भारतीय सैंसर बोर्ड ने कुछ कठोर नियम बनाए हैं। नग्नता, मद्यपान, निरर्थक आलिंगन, चुम्बन, क्रूरतापूर्ण हत्या तथा अन्य अनेक अपराधों आदि को फिल्मों में दिखाना वर्जित कर दिया गया है। हां, यदि कहानी की आवश्यकता के अनुसार ऐसे प्रसंग जरूरी हों तो उन्हें शिष्टता और संयम से दिखाया जाना चाहिए।

सिनेमा जगत के लोगों को व्यवसाय के साथ-साथ जनता और कला का भी ध्यान रखना चाहिए। फिल्म को हिट बनाने के लिए कई तरह के टोटकों का उपयोग किया जाता है जो कुरुचि को बढ़ाते हैं। लेखकों और निर्देशकों को इस सम्बन्ध में सचेत रहना चाहिए। समाजवादी देशों में सिनेमा द्वारा जनता को शिक्षित बनाने का काम लिया गया है, वही ध्येय हमारे सामने भी होना चाहिए। उस अवस्था में सिनेमा समाज पर स्वस्थ प्रभाव डालेगा और हितकारी सिद्ध होगा।

कई फिल्में अच्छी होते हुए भी सफल नहीं होतीं। लेकिन चरित्र प्रधान फिल्में समाज को नई दिशा देती हैं। भारत सरकार को चाहिए कि अच्छी फिल्में बनाने वालों को पुरस्कार दे और आर्थिक सहायता भी दे। प्रयत्न यही करना चाहिए कि बेकार, उद्देश्यहीन फिल्मों को प्रोत्साहन न दिया जाए। शिक्षित व्यक्तियों को तथा अच्छे नेताओं को चाहिए कि वे अच्छी फिल्मों को प्रोत्साहन दें। बुरी फिल्मों की कटु आलोचना करना और अच्छी फिल्मों की अच्छी आलोचना करना, यह कार्य पत्रकारों का है।

चीन और पाकिस्तान के आक्रमण के पश्चात् फिल्मों का उत्तरदायित्व और भी बढ़ गया है। अब उचित यही है कि ऐसी फिल्में बनें जो समाज का चरित्र-निर्माण करें, गृहस्थ धर्म की शिक्षा दें और भारतीय संस्कृति के अनुसार आदर्श युक्त हों। स्वतन्त्र भारत में जहां एक ओर लोगों का उत्तरदायित्व है, वहां निर्माताओं का भी उत्तरदायित्व है। उनका कर्तव्य है कि वे केवल व्यावसायिक दृष्टि को मद्दे नजर रख कर ही फिल्मों का निर्माण न करें बल्कि राष्ट्रीय चरित्र और देश प्रेम, मानवता एवं समाज सेवा, पर आधारित फिल्मों का भी निर्माण करें।

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