Essay on Dr BR Ambedkar in Hindi भीमराव अम्बेडकर पर निबंध
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Essay on Dr BR Amb
Essay on Dr Bhim Rao Ambedkar in Hindi 1500 Words
भूमिका
स्वर्ण-भस्म स्वर्ण की अपेक्षा मूल्यवती होती है क्योंकि वह अग्नि पुंज में तपकर अशुद्धियों से रहित हो जाती है। अपने जीवन-संघर्षों में तपकर मानव भी तेजोमय हो जाता है। मानव जीवन की महत्ता केवल आत्मोन्नति में ही नहीं है, अपितु वह एक ओर स्वयं उन्नति के पथ पर अग्रसित होता है तो दूसरी ओर दूसरों के हित के लिए, दलितों और पीड़ितों के उद्धार के लिए भी दुःख झेलता है, विपत्तियों का, कष्टों का सामना करता है। वह मानवता को गरिमा-मण्डित करता है। ऐसे व्यक्तित्व इतिहास-पुरुष बनते हैं। भारत की धरती पर ऐसे अनेक संत-महात्मा हुए हैं जिन्होंने संन्यासी का रूप धारण न किया हो लेकिन उनके कार्य संन्यासियों की भान्ति ही मानव कल्याण के लिए होते हैं। डॉ. भीमराव अम्बेदकर भी ऐसे ही महामानव थे।
जीवन परिचय
महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिला के गांव माहू छावनी में 14 अप्रैल सन् 1873 ई. को रामजी मौलाजी सकपाल की पत्नी भीमाबाई ने एक शिशु को जन्म दिया। जिसे बचपन में नाम दिया गया भीम और जाति के साथ शिशु कहलाया ‘भीम सकपाल’ । रामजी मौला जी सकपाल तत्कालीन अंग्रेज़ी फौज में सूबेदार मेज़र के पद पर थे। जाति से महार कहलाते थे जिसे महाराष्ट्र में अछूत माना जाता था। घर में भीम का लालन-पालन लाड़-प्यार से हुआ और धार्मिक वातावरण का प्रभाव भी बालक पर पड़ा। लेकिन छह वर्ष के बालक को माँ की मृत्यु का आघात सहन करना पड़ा।
प्रतिभावान भीम ने आरम्भिक शिक्षा पूरी करने के बाद 1907 में बम्बई के स्कूल एलिफिन्सटन से हाई स्कूल की शिक्षा अच्छे अंकों में उत्तीर्ण करने के पश्चात् बी. ए. की डिग्री भी प्राप्त की। बड़ौदा के राजा से सहायता प्राप्त होने पर उन्होंने अमेरिका के लिविंग्स्टोन हॅल से 1915 ई. में एम. ए की उपाधि प्राप्त की।
सन् 1916 में इन्होने लन्दन में लन्दन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स एण्ड पॉलिटिक्स में प्रवेश लिया और शोध कार्य आरम्भ किया। लेकिन स्कॉलरशिप की अवधि पूर्ण हो जाने पर शोध-कार्य अधूरा छोड़कर इन्हें भारत लौटना पड़ा। भारत आकर कुछ धन जुटाने की व्यवस्था करके पुन: लन्दन गए और शोध का कार्य पूरा कर पी. एच. डी. और ‘बार एट लॉ’ की उपाधियां प्राप्त कर 1923 ई. में भारत लौटे। सन् 1935 में वे लॉ कालेज के प्रिंसीपल नियुक्त हुए।
जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की तब ही उनकी शादी हो गयी थी लेकिन सन् 1935 में इनकी पत्नी का निधन हो गया और इसके बाद अप्रैल 1948 में उन्होंने डॉ. (मिस) सविता कबीर से पुनः विवाह किया। बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षण होने के कारण इन्होंने अपनी पत्नी के साथ 14 अक्तूबर 1956 ई. को बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण की।
कोलम्बो विश्वविद्यालय ने डॉ. भीमराव अम्बेदकर को एल. एल. डी. और उस्मानिया विश्वविद्यालय ने डी. लिट् की मानद उपाधियों से सम्मानित किया। बुद्ध के जीवन एवं धर्म पर उन्होंने ‘बुद्ध एवं उनका धर्म’ नामक ग्रंथ की रचना की जिसका लेखन कार्य 5 दिसम्बर 1956 ई. को पूरा हुआ और 6 दिसम्बर 1956 को वे अपनी सांसारिक यात्रा पूरी कर स्वर्ग-सिधार गए।
मानवाधिकारों की रक्षा की ओर
जाति-बन्धनों और अछूतों की समस्या से वे बचपन से ही परिचित हो गए थे। इसके कटु अनुभव उनकी आत्मा को वेदना से भर देते थे। जब वे उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका गए और वहां जाति-प्रथा के बन्धन से मुक्त होकर शिक्षा प्राप्त करने लगे तब से ही उन्हें अपनी प्रतिभा को मुखरित करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इस वातावरण में उन्होंने अनेक विषयों का अध्ययन तो किया ही मानवाधिकारों की रक्षा को भी अनिवार्य समझा। इसी दिशा में उन्होंने ‘कास्टस इन इण्डिया’ निबंध लिखा था जिसकी बहुत प्रशंसा हुई थी। जब विपरीत परिस्थितियों के कारण वे अपना शोध-प्रबंध पूरा न कर पाए और लंदन से भारत लौट आए तो उन्होंने अछूतों की दशा और व्यथा को अभिव्यक्ति देने के लिए ‘मूकनायक’ नामक पत्र निकाला। अपने प्रयासों को उन्होंने इस पत्र के माध्यम से समाज तक पहुंचाने का प्रयास किया।
जब भारत में उन्होंने वकालत आरम्भ की तो पुनः जाति की बाधा से वे पीड़ित हो गए। फलतः सन् 1924 ई. में उन्होंने ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की स्थापना की। इस सभा के माध्यम से उन्होंने दलितों पीड़ितों के अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष आरम्भ किया और सन् 1927 ई. में मराठी में ‘बहिष्कृत भारत’ पत्रिका निकालनी आरम्भ की।
वे नहीं चाहते थे कि अछूत और दलित वर्ग दूसरों की कृपा और दया पर जीवन बिताएँ। उनमें आत्मविश्वास पैदा हो जिससे वे जीवन में अपने पैरों पर खड़े हो सकें।
इस दिशा में उन्होंने संघर्ष का मार्ग भी अपनाया अत: नासिक में कालाराम मंदिर में अछूतों के प्रवेश के लिए सत्याग्रह किया। इसी प्रकार महाड़ में भी चौबदार तालाब सत्याग्रह किया। कोलावा के सार्वजनिक टैंक से अछूतों को भी पानी पिलाने का अधिकार दिलवाना इस संघर्ष के ज्वलंत और सफल प्रमाण है।
सन् 1930 में इंग्लैंड के सम्राट की अध्यक्षता में होने वाली कॉकैंस में उन्हें निडर होकर सरकार की उस नीति का पर्दाफाश किया जिससे दलितों के प्रति उपेक्षा की भावना रखी जाती थी और उन्हें मानवीय अधिकारों से वंचित रखा जाता था। इसी प्रकार सन् 1930 ई. और सन् 1931 ई. में होने वाली प्रथम और द्वितीय गोलमेज़ परिषद में उन्होंने भाग लिया तथा पिछड़ी जातियों के अधिकारों के लिए अनेक प्रस्ताव पारित करवाए। 25 सितम्बर सन् 1932 ई. में जो ‘पूना पैक्ट” पास करवाया गया उसकी सफलता के पीछे डॉ. अम्बेदकर राव की प्रतिभा, तर्क शक्ति एवं भावना और मानवता की सेवा का महत् लक्ष्य था। यह एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी।
राजनीतिक धरातल पर उन्होंने ‘स्वतंत्र लेबर पार्टी’ की स्थापना की और इस के अध्यक्ष पद के माध्यम से पुनः कार्य किए। उनकी प्रबल धारणा और दृढ़ विश्वास था कि जब तक दलित वर्ग, अछूत जाति के लोग शिक्षित नहीं होंगे तब तक इनका मानसिक विकास संभव नही होगा और वे स्वयं संघर्ष करने तथा उन्नति करने में असफल रहेंगे। अतः इसी भावना से प्रेरित होकर 29 जून, सन् 1946 ई. में उन्होंने सिद्धार्थ महाविद्यालय की स्थापना की। उनकी दृढ़ निश्चय था कि – “मनुष्य स्वयं अपना निर्माता है। सभी को स्वयं अपनी कौम का भाग्य बनाना होगा”। राजनीतिक सुधार की अपेक्षा डॉ. अम्बेदकर समाज सुधार को अधिक सृजनात्मक और प्रभावशाली मानते थे जिसके माध्यम से व्यक्ति और समाज दोनों ही उन्नति की ओर बढ़ सकते हैं।
संविधान निर्माण
भारत के नीले आकाश में 15 अगस्त 1947 को आज़ादी का तिरंगा लहरा उठा और इसके साथ ही आरम्भ हुई थी भारत की प्रजातंत्र पद्धति। उस समय डॉ. भीमराव अम्बेदकर की प्रतिभा की चर्चा थी अतः भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने डॉ. अम्बेदकर को अगस्त 1947 में ही प्रथम विधि मंत्री के रूप में मंत्रि मण्डल में सम्मिलित किया। इसके पश्चात् स्वतंत्र देश के लिए संविधान निर्माण की आवश्यकता थी। अत: इसके लिए एक विशेष समिति का गठन किया गया। 29 अगस्त 1947 को भारतीय संविधान का मसौदा बनाने वाली समिति का गठन हुआ और इसके अध्यक्ष के रूप में नियुक्त हुए डॉ. भीमराव अम्बेदकर। संविधान के लिए दार्शनिक आधार प्रदान करने के लिए नेहरू ने 13 दिसम्बर सन् 1946 को संविधान निर्मात्री सभा में ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ प्रस्तुत किया था। इसमें कहा गया था – यह संविधान सभा अपने इस दृढ़ और गम्भीर संकल्प की घोषणा करती है कि वह भारत को एक स्वतंत्र प्रभुता सम्पन्न गणराज्य घोषित करेगी और उसके भावी शासन के लिए एक संविधान की रचना करेगी। 26 नवम्बर 1949 को इस संविधान को अंगीकृत गया था। 26 जनवरी 1950 को यह संविधान भारत में लागू किया गया था। यह विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान है तथा इसकी समता विश्व के अन्य देशों के संविधान नहीं कर सकते हैं। इस संविधान के निर्माण में डॉ. अम्बेदकर ने विशेष भूमिका निभाई और अनथक प्रयास किया। इस सम्बन्ध में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद तत्कालीन राष्ट्रपति ने कहा था – ‘डॉ. अम्बेदकर को मसविदा समिति में सम्मिलित करके और उसके बाद उनको अध्यक्ष चुनकर हमने जो कार्य किया उससे बढ़कर हम दूसरा अच्छा कार्य नहीं कर सकते।’
इस संविधान में मानव के मौलिक अधिकारों की बिना किसी भेदभाव के रक्षा की गई है। यह डॉ. अम्बेदकर की प्रतिभा और भावना तथा भारत की संस्कृति के अनुरूप है।
उपसंहार
डॉ. अम्बेदकर सच्चे हृदय से मानव के विकास के पक्षपाती थे लेकिन वे वर्गहीन समाज की रचना के प्रबल पक्षधर थे। वे अछूतों और दलितों को केवल उनके मौलिक अधिकार दिलाने तक ही सीमित नहीं थे अपित उनमें आत्मविश्वास और मानसिक विकास भी चाहते थे। उन्हें वे कृपा पात्र नहीं बनाना चाहते थे। अछूत होने का दर्द सहन कर वे इस जहर को स्वयं पीकर समाप्त करना चाहते थे। वे दलितों और शोषितों के मसीहा थे उनके नायक और मित्र थे हम दर्द थे। संविधान के माध्यम से उन्होंने उनके मौलिक अधिकारों की रक्षा की। उन्हें उनकी महान् तपस्या के अनुरूप भारत सरकार ने भारत रत्न की उपाधि से विभूषित किया था।
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