Essay on Earthquake in Hindi भूकंप पर निबंध
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Essay on Earthquake in Hindi
Essay on Earthquake in Hindi
प्रकृति का स्वभाव बड़ा विचित्र है – कभी कल्याणकारी तो कभी विनाशकारी। प्रकृति कब, कैसे और क्या रूप धारण कर लेगी, इसे समझ पाना अभी तक मनुष्य के बस की बात नहीं है। ज्ञान-विज्ञान की उन्नति के कारण यह कहा जाता है कि आज मनुष्य ने प्रकृति के सभी रहस्यों को जान लिया है और सुलझा लिया है, किन्तु यह बात सच नहीं जान पड़ती। मौसम-विज्ञानी घोषणा करते हैं कि अगले चौबीस घंटों में तेज वर्षा होगी या कड़ाके की ठंड पड़ेगी, किन्तु होता कुछ और ही है। वर्षा और ठंड के स्थान पर चिलचिलाती धूप खिल उठती है। विज्ञान और वैज्ञानिकों की जानकारियों और सफलताओं का सारा दंभ धरा का धरा रह जाता है। सच तो यह है कि प्रकृति अनंत है और उसका स्वभाव अबूझ। बाढ़, सूखा, अकाल, भूकंप प्रकृति के विनाशकारी रूप के ही पर्याय हैं जो असमय मानव जीवन में हाहाकार मचा देते है।
प्राकृतिक आपदाओं में भूकम्प ही सबसे अधिक विनाशकारी होता है। सचमुच भूकंप विनाश का दूसरा नाम है। इसके कारण जहां लाखों मकान धराशायी हो जाते हैं, वहीं बड़ी संख्या में लोग असमय ही मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं। कितने अपाहिज और लूले-लँगड़े होकर जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं। कभी-कभी तो पूरा शहर ही धरती के गर्भ में समा जाता है और नदियाँ अपना मार्ग परिवर्तित कर लेती हैं। भूतल पर नए भू-आकार जन्म ले लेते हैं, जैसे कि द्वीप, झील, पठार आदि। कभी-कभी जलाच्छादित भूमि समुद्र से बाहर निकल आती है। भूतल पर आए परिवर्तन मनुष्य के जीवन को भी प्रभावित करते हैं।
भूकंप शब्द का अर्थ होता है – पृथ्वी का हिलना। पृथ्वी के गर्भ में किसी प्रकार की हलचल के कारण जब धरती का कोई भाग हिलने लगता है, कंपित होने लगता है तो उसे भूकंप की संज्ञा दी जाती है। अधिकतर कंपन हल्के होते हैं और उनका पता नहीं चलता, न ही उनका हमारे जीवन पर कोई बुरा प्रभाव पड़ता है। मुख्य रूप से हम पृथ्वी के उन झटकों को ही भूकंप कहते हैं, जिनका हम अनुभव करते हैं। भूकंप के मुख्य कारणों में पृथ्वी के भीतर की चट्टानों का हिलना, ज्वालामुखी का फटना आदि हैं। इनके अतिरिक्त भू-स्खलन, बम फटने तथा भारी वाहनों या रेलगाड़ियों की तीव्र गति से भी कंपन पैदा होते हैं।
देश के इतिहास में सबसे भयानक भूकंप 11 अक्तूबर 1737 में बंगाल में आया था जिसमें लगभग तीन लाख लोग काल के गाल में समा गए थे। महाराष्ट्र के लातूर और उस्मानाबाद जिलों में आए विनाशकारी भूकंप ने करीब 40 गाँवों में भयानक तबाही मचाई। इसी कड़ी में 26 जनवरी, 2001 का दिन भारतीय गणतंत्र में काला दिन बन गया। उस दिन सुबह जब पूरा राष्ट्र गणतंत्र दिवस मना रहा था, प्रकृति के प्रलयंकारी तांडव ने भूकम्प का रूप लेकर गुजरात को धर दबोचा। देखते ही देखते भुज, अंजार और भचाऊ क्षेत्र कब्रिस्तान में बदल गए। गुजरात का वैभव कुछ ही क्षणों में खंडहरों में परिवर्तित हो गया। बहुमंजिली इमारतें देखते ही देखते मलबे के ढेर में बदल गईं। चारों ओर चीख-पुकार, बदहवासी और लाचारी का आलम था। अचानक हुई इस विनाशलीला ने लोगों के कंठ से वाणी और आँख से आंसू ही छीन लिए।
रैक्टर पैमाने पर गुजरात के इस भूकंप की तीव्रता 6.9 थी। इसका केन्द्र भुज से 20 कि-मी उत्तर-पूर्व में था। इस त्रासदी में हजारों की संख्या में लोग काल कवलित हो गए और कई हजार घायल हो गए, और लगभग एक लाख लोग बेघर हो गए। सारा देश इस त्रासदी में गुजरात के साथ था। सर्वप्रथम क्षेत्रीय लोग और स्वयं सेवी संस्थाओं ने राहत और बचाव कार्य आरम्भ किया। मीडिया की अहम भूमिका ने त्रासदी की गंभीरता का सही-सही प्रसारण कर भारत सरकार को झकझोरा और भारत सहित समूचे विश्व को सहायता के लिए उद्वेलित कर दिया। सारा जनमानस सहायता के लिए उमड़ पड़ा। भारत के कोने-कोने तथा विश्व के अनेक देशों से सहायता सामग्री का अंबार लग गया। सहायता के लिए धन-राशि के साथ-साथ अन्य आवश्यक सामग्री भी पहुंचने लगी। देश की तीनों सेनाओं के सैनिक तथा कई समाज सेवी संस्थाओं के कार्यकर्ता भी सहायता-कार्य में जुट गए। इस त्रासदी में करोड़ों रुपए की निजी तथा सार्वजनिक सम्पत्ति के नुकसान होने का अनुमान आंका गया।
क्या मनुष्य सदैव इस विनाशलीला का मूकदर्शक बना रहेगा, इस त्रासदी को भोगता रहेगा ? यद्यपि विज्ञान ने भूकंप की पूर्व सूचना देने के सम्बन्ध में उल्लेखनीय प्रगति की है, उपग्रह भी इस दिशा में काफ़ी सहायक सिद्ध हो रहे हैं। तथापि इन भूकंपों को कैसे रोका जा सकता है इस दिशा में अभी तक कोई निर्णायक सफलता प्राप्त नहीं हुई है। आज तो स्थिति यह है कि विज्ञान जब तक कोई और नया चमत्कार न दिखला दे, तब तक मनुष्य को भूकंप की त्रासदी को किसी न किसी रूप में भोगना ही पड़ेगा। आशा है कि निकट भविष्य में विज्ञान कोई ऐसा चमत्कार दिखाएगा, जिससे मानव जाति इस त्रासदी से मुक्त हो सकेगी।
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महाराष्ट्र का विनाशकारी भूकंप
30 सितम्बर, 1993 को रात करीब तीन बजकर छप्पन मिनट पर महाराष्ट्र की भूमि की कोख में भयंकर हलचल शुरू हुई। भूकंप का एक अति तीव्र झटका आया। धरती कांपने लगी। प्रकृति की विनाश लीला आरंभ हो चुकी थी। आप ने किताबों अखबारों या अन्य माध्यमों से इस भयंकर भूकंप के बारे में अवश्य सुना होगा। आपके माता-पिता को तत्कालीन राष्ट्रपति डा। शंकरदयाल शर्मा की वह भावुकता से सराबोर आह्वान अवश्य याद होगा, जिसे उन्होंने जनता के नाम संप्रेषित किया था। उन्होंने नम आँखों से सारे देश के नागरिकों से इस राष्ट्रीय आपदा को सहन करने में सहयोग देने की नैतिक अपील की थी और उसका व्यापक प्रभाव भी देखने को मिला था। लोगों ने भूकपपीड़ितों की तन-मन-धन से सहयता की थी। डॉक्टरों, सेवादारों और बचाव कर्मियों की टोलियां तुरन्त ही महाराष्ट्र के लिए पूरे देश भर से निकलने लगी थीं। सरकारी तौर पर भी इस आपदा से मुक्ति का प्रयास व्यापक पैमाने पर किया जा रहा था।
रात्रि के समय आने वाला यह भूकंप अति विनाशकारी सिद्ध हुआ। उसने निद्रा में डूबे हुए लोगों को सदा-सदा के लिए चिरनिद्रा में सुला दिया। लोग जिस स्थान पर सो रहे थे, इस विनाशकारी भूकंप ने उन्हें उनके स्थान पर दफन कर दिया। जो कभी उनका शयन कक्ष हुआ करता था, वही क्षणभर में उनकी कब्र बन गया। इस भूकंप का प्रभाव अत्यंत व्यापक था। देश-विदेश तक में इस की खबरें आयी और इसे सदी का भयानक भूकंप बताया गया। रेक्टर पैमाने पर इसकी तीव्रता 6.4 बताई गयी। जिस गहन रात्रि में यह भूकंप आया था वह रात्रि एक प्रकार से काल की क्रूरता का एक खेल सी बन गयी थी। इस भूकंप का पहला झटका 3.56 मिनट तक महसूस किया गया और दूसरा 4.42 मिनट तक इस विनाशलीला की गति यहीं पर नहीं रुकी। कुछ समय बाद एक तीसरा झटका भी आया, जो करीब 6.40 मिनट तक महसूस किया गया।
एक पाश्चात्य भू-वैज्ञानिक का स्पष्ट मानना था कि इस तीव्रता एवं क्षमता वाला भूकंप एक वृहद क्षेत्र को अतिशीघ्र ध्वस्त कर देने की प्रबल क्षमता रखता है। हुआ भी वही, महाराष्ट्र का एक बड़ा क्षेत्र इसकी चपेट में आया और बुरी तरह से ध्वस्त हो गया। महाराष्ट्र के लातूर से लेकर कर्नाटक के गुलबर्गा तक इसका प्रभाव देखा गया। किन्तु इस भूकंप ने जिस क्षेत्र को भयावह रूप से बर्बाद किया, वह था महाराष्ट्र के लातूर और उस्मानाबाद जिले के उभरेगा और किल्लारी तालुका नामक कस्बे। इन क्षेत्रों में इस रात्रि को मृत्यु का नंगा नाच होता रहा। मानो पृथ्वी अपना स्वाभाविक धर्म छोड़कर मनुष्य का शत्रु हो गयी हो और उसे अपना ग्रास बनाने की भावना से आप्लावित हो रही हो। मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी, वृक्ष आदि सभी इस विनाशलीला का शिकार हुए। तड़पते हुए मानव, असहाय होकर मृत्यु को अपनी आंखों के सामने खड़ा देख रहे थे। मानों समस्त प्रकृति ही नहीं अपितु ब्रम्हा भी अपनी मानव-संतान से मोह तोड़ चुके हों। बारिस के कहर ने इस विनाशलीला को और भी भयानक बना दिया। तेज बारिस शुरू हो गयी और इसके कारण बचाव कार्य शिथिल होता रहा। जिस शीघ्रता और अनुपात में भूकंप पीड़ितों को सहायता चाहिए थी वह उन्हें सरकार चाहकर भी नहीं दे सकी। किन्तु यह स्थिति बहुत देर तक बनी नहीं रह सकी। भारतीयों की यही विशेषता है कि समय पड़ने पर वह फिर किसी भी प्रकार की प्रतिकूलता को आड़े नहीं आने देते, अपितु ऐसी प्रतिकूलताएं उन्हें अपने कार्य के प्रति और भी जुझारू बना देती हैं।
सरकार ने भी अपने मानवीय सरोकारों को इस मौकेपर भूलाया नहीं। जिस भांति भी संभव हुआ, प्रभावित क्षेत्र को आवश्यक सहायता प्रदान की जाती रही। सहायता राशि के रूप में केन्द्र सरकार ने करोड़ों रुपए प्रदान किए। राज्य सरकारों ने भी अपने निवासियों के दुःख दर्द को पूरी तरह समझा और उनके पुनर्वास के लिए हर संभव सरकारी सहायता प्रदान की। किन्तु जैसे कहा भी जाता है कि भाग्य में जो लिखा होता है वही होता है, करीब 2 लाख लोग इससे प्रभावित हुए, जिसमें मरने वालों की संख्या हजारों में थी।
सरकार को इस प्रकार की आपदाओं से देशवासियों को बचाने के लिए एहतियाती कदम उठाने चाहिए और नयी तकनीक ग्रहण करनी चाहिए ताकि ऐसे प्रकोप के प्रभाव को सीमित किया जा सके।
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सन् 1991 का विनाशकारी भूकम्प
20 अक्टूबर सन् 1991 की वह गहरी रात्रि हम भारतीयों के लिए सचमुच एक प्रलयकारी रात्रि सिद्ध हुई। उस दिन करीब 45 सेकन्ड तक की समय अवधि का एक भकंप आया था जिसकी तीव्रता विशेषज्ञों ने रिएक्टर पैमाने के अनुसार 6।1 बतलायी। इसे करीब 330 किलो टन परमाणु विस्फोट के बराबर कहा जा सकता है। इस भूकंप की जो रिर्पोटिंग बी।बी।सी लंदन ने की थी, उसे देखकर ही हम इस भूकंप से प्रभावित क्षेत्र में हुए धन-बल और जन-बल के भयानक विनाश की सहज ही कल्पना कर सकते हैं। उसके अनुसार “भूकंप में मरने वालों की संख्या तीन हजार से उपर पहुँच चुकी है और लगभग दस हजार लोग घायल हुए हैं।” इस भयंकर भूकंप से 175 करोड़ रूपये की धनराशि का नुकसान हुआ।
भूकंप एक प्राकृतिक आपदा है और यह अन्य प्राकृतिक आपदाओं की तुलना में ज्यादा घातक और विनाशकारी प्राकृतिक आपदा होती है। इसका कारण यह भी है कि इसके कारण मानव-समाज कतिपय अन्य अपदाओं और समस्याओं से घिर जाता है। भौगोलिक-विशिष्टता भी इस भूकंप रूपी प्राकृतिक आपदा की मार को और ज्यादा मारक बना देती है। जैसे 1991 में आया यह भूकंप गढ़वाल और कुमाऊँ मण्डल को बना दिया। यह भू-क्षेत्र भौगोलिक रूप से एक पर्वतीय क्षेत्र है। इस भू-क्षेत्र में अनेक बड़े-बड़े पर्वतों के साथ साथ अनेक गहरी घाटियां भी विद्यमान हैं। साथ ही इनके मध्य में अपने पूरे वेग से प्रवाहित होने वाली अनेक गहरी नदियां भी अवस्थित हैं। यह सब मिलकर इस भू-क्षेत्र को सामान्य रूप से एक अत्यंत विषम स्थल का रूप दे देते हैं। सन् 1991 में जो विनाशकारी भूकंप इस क्षेत्र में आया, उसकी विनाशलीला को और अधिक बढ़ाने में इस भू-क्षेत्र की भौगोलिक-विशिष्टता ने भी अपना पूरा योग दिया।
सन् 1991 का यह विनाशकारी-भूकंप जिस समय आया था वह समय गहन रात्रि का समय था। सारे लोग दिन भर के परिश्रमपूर्ण कार्यों को सम्पन्न करके थकान मिटा रहे थे और अगले दिन के लिए पूर्णत: तैयार होने के लिए आरामदायक मीठी नींद ले रहे थे। कहा भी जाता है कि सोया हुआ आदमी मरे हुए आदमी के सादृश ही होता है। उसे अपने आस-पास के वातावरण का किंचित मात्र भी ज्ञान या बोध नहीं रहता। वह पूर्णत: एक गहरी नींद में डूबा होता है। 20 अकूबर का यह रात्रि भी इसी प्रकार की स्थिति में थी। इस भू-क्षेत्र का प्रत्येक मनुष्य गहरी नींद में डूबा हुआ था। और तभी दुर्भाग्य ने अपना प्रलयंकारी खेल खेलना आरम्भ कर दिया। हजारों की संख्या में लोग इस प्रलयंकारी भूकंप की चपेट में आ गये। वो जहां सो रहे थे वहीं दफन हो गये। उनके कठिन परिश्रम से बनाए गये मकान उन्हीं का मृत्यु का सामान बन गये। वो मकान उन्ही के उपर भरभरा कर आ गिरे और लोग अपने ही घरों के मलवे में दफन होने लगें।
इस भूकंप की तीव्रता अत्यधिक थी। इसके कारण वह समूचा पर्वतीय क्षेत्र व्यापक रूप से आक्रांत हो उठा और पर्वतों में स्खलन उत्पन्न हो गया। भू-स्खलन के कारण यह विनाशलीला और भी बढ़ गयी। पर्वत टूट-टूटकर नीचे बह रही नदियों में आ गिरे जिसके फलस्वरूप नदियों का बहाव भी बाधित हो गया और उसका पानी आस-पास के क्षेत्रों में भर गया। एकदम सी बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो गयी। इस प्रकार हम हर तरफ से देखें तो यही कहा जा सकता है कि गढ़वाल और कुमाऊँ मण्डल में आया यह भूकंप अनेक रूपों में दिखलायी पड़ा। यह अपने साथ अन्य अनेक दुश्कर आपदाएं लिए हुए आया था।
इस भूकंप का जो प्रभाव इस क्षेत्र के लोगों के जीवन पर पड़ा था वह अत्यंत व्यापक और विस्तृत था। इससे न केवल जन-हानि और धन हानि ही हुई थी अपितु वहाँ के विकास हेतु कियान्वित की गयी महत्वपूर्ण योजनाएं भी बाधित हो गयी थी। इन्हीं में से एक योजना थी ‘टिहरी बांध’ की महत्वाकांक्षी योजना। इस भूकंप ने इस महत्वपूर्ण योजना को लगभग बर्बाद ही कर दिया था। बाद में, इस योजना को पुन: गतिशील और सुचारू करने में सरकार को अतिरिक्त पर्याप्त धन का व्यय करना पड़ा।
भूकंप ने इस मार्ग के आवागमन के प्राय: हर मार्ग को बाधित कर दिया। अनेक पुलों का नाश हो गया। यह धर्म-भूमि माना जाने वाला क्षेत्र है। पूरे वर्ष इस क्षेत्र में विदेशी पर्यटकों का तांता लगा रहता है। और जिस समय यह भूकंप आया उस समय भी इस क्षेत्र में अनेक विदेशी पर्यटक विद्यमान थे। उनके वहाँ फँस जाने से समस्या और भी ज्यादा गंभीर हो गयी थी।
उस समय कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उन्होंने इस आपदा से पूर्णत: निपटने के लिए अनेक महत्वपूर्ण कदम उठाए। नाना भांति की सहायता वहाँ तत्काल भेजी गयी। केन्द्र सरकार ने भी समस्या की विकरालता को देखते हुए पानी की तरह पैसा बहाया। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि यह एक ऐसी आपदा थी जिसने भारत को हिला कर रख दिया था।
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