Essay on Guru Tegh Bahadur in Hindi गुरु तेग बहादुर सिंह पर निबंध
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Essay on Guru Tegh Bahadur in Hindi – हिन्द की चादर – गुरु तेग बहादुर सिंह पर निबंध
Essay on Guru Tegh Bahadur in Hindi 1300 Words
भूमिका
भारतीय संस्कृति अपनी अनेक विशेषताओं के कारण विश्व सभ्यता और संस्कृति के इतिहास में शीर्षस्थ है। इस संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता पर दु:ख कातरता है। अर्थात् दूसरों के दुःख में समभागी होना। वस्तुत: हमारी संस्कृति का मूलाधार ही यही भावना है। अपने सुख और दुःखों की लाभ और हानि की चिंता किए बिना दूसरों के दु:ख और दर्द को दूर करने के लिए हमारे इतिहास पुरुषों ने अपनी जीवन को समर्पित किया। बद्ध और गांधी का अहिंसावाद, नेहरू का पंचशील सम्पूर्ण विश्व को ही इसी दृष्टि से देखता है। हमारे इतिहास-पुरुषों ने ‘ग्रहण’ के स्थान पर ‘त्याग’ का मार्ग अपनाया। नानक हो या गुरु गोबिन्द सिंह, भगत सिंह हो अथवा राजगुरू इनका जीवन स्वयं के लिए नहीं अपितु दूसरों के लिए ही था।
मुसलमानों के अत्याचारों से पीड़ित भारवासियों को मुक्ति दिलाने के लिए सिख गुरुओं का बलिदान अविस्मरणीय है तथा गुरु तेग बहादुर का बलिदान तो प्रातः स्मरणीय है। उनके अभूतपूर्व पावन बलिदान से प्रेरणा पाकर ही उनके वंश की दो पीढ़ियों ने भी पुनः अपने जीवन को इसी बलिवेदी पर समर्पित कर दिया। गुरु तेग बहादुर का त्याग और बलिदान हमारे इतिहास का एक गौरवशाली और अमिट अध्याय है।
परिस्थितियां
भारत के वीर सपूत, सिखों ने नवें गुरु, तपस्या की प्रतिमा, भक्ति की प्रतिमूर्ति, तेज़ से युक्त गुरु तेग बहादुर जी का आगमन जिस समय भारत में हुआ उस समय औरंगज़ेब का शासन था। औरंगज़ेब सभी को मुसलमान बनाना चाहता था। धर्म की दृष्टि से वह बहुत संकीर्ण और कट्टर विचारों का था। हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के लिए वह तरह-तरह के अत्याचार कर रहा था। लोग उसके अत्याचारों से आतंकित थे। हिन्दुओं में त्राहि-त्राहि थी। अपनी रक्षा कर पाना कठिन हो गया था। ऐसे समय में जाति को, देश को और धर्म को बचाने के लिए गुरु तेग बहादुर जी ने अपने प्राणों का बलिदान दिया। अत्याचार का जवाब अत्याचार से नहीं त्याग से दिया। इस तरह गुरु तेग बहादुर का आगमन भारत की विकट परिस्थितियों में हुआ।
जीवन
गुरु तेग बहादुर जी का जन्म सिखों के आठवें गुरु श्री हरगोबिन्द जी के घर अमृतसर में 1621 ई. में हुआ। गुरु हरगोबिन्द जी के पांच लड़के थे। गुरु तेग बहादुर जी सबसे छोटे थे। गुरु हरगोबिन्द जी का इनको गद्दी देने का कोई विचार न था। गुरु तेग बहादुर आध्यात्मिक रंग में ही रंगे हुए थे। उनका सामाजिक जीवन मौन था।
गुरु हरगोबिन्द जी ने इहलोकलीला समाप्त करने से पूर्व यह कहा था कि जिसे मेरी गद्दी पानी है वह बाबा बकाला में है। पर उन्होंने स्पष्ट कुछ नहीं कहा। गुरु हरगोबिन्द जी ने जब चोला छोड़ा तो सभी गुरु गद्दी पाने को लालायित हो उठे, पर बाबा बकाला में जा कर गुरु जी को ढूंढना सरल काम न था। मक्खन सिंह लवाणा एक व्यापारी था जिसने गुरु के समक्ष 500 मोहरें चढ़ाने की मन्नत की थी। अन्य बने हुए गुरुओं की तरह उसने जब श्री गुरु तेगबहादुर के सम्मुख दो मोहरें रखी तो गुरु जी ने तुरन्त कहा कि तुमने तो गुरु को 500 मोहरें चढ़ाने की मन्नत की थी। यह सुनते ही लवाणा प्रसन्नता से उछल पड़ा और छत पर चढ़कर उसने घोषणा कर दी–‘गुरु लाधो रे- गुरु लाधो रे।’ इस प्रकार वे सिख धर्म के नौवे गुरु बन गए।
गुरु तेग बहादुर जी ने गद्दी पर बैठते ही सिखों का संगठन किया, आनन्दपुर नाम के स्थान बसाया और स्थान-स्थान पर घूम कर अपने विचारों का प्रचार किया। गुरु जी बंगाल बिहार, आसाम आदि अनेक स्थानों पर गए। पटना में गुरु तेग बहादुर जी के घर गुरु गोबिन सिंह जी का जन्म हुआ। आप के आशीर्वाद से आसाम के राजा के घर लड़का पैदा हुआ। दिल्ली के शासक का प्रतिनिधि राजा राम सिंह आसाम के राजा के साथ टकराना चाहाता था, पर गुरु जी ने यह झगड़ा शान्त किया। अपने विचारों का उपदेश देते हुए सिखों को संगठन करते हुए गुरु जी फिर पटना आ गए। पटना में उनके भक्तों ने एक बहुत बड़ गुरुद्वारा बनाया जो आज भी अपनी सुन्दरता में वैसे ही स्थित है। गुरु जी फिर आनन्दपुर आ गए।
औरंगज़ेब के अत्याचारों से दु:खी हो कर कुछ कश्मीरी ब्राह्मण गुरु जी की शरण आए। गुरु जी ने गम्भीर वाणी में कहा, अगर कोई देश का महान् पुरुष अपना बलिदान करे तब तुम्हारी रक्षा हो सकती है। गुरु जी का पुत्र गोबिन्द राय जो बाद में गोबिन्द सिंह जी के नाम से प्रसिद्ध हुआ, उस समय कुल नौ वर्ष का था और वह पास ही खेल रहा था। उसने कहा-“पिता जी ! आप से बढ़ कर महान् आत्मा किसकी हो सकती है ?” पुत्र की दृढ़ वाणी सुनकर गुरु जी की आंखे चमक उठीं। गुरु जी ने कश्मीरी ब्राह्मणों को कहा-“जाओ, औरंगज़ेब से कह दो. अगर गुरु तेग बहादुर इस्लाम धर्म स्वीकार कर ले तो हम मुसलमान हो जाएंगे।” कश्मीरी ब्राह्मण चले गए। गुरु जी भी जुलाई, 1675 में आनन्दपुर साहब से चल पड़े और अपना उपदेश देते हुए, अपने धर्म का प्रचार करते हुए दिल्ली गए। औरंगज़ेब ने गुरु जी को गिरफ्तार कर लिया। गुरु जी को यातनाएं दी गई, शान्ति से उन्हें मनाया गया। औरंगज़ेब ने अनेक हथकण्डे अपनाए पर गुरु जी तो बलि होने के लिए आये थे। आखिर 21 नवम्बर, 1675 को गुरु जी ने अपना बलिदान दे दिया। गुरु जी का जब सिर काटा गया तो उनके गले से एक कागज़ बन्धा हुआ था जिस पर लिखा हुआ था, “सिर दिया पर सिरड़ न दिया।” भाई जैतों ने गुरु जी का शीश उठाया और आनन्दपुर की ओर भागा। भाई ऊदा एक लवाणे व्यापारी की सहायता से गुरु जी के धड़ को उठाकर रकाबगंज ले आए। यहाँ पर उन्होंने गुरु जी के धड़ का संस्कार कर दिया। इस स्थान पर अब गुरुद्वारा रकाबगंज बना हुआ है। भाई ऊदा इसके बाद कीरतपुर में भाई जैतों के पास गया और दोनों गुरु जी का सिर लेकर गुरु गोबिन्द सिंह जी के पास आनन्दपुर साहिब पहुंचे। यहाँ गुरु जी के सिर को अन्तिम संस्कार कर दिया गया। यहाँ पर भी इसी पुण्य-स्मृति में गुरुद्वारा शीशगंज बना हुआ है।
सिद्धान्त
गुरु तेग बहादुर जी ने गुरु नानक जी के सिद्धान्तों की व्याख्या की। इसके अतिरिक्त गुरु जी के सिद्धान्त थे : नाम, दान और स्नान। गुरु जी का विचार था – आठ पहर चौसठ घड़ी, उठते, बैठते, सोते जागते हमेशा परमात्मा का नाम लेना चाहिए। नाम लेने से जिह्वा पवित्र होती है।
“साधो गोबिन्द के गुन गावउ।
मानस जनमु अमोलक पाओ बिरथा काहि गावउ॥”
“तजि अभिमानु मोह माइआ पुनि भजन राम चित्त गावउ।
नानक कहति मुकति पंथु इङ गुरु मुखि होई तुम गावउ॥”
जैसे दहलीज पर रखा हुआ दीपक अन्दर और बाहर दोनों तरफ रोशनी करता है, उसी तरह से परमात्मा का नाम लेने वाला व्यक्ति अन्दर और बाहर दोनों तरफ से प्रकाशित होता है, पर नाम सच्चे मन से लेना चाहिए, दिखावे से नहीं। गुरु जी का दूसरा सिद्धान्त था “दान”। उनका विचार था, जितना भी हो यथाशक्ति दान करो। तीसरा सिद्धान्त था स्नान का। गुरु जी का विचार था कि स्नान से शरीर पवित्र होता है, दान से हाथ और मन पवित्र होते है और नाम जपने से वाणी पवित्र होती हैं और मन पवित्र होता है। इस तरह गुरु जी ने सिद्धान्तों का दृढ़ता से प्रचार किया और स्थान-स्थान पर घूम कर प्रचार किया।
गुरु जी पाखण्ड के विरोधी थे। बाहर के आडम्बरों के विरोधी थे, तिलक, जनेऊ और माला के विरोधी थे। फिर भी उन्होंने ब्राह्मणों का पक्ष इसलिए किया कि कोई भी किसी के धर्म में अड़चन क्यों डाले ? जबरदस्ती किसी का धर्म क्यों बदले ? गुरु जी सच्चे अर्थों में तेजस्वी, महात्मा और देशभक्त थे। अभिमान और छल से रहित थे।
साहित्यिक प्रेम
गुरु तेग बहादुर जी न केवल धार्मिक नेता ही थे बल्कि अच्छे साहित्यकार भी थे। उन्होंने स्वयं भी अनेक तरह की रचनाएं कीं और साहित्यकारों का सम्मान भी किया। आप को कविता की भाषा बहुत सरल है, भावों में एक प्रवाह है और कविता का विषय धार्मिक है।
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