Essay on Maharshi Dayanand Saraswati in Hindi आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती पर निबंध

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Essay on Maharshi Dayanand Saraswati in Hindi – महर्षि दयानन्द सरस्वती पर निबंध

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Essay on Maharshi Dayanand Saraswati in Hindi 1000 Words

जिस समय आर्य संस्कृति के दीपक को बुझाने के लिए विदेशी और विधर्मी लोग यतन कर रहे थे, वेद विरुद्ध आडम्बरों में उलझे हुए भारतवासी भी अनजाने में उनकी सहायता कर रहे थे, उस समय महर्षि का आगमन हुआ। सम्वत् 1881 के अन्त में मजोकठा नदी के किनारे बसे मोरवी राज्य के टंकारा नामक गांव में कर्षण जी के घर इनका जन्म हुआ। कर्षण जी ब्राह्मण थे और शिव के परम भक्त थे। उन्होंने इस बालक का नाम मूलशंकर रखा। सम्वत् 1887 से स्वामी जी की शिक्षा आरम्भ हुई। कुल की रीति के अनुसार इन्हें संस्कृत के कुछ श्लोक रटवाए गए। आठवें वर्ष में यज्ञोपवीत संस्कार के बाद मूलशंकर को यजुर्वेद की शिक्षा दी जाने लगी।

14 वर्ष की अवस्था में एक छोटी सी घटना ने इस बालक का जीवन ही बदल दिया। शिवरात्री का दिन था। पिता ने इनसे जबरदस्ती व्रत रखवाया। रात को मंदिर में शिव की पूजा की और प्रथा के अनुसार रात्रि जागरण के लिए वहीं ठहरे। पुजारी तथा अन्य भक्त तो आधी रात के बाद सो गये किन्तु बालक मूलशंकर जागता रहा। तभी उन्होंने देखा कि मूर्ति पर चढ़ाए गए चढ़ावे को खाता हुआ एक चूहा शिवलिंग पर जा चढ़ा। उसी समय बालक के मन में अनेक विचार आने लगे। यह कैसा भगवान् है कि एक चूहा भी इससे हटाया नहीं जाता। उनके मन में मूर्तिपूजा का विरोध जाग उठा।

सम्वत् 1897 में इनकी छोटी बहिन हैजे से चल बसी। इस मृत्यु ने भी बालक मूल के मन पर बहुत गहरा प्रभाव डाला। वे मन ही मन मृत्यु को जीतने का उपाय सोचने लगे । इनके चाचा जी की मृत्यु ने उस विचार को और भी मजबूत कर दिया। घर वाले बीसवें वर्ष में मूलशंकर का विवाह कर देना चाहते थे। जैसे तैसे विवाह रोक कर मूलचन्द ने पढ़ाई के लिए काशी जाने की आज्ञा मांगी किन्तु माता पिता न माने और विवाह की तैयारियां होने लगीं। अन्य कोई उपाय न देख बाईस वर्ष की अवस्था में केवल एक धोती साथ लेकर मूलशंकर घर से निकल पड़े।

फिर इन्होंने अनेक मतों और शास्त्रों का अध्ययन किया तथा एक जगह से दूसरी जगह विद्या प्राप्ति के लिए घूमते रहे। स्वामी परमानन्द जी से संन्यास की दीक्षा ली तथा योगसाधन करना आरम्भ कर दिया। 1911 विक्रमी में हरिद्वार में कुम्भ के अवसर पर बहुत से साधु-सन्यासियों और योगियों से भेंट की। टिहरी गढवाल तक और उधर नर्मदा तक विचरण किया किन्तु ज्ञान की प्यास फिर भी तृप्त न हो पाई।

सम्वत् 1917 में दयानन्द सरस्वती जी की मथुरा में दण्डी स्वामी विरजानन्द जी से भेंट हुई। दयानन्द जी ने उनसे आर्य ग्रन्थों का अध्ययन किया। दो वर्ष वह मथुरा में रहे। विद्या अध्ययन की समाप्ति पर गुरु दक्षिणा के रूप में स्वामी विरजानन्द जी ने यही मांग रखी ‘”वैदिक धर्म का प्रचार करो, अज्ञान के अन्धकार को दूर करो। लोगों को सच्चा मार्ग दिखाओ।” बस फिर क्या था। नगर-नगर और गांव-गांव में दयानन्द सरस्वती वेदों का प्रचार करने लगे। इन्होंने अपने जीवन में व्यर्थ के कर्मकाण्डों और पाखण्डों का डट कर विरोध किया।

हरिद्वार के मेले पर इन्होंने पाखण्ड खंडिनी पताका गाड़ दी। अनेक विद्वानों से शास्त्रार्थ करके उन्हें अपना अनुयायी बनाया। जगह जगह घूम कर महर्षि वैदिक धर्म का प्रचार करने लगे। सम्वत् 1975 में स्वामी जी ने मुम्बई में आर्य समाज की स्थापना की। ‘ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका, संस्कार विधि’ और ‘सत्यार्थप्रकाश’ आदि अमूल्य पुस्तकों की रचना की।

जोधपुर के महाराजा के यहां नन्हीं जान नामक वेश्या को देख कर महर्षि का मन क्षुब्ध हो उठा। उन्होंने जोधपुर के महाराजा को इस आचरणहीनता के लिए डांटा। अपमानित नन्हीं जान ने स्वामी जी के रसोइये जगन्नाथ को धन देकर गांठ लिया और स्वामी जी को ज़हर दिलवा दिया। दया सागर और क्षमा भण्डार स्वामी जी ने जगन्नाथ को कुछ रुपए दिए तथा भाग जाने को कहा। हत्यारे के प्रति भी क्षमा का भाव रखने वाले महर्षि दयानन्द जी ने 1883 ई. को दीपावली की सांझ अपनी भौतिक लीला समाप्त की। मृत्यु के समय उनके चेहरे पर पूर्ण शांति थी और होंठों पर ये शब्द थे “हे परमपिता ! तेरी इच्छा पूर्ण हो।” महर्षि दयानन्द जी ने दैनिक संस्कृति और प्राचीन ज्ञान की रक्षा की। नारी जाति की उन्नति, अछूतोद्धार, स्वदेशी और स्वराज्य का प्रचार, विधवा विवाह की अनुमति आदि ऐसे अनेकों सुधार हैं। जिनके लिए भारत की जनता सदैव महर्षि की ऋणी रहेगी। भारत और भारतीय संस्कृति के सच्चे रक्षक के रूप में महर्षि का नाम सदा अमर रहेगा।

स्वामी दयानन्द का सुराज ऐसा राज था जिसमें अपनी संस्कृति के गौरव को समझते हुए आर्थिक, नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्वतन्त्रता प्राप्त कर सम्पूर्ण विश्व को ही ‘आर्य’ अर्थात् श्रेष्ठ व्यक्ति बनाना था। उसे मानव बनाना और उसे सच्चा इन्सान बनाना था।

स्वामी दयानन्द ने अपने आप किसी मत की स्थापना नहीं की अपितु उन्होंने विश्व को वेद-मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। समाज के नव-निर्माण के लिए उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पण कर दिया। उन्होंने आर्य-समाज की स्थापना के मूल में यह विचार रखा था कि यह समाज ऐसा होगा जिसका आधार सच्चा वैदिक ज्ञान होगा। इसका आधार सांस्कृतिक उत्थान के माध्यम से विश्व का हित चाहेगा। आर्य समाज की चेतना, ऋषि की दिव्य वाणी अब भी अंधकार में भटकते मानव को राह दिखाती है।

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भूमिका

भारत के सांस्कृतिक इतिहास का नव-निर्माण करने वाले मनीषियों में देव दयानन्द का नाम अग्रगण्य एवं पूज्य है। विशुद्ध अर्थों में भारतीय और महामानव दयानन्द की देन आज देश में आर्य समाज और विभिन्न डी. ए. वी. संस्थाओं के रूप में शत-शत धाराओं के रूप में प्रवाहित हो रही है तथा उनका प्रज्वलित किया ज्ञान का आकाशदीप आज भी अज्ञान के तिमिर का छेदन कर रहा है। इस सन्त और साधु परन्तु कर्मवीर महामानव का जीवन संघर्षों का इतिहास है परन्तु उनका लक्ष्य अपने जीवन की श्री वृद्धि करना नहीं था अपितु अपने देशवासियों को नई चेतना, नई जागृति प्रदान कर उन्हें सुखमय, कर्ममय तथा धर्ममय जीवन व्यतीत करने की ओर प्रेरित करना था। वेदों के प्रति उनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक था, संस्कृति के प्रति पूर्वाग्रही नहीं थे और ज्ञानार्जन के प्रति कूपममण्डूक बनने से उन्हें घृणा थी। तन और मन से दयानन्द दिव्य थे, शक्ति के पुंज थे। जागरण का जो शंखदान उन्होंने किया था उससे सुप्त-देशवासियों में चेतना की लहर उठी थी। उनका परमार्थमय जीवन, उनकी पवित्र भक्ति तथा दिव्य-ज्ञान, युग-युगों तक हमारे देश का और संस्कृति का मार्ग-दर्शन करता रहेगा। समाज-सुधारकों में अग्रदूत, अज्ञान-अन्धकार के विनाशक, वैदिक साहित्य की नवीन व्याख्या करने वाले, आर्य समाज के संस्थापक, सनातन धर्म को उसकी अतिवादिताओं से अवगत कराने वाले, जात-पात के हानिकारक प्रभाव को दूर करने वाले एवं ‘शुद्धि’ को जन्म देने वाले महर्षि दयानन्द ही थे।

महर्षि दयानन्द आज नहीं हैं पर भारत का कोना-कोना उनके गुण-गौरव के गीत गाता है।

तत्कालीन परिस्थितियां

उनके जन्म के समय समाज अनेक त्रुटियों से पतन के गर्त में गिर चुका था। समाज के क्षेत्र में जात-पात के बन्धन घुन बनकर समाज के गठन की जड़ों को खोखली कर रहे थे। छुआछूत का भूत प्रत्येक के सिर पर सवार था। बाल-विवाह, पर्दा प्रथा आदि कुरीतियां बद्धमूल हो चुकी थीं। सामाजिक-पतन पराकाष्ठा पर पहुंच चुका था।

वास्तविक धर्म विलुप्त हो चुका था, पाखण्ड और दम्भ का बोलबाला था। मतमतान्तरों के जाल में फंसी जनता छटपटा रही थी। अज्ञान का अंधेरा जन-मानस में घर कर चुका था। रूढ़िवाद की बन आई थी। नवागत ईसाई मिश्नरी विविध प्रलोभन दे कर लोगों को धड़ाधड़ ईसाई बना रहे थे।

अंग्रेज़ी साम्राज्य की जड़े पाताल तक पहुंच चुकी थीं। देश के धन से विदेश के भण्डार भरे जा रहे थे। छल, बल एवं कौशल से भारत का सर्वस्व लूटा जा रहा था। ठीक ऐसे संकटमय समय में गुजरात में क्रान्ति का सूर्य उदित हुआ।

परिचय

महर्षि स्वामी दयानन्द का जन्म सन् 1824 में गुजरात (कठियावाड़) के मोरवी जिला के टंकारा नामक गांव में हुआ। स्वामी जी के पिता अच्छे ज़मींदार थे और शिव के भक्त थे। पिता ने इस बालक का नाम मूल शंकर रखा। पांच वर्ष की आय में बच्चे को संस्कृत पढ़ने के लिए विद्धान् पंडित के पास भेजा गया। मूल शंकर खुब मन लगाकर पढ़ने लगे। कुशाग्र बुद्धि तो थे ही, इसलिए जल्दी ही सब कुछ पढ़ लिया। जब शंकर चौदह वर्ष के हुए तो पिता ने उनसे शिवरात्रि का व्रत रखवाया। दिर भर भूखे रहे। रात को शिव-पूजा के लिए मन्दिर में गए। पूजा हुई, कथा कीर्तन हुआ, आधी रात तक अच्छी चहल-पहल रही। तदनन्तर शिव-भक्त निद्रा देवी की गोद में जा पड़े, पर बालक मूलशंकर जागते रहे। उन्होंने देखा कि शिव-मूर्ति पर रखे हुए नेवेद्य को खाने के लिए मूर्ति पर चूहे चढ़ रहे हैं। बालक मूलशंकर के हृदय में तरह-तरह की आशंकाएं पैदा हुईं जिनका उत्तर उनके पिता भी न दे सके। परिणामत: मूलशंकर सच्चे प्रभु की खोच के लिए आतुर हो उठे। इसी बीच उनकी बहिन और चाचा का देहान्त हो गया। मूलशंकर की उदासी बढ़ गई। पिता ने सोचा कि बालक का विवाह कर दिया जाए, इसलिए जब विवाह की तैयारियां होने लगीं तो मूलशंकर बाईस वर्ष की आयु में घर से भाग निकले।

ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रयल और वैदिक धर्म का प्रचार

मूलशंकर सच्चे गुरु की खोज में इधर-उधर भटकने लगे। उसी समय उनकी भेंट स्वामी पूर्णानन्द जी सरस्वती से हुई। उनसे मूलशंकर ने संन्यास लिया। तब मूलशंकर दयानन्द सरस्वती बने। ज्ञान की प्यास तब भी न बुझी। बत्तीस वर्ष की आयु में स्वामी जी ने कठोर परिश्रम से सच्चे ज्ञान की प्राप्ति की। योग्य गुरु को पाकर शिष्य और योग्य शिष्य को पाकर गुरु दोनों ही धन्य हो गए। विद्या-समाप्ति के पश्चात् गुरु ने यही कहा : “वैदिक धर्म का प्रचार करो, अज्ञान के अन्धकार को दूर करो। लोगों को सच्चा मार्ग दिखाओ। यही मेरी गुरु-दक्षिणा है।” गुरु के वचनों को दयानन्द ने जीवन पर्यन्त निभाया।

हरिद्वार के कुम्भ के मेले में अपनी पाखण्ड-खण्डनी पताका गाड़ दी और यात्रियों को सच्चा रास्ता दिखाया। अनेक पंडितों से शास्त्रार्थ किया और अनेकों को अपना अनुयायी बनाया। उसके बाद स्वामी जी स्थान-स्थान पर घूम कर वैदिक धर्म का प्रचार करने लगे। धर्म और समाज में जो रुढ़ियां थीं, जो अन्धविश्वास थे, उन्हें तोड़ समाज को सच्ची राह दिखाई।

मृत्यु

सम्वत् 1932 (सन् 1878) में स्वामी जी जोधपुर के राजा यशवन्त सिंह के निमन्त्रण पर वहां पहुंचे। स्वामी जी के स्वागत के लिए यहां बहुत तैयारियां थीं। स्वामी जी ने राजमहल में भी जाना था और जनता के समाने भी जाना था। जब स्वामी जी राजमहल में पहुंचे, तो राजा के साथ नन्हीं जान वेश्या को बैठे देख स्वामी जी का मन बहुत खिन्न हुआ। स्वामी जी ने राजा को कहा, ‘राजन् राजा शार्दूल होता है और यह वेश्या कुवरी, कुकरी से शार्दूल का सम्बन्ध सुहाता नहीं।’ यह सुन राजा लज्जित हुआ, पर क्रूद्ध नहीं।

अपमानित होकर नन्हीं जान ने उनसे बदला लेने के विचार से स्वामी जी के रसोइये जगन्नाथ को धन का लोभ देकर स्वामी जी के भोजन और दूध में जहर मिला दिया। भोजन खाने के कुछ समय बाद स्वामी जी भांप गए। यौगिक क्रियाओं से वह ज़हर निकालना चाहते थे पर ज़हर रक्त-कणों में मिल चुका था, इसलिए स्वामी जी ने अपने अनुयायियों को बुलाया और उन्हें वैदिक धर्म के दीपक को उसी तरह प्रज्वलित रखने के लिए कहा। उस समय जबकि लोगों के घरों में दीपक जलाए जा रहे थे, सन् 1883 दीवाली का दिन, साँझ की बेला, सूर्य अस्त का समय, “ईश्वरी तेरी इच्छा पूर्ण हो” इस वाक्य को तीन बार दोहराता हुआ यह भारत का दीपक सदा के लिए बुझ गया।

सुधारवादी

यों तो राजा राममोहन राय ने भी सुधार किये, पर वे पश्चिमी सभ्यता में अधिक रंगे हुए थे। स्वामी दयानन्द शुद्ध भारतीय थे। उन्होंने जो सुधार किए वे भारतीय संस्कृति की दृष्टि से किए। स्वामी जी के सुधार थे – स्त्री-शिक्षा का प्रचार, विधवा-विवाह की अनुमति, नारी जाति का उत्थान, अछूतोद्वार, हिन्दी का प्रचार, भारतीय एकता का बल,. भारतीय स्वतन्त्रता के लिए प्रयल, वैदिक धर्म का प्रचार, मत-मतान्तरों का खण्डन, ऐकेश्वरवाद की स्थापना, हिन्दुओं में हिन्दुत्व की भावना पैदा करना और ईसाई बनाने से रोकना। सच्ची बात यह है कि स्वामी जी के पश्चात् महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू तथा कांग्रेस पार्टी ने भारत को सुधारने के लिए जो भी लक्ष्य बनाए, उनका सूत्रपात्र स्वामी दयानन्द जी पहले ही कर चुके थे। स्वामी दयानन्द का सुराज ऐसा राज था जिसमें अपनी संस्कृति के गौरव को समझते हुए आर्थिक, नैतिक सामाजिक और सांस्कृतिक स्वतन्त्रता प्राप्त कर सम्पूर्ण विश्व को ही ‘आर्य’ अर्थात् श्रेष्ठ व्यक्ति बनाना था, उसे मानव बनाना था, उसे सच्चा इंसान बनाना था।

उपसंहार

तप:पूत महर्षि ने अपने आप किसी मत की स्थापना नहीं की अपितु उन्होंने विश्व को वेद-मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया अर्थात् उन्होंने वेद को सत्य ज्ञान ईश्वर-प्रदत्त ज्ञान मान कर सभी को उसके बढ़ने-पढ़ाने का अधिकार दिया। अनेक अवतारों को मूर्ति और मन्दिरों से मत-मतान्तरों, संप्रदाय और वादों से निकाल कर उसे सर्वव्यापी तथा निराकार माना। समाज के नव-निर्माण के लिए उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पण किया। उन्होंने आर्य-समाज की स्थापना के मूल में यह विचार रखा था कि यह समाज ऐसा होगा जिसका आधार सत्य वैदिक ज्ञान होगा और जो सांस्कृतिक उत्थान के माध्यम से विश्व का हित चाहेगा। वर्तमान भारत में डी. ए. वी. शिक्षा-संस्थाएं यद्यपि आज इस मार्ग से भटक गई हैं लेकिन आर्य-समाज की चेतना ऋषि की दिव्य-वाणी अब भी अंधकार में भटकते मनुष्य को राह दिखाती है।

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