Essay on Swami Vivekananda in Hindi स्वामी विवेकानंद पर निबंध
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Essay on Swami Vivekananda in Hindi 1000 Words
हमारे देश में विश्व-विभूतियों की एक अटूट श्रृंखला रही है। समय-समय पर जन्म लेकर उन्होंने भारतभूमि व सारी मानवता को विभूषित व धन्य किया है। आधुनिक समय के संदर्भ में हम राजा राममोहन राय, महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, सुभाष चन्द्र बोस, स्वामी रामकृष्ण परम हंस, चैतन्य महाप्रभु, सर्वपल्लि राधाकृष्णन, महर्षि अरविन्द, रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि कुछ नाम गिना सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द इस श्रृंखला की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी हैं। उन्होंने अपने जीवन-चरित्र व अनुकरणीय महान् कार्यों से भारत को गौरव प्रदान किया। उन्होंने धार्मिक व सामाजिक क्रांति को आगे बढ़ाया तथा नवजागरण को नया बल और स्फूर्ति प्रदान की।
इस महान विभूति का जन्म 12 जनवरी, 1883 को कलकत्ता के एक सम्पन्न और आधुनिक परिवार में हुआ। इनके बाल्यकाल का नाम नरेन्द्र दत्त था। इनके पिता विश्वनाथ दत्त एक विद्वान, संगीत प्रेमी और पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति के अच्छे ज्ञाता थे। नरेन्द्र की माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक और सनातन संस्कारों की गुणवान तथा प्रतिभाशाली महिला थीं। माता-पिता के ज्ञान, स्वभाव-संस्कार व गुणों का बालक नरेन्द्र पर बहुत प्रभाव पड़ा। संगीत की प्रारम्भिक प्रेरणा उन्हें अपने पिता से ही मिली थी। उनके बाबा दुर्गाचरण दत्त एक विद्वान व्यक्ति थे। फारसी, बंगला व संस्कृत भाषाओं को उनको गहरा ज्ञान था। ये सभी संस्कार बालक नरेन्द्र को विरासत में मिले और आगे चलकर वे महान् व्यक्ति बने तथा विवेकानन्द के नाम से विख्यात हुए।
उनकी माता ने उन्हें “प्रथम गुरु” के रूप में बहुत अच्छे संस्कार व शिक्षा प्रदान की। उन्हीं से नरेन्द्र ने अंग्रेजी तथा बंगला भाषाएं सीखीं, रामायण और महाभारत की शिक्षाप्रद व प्रेरणादायी कहानियां सुनी। रामायण और राम का उन पर गहरा प्रभाव था। हनुमान भी उनके लिये पूज्य व अनुकरणीय थे। वे शिव की उपासना करते थे। आध्यात्मिक रूचि और जिज्ञासा के अन्तर्गत भारतीय दर्शनशास्त्र का उन्होंने गंभीर अध्ययन किया तथा कालांतार में ब्रह्म समाज के सदस्य बन गये। नरेन्द्र प्रतिभाशाली छात्र थे। जो एक बार पढ़ लेते स्मृति-पटल पर सदैव के लिए अंकित हो जाता।
स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात् उनके पिता उनका विवाह कर देना चाहते थे परन्तु नरेन्द्र इस बंधन में नहीं बंधना चाहते थे। वस्तुत: नियति को मान्य नहीं था। परिवार के संकीर्ण घेरे में उनकी प्रतिभा और दैवीगुण सिमट कर रह जायें। ईश्वर ने उन्हें सम्पूर्ण विश्व की सेवा, कल्याण और आध्यात्मिक क्रांति के लिए भेजा था।
रामकृष्ण गंगातट स्थित काली के दक्षिणेश्वर मन्दिर में निवास करते थे। उनकी गहन साधना, तपस्या व उपलब्धियों की चर्चा कलकत्ता में सर्वत्र होती थी। अतः एक दिन वे रामकृष्ण से मिलने दक्षिणेश्वर गये तथा इस महायोगी के दर्शन किये। धीरे-धीरे उनके संपर्क में आने से उनके संदेह, तर्क व जिज्ञासाएं शांत होती चली गईं और उन्होंने अपना गुरु स्वीकार कर लिया। रामकृष्ण ने अपने ज्ञान के आधार पर तुरंत जान लिया कि नरेन्द्र असाधारण प्रतिभा सम्पन्न एक महान् व्यक्ति थे और उनका पृथ्वी पर अवतरण एक विशेष आध्यात्मिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए हुआ था। अंतत: 1881 में उन्होंने संसार का त्याग कर सन्यास ले लिया।
सन् 1884 में पिता के देहान्त से नरेन्द्र के परिवार पर संकट का पहाड़ ही टूर पड़ा परन्तु गुरु कृपा व ईश्वर के आर्शीवाद से नरेन्द्र विचलित नहीं हुए और अपने साधना पथ पर निरन्तर बढ़ते रहे तथा ईश्वर दर्शन का लाभ प्राप्त किया। 16 अगस्त, 1886 को परमहंस रामकृष्ण का देहांत हो गया। विवेकानन्द व उनके अन्य संन्यासी साथियों के लिए यह बड़ा आघात था परन्तु तुरंत ही वे संभल गये और सूक्ष्म रूप में उन्हें अपने गुरु से मार्गदर्शन निरन्तर मिलता रहा।
उन्होंने अपने सन्यासी साथियों तथा दूसरे भक्तजनों के साथ मिलकर रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। इस संस्थान ने तब से अब तक अनेक प्रशंसनीय और अभूतपूर्व कार्य देश व विदेशों में सम्पन्न किये हैं। विवेकानन्द का अंग्रेजी तथा बंग्ला भाषाओं पर असाधारण अधिकार था। संस्कृत के भी वे विद्वान थे। ऊपर से उन्हें अपने गुरु व ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त था। हिन्दी भी वे धाराप्रवाह बोल सकते थे। नवजागरण की इस नई लहर से प्रभावित-प्रेरित होकर हजारों स्त्री-पुरूष विवेकानन्द के शिष्य, अनुयायी और प्रशंसक बन गये।
खेतड़ी के राजा के आग्रह पर विवेकानन्द अमेरिका में होने वाले विश्वधर्म सम्मेलन में जाने को तैयार हो गये। 11 सितम्बर, 1893 को इस धर्म संसद का सत्र प्रारम्भ हुआ। विवेकानन्द के ओजस्वी, ज्ञानपूर्ण और मौलिक विचारों को सुनकर श्रोतागण अभिभूत हो गये। उन्होंने बार-बार तालियों की गड़गड़ाहट से स्वामी जी के भाषण का स्वागत किया। उनके प्रवचनों की सारे अमेरिका में धूम मच गई तथा बड़ी संख्या में लोग विवेकानन्द के शिष्य व अनुयायी बनने लगे। लगभग अढाई वर्षों तक वे अमेरिका में रहे और वहां भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार करते रहे।
भारत लौटने पर विवेकानन्द का देश भर में अपार स्वागत हुआ। सारे देश ने कृतज्ञता से अपना मस्तक उसके सामने झुका दिया। जनसमुदाय हर्ष-विभोर होकर उनकी जयकार करता रही। 4 जुलाई, 1902 को इस कर्मवीर का निधन हो गया। उस समय विवेकानन्द मात्र 39 वर्ष के थे। उनके निधन ने सारे देश को शोक-स्तब्ध कर दिया। उनकी पावन स्मृति में देश तथा विदेश में अनेक स्मारक स्थापित किये गए। उदाहरणार्थ कन्याकुमारी के सागर तट स्थित उनके स्मारक का यहां उल्लेख किया जा सकता है। किसी समय यहीं पर विवेकानन्द ने आकर ध्यान साधना की थी और समाधि में लीन रहे थे।
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भूमिका
विश्व को ज्ञान-रश्मियों से आलोकमण्डित कर हमारा देश जगत् गुरु कहलाया। ज्ञान के अनेक क्षेत्रों में भारतीय मनीषियों ने निरन्तर साधना से विश्व को नए दर्शन पढ़ाए। अपने विश्व व्यापी चिंतन से हमारे महापुरुषों ने विश्व को धर्म की सीमित परिधियों से निकाल उसे विशाल क्षेत्र प्रदान किया। धर्म के कूप-मण्डूक बनकर रहना उन्हें स्वीकार न था। इसलिए विश्व के सम्मुख उन्होंने धर्म और दर्शन की नयी व्याख्या की जिसका आधार विशाल था और जिसमें द्वेष का मालिन्य नहीं था अपितु प्यास की सौरभ थी। स्वामी विवेकानन्द भी ऐसे ही युग-पुरुष हुए हैं जिनका चिंतन और दर्शन विश्व के लिए नवीन पथ तो प्रशस्त करता ही है, एक अखण्डित, कालजयी धर्म की व्याख्या भी करता है।
जीवन दर्शन
12 जनवरी सन् 1863 ई. मकर संक्रान्ति के दिन कलकत्ता के एक क्षत्रिय परिवार में श्री विश्वनाथ दत्त के घर में उनकी पत्नी भुवनेश्वरी देवी की कोख से एक बालक का जन्म हुआ जिसका प्यार भरा नाम माँ ने वीरेश्वर’ (बिले) रखा। लेकिन अन्नप्राशन के दिन नाम दिया गया नरेन्द्र नाथ। अनेक मनौतियों के बाद जन्मा बालक सम्पन्न परिवार में बहुत लाड़-प्यार से पाला गया और परिणामतः वह हट्ठी बन गया। बचपन से ही मेधावी
नरेन्द्र जिज्ञासु भी था। अत: घर में भी माता-पिता पर प्रश्नों की बौछार करता। धार्मिक वातावरण में महादेव और हनुमान के चरित्रों से वह प्रभावित होता।
घर की आरम्भिक शिक्षा के बाद विद्यालय की शिक्षा आरम्भ हुई। दो वर्ष तक रायपुर में पिता के समीप रहने से बालक नरेन्द्र ने स्वास्थ्य लाभ भी किया और तर्क शक्ति का विकास भी हुआ। मैट्रोपोलिटन इन्स्टीट्यूट से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद असेम्बली इन्स्टीट्यूशन से नरेन्द्र ने एफ. ए. और बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।
इस अध्ययन काल में नरेन्द्र ने वकृत्व शक्ति, शारीरिक और मानसिक शक्ति, तर्क-बुद्धि चिंतन और मनन, ध्यान और उपासना, भारतीय और पाश्चात्य दर्शन, डार्बिन का विकासवाद और स्पेंसर का अज्ञेयवाद, ब्रह्म समाज और परम हंस और काली आदि से जुड़कर उनका अध्ययन विकास की ओर अग्रसर हुआ।
सन 1884 में पिता का निधन होने से परिवार के भरण-पोषण का भार नरेन्द्र पर आ पड़ा। ऋण की परेशानी, नौकरी की निरर्थक हूँढ, मित्रों की विमुखता, ने नरेन्द्र के मन में ईश्वर के प्रति प्रचण्ड विद्रोह जगा दिया लेकिन रामकृष्ण परमहंस के प्रति उसकी श्रद्धा और विश्वास स्थिर रहे। परमहंस से उन्होंने निर्विकल्प समाधि प्राप्त करने की प्रार्थना की लेकिन यह सब कुछ एक दिन स्वयं हो गया। एक दिन ध्यान में डूबे नरेन्द्र की समाधि लग गई और समाधि टूटने पर वह दिव्य आनन्द और शान्ति के प्रचण्ड प्रवाह से विभोर हो गया, पुलकित हो गया। अपनी मृत्यु से तीन-चार दिन पूर्व रामकृष्ण ने नरेन्द्र को अपने प्रभाव से स्वयं समाधिस्थ होकर कहा था – “आज मैंने तुम्हें अपना सब कुछ दे दिया है और अब मैं सर्वस्वहीन एक गरीब फकीर मात्र हैं। इस शक्ति से तुम संसार का महान् कल्याण कर सकते हो और जब तक तुम वह सम्मान प्राप्त न कर लोगे, तब तक तुम न लौटोगे।” उसी क्षण से सारी शक्तियाँ नरेन्द्र के अन्दर संक्रान्त हो गई, गुरु और शिष्य एक हो गए तथा नरेन्द्र ने संन्यास ग्रहण कर लिया। अगस्त 1886 में परमहंस महासमाधि में लीन हो गए।
संन्यास की ओर
अभी तक नरेन्द्र घर से पूर्ण रूप से असम्पृक्त नहीं हुए थे। घर की व्यवस्था संतोषजनक नहीं थी। जब उनके मकान सम्बन्धी मुकद्दमे की अपील का निर्णय उनके पक्ष में हो गया तो दिसम्बर के आरम्भ में नरेन्द्र ने घर-परिवार से स्वयं को पूर्ण रूप से मुक्त कर दिया और वाराहनगर में रहने लगे। इसके बाद दैवी इच्छा से प्रेरित होकर नरेन्द्र ने मठ को त्यागने का फैसला कर लिया। युवक नरेन्द्र परिव्राजक स्वामी विवेकानन्द हो गए।
इसके बाद स्वामी विवेकानन्द की यात्रा आरम्भ हुई। बिहार, उत्तर प्रदेश, काशी, अयोध्या, हाथरस, ऋषिकेश, आदि तीर्थों में घूमने के पश्चात् वे पुन: वाराहनगर मठ में आ गए और रामकृष्ण संघ में सम्मिलित हो गए।
उनकी यात्रा निरन्तर जारी रही और ज्ञानार्जन की पिपासा भी उत्तरोत्तर बढ़ती गई। एक ओर उत्तरी भारत में उत्तरकाशी से लेकर दक्षिण भारत में कन्याकुमारी तक वे सम्पूर्ण राष्ट्र का जीवन देखते रहे समझते रहे तो दूसरी ओर उनकी आध्यात्मिक क्षुधा भी बढ़ती गई। इस संदर्भ में वे कभी पवहारी बाबा से उपदेश प्राप्त करते, उच्चतर आध्यात्मिक चर्चा करते तो दूसरी ओर प्रेमानन्द जी से शास्त्र-चर्चा और शंका-समाधान भी किया करते। एक ओर वे अनेक नरेशों के सम्पर्क में आते तो दूसरी और माँ सारदा देवी जी का पुण्य आशीर्वाद भी मांगते। अष्टाध्यायी और ‘पातंञ्जलि’ का गहन अध्ययन उनकी ज्ञानार्जन की बलवती भावना का प्रमाण है। लोकमान्य तिलक, स्वामीरामतीर्थ जैसे नेताओं और विद्वानों से उनका सामीप्य रहा। कन्याकुमारी में श्रीपादशिला पर समाधिस्थ होना और उसके विदेश प्रस्थान उनके इस भ्रमण के कुछ विशेष महत्त्वपूर्ण पहलू हैं।
31 मई 1893 ई. को उन्होने बम्बई से प्रस्थान किया। इस यात्रा में जापान जैसे देशों को देखा जो औद्योगिक क्रान्ति से नव्य रूप प्राप्त कर रहा था। शिकागो शहर में गेरुआ वस्त्र धारी तेजस्वी गौर वर्ण व्यक्ति को देखकर उन लोगों के ध्यान को आकर्षित करते। शिकागो धर्म सभा में भाग लेने से पूर्व उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा लेकिन वे विचलित नहीं हुए। 11 सितम्बर 1893 का दिन विश्व के धार्मिक इतिहास के लिए चिरस्मरणीय है जब गैरिक वस्त्रों से विभूषित गौरवर्ण संन्यासी ने प्यार और अपनत्व की ऊर्जामयी भाषा में अमेरिका के लोगों को संबोधित किया था – अमेरिका निवासी भाइयों और बहनों और वह कक्ष कारतल ध्वनि से गूंज उठा था। और इसके पश्चात सम्मेलन मानो विवेकानन्द के ही रंग में रंग गया। हिन्दु धर्म के अनेक पक्षों को जब उन्होने सम्मुख रखा तो समस्त पत्र-पत्रिकाओं ने अपूर्व स्वागत इस दिव्य स्वामी का किया। न्यूयार्क हेराल्ड, प्रेस ऑफ अमेरिका ने स्पष्ट लिखा कि इस चुम्बकीय व्यक्तित्व वाणी और विषय के प्रतिनिधि के सम्मुख अन्य धर्मों के प्रतिनिधि निस्तेज हैं। इसके बाद स्वामी जी ने अमेरिका के विभिन्न शहरों में व्याखान दिए। इंग्लैंड आने पर यहाँ भी उनके प्रवचनों ने अनेक विद्धान जनों, धर्म प्रेमियों को लुभाया। जगद् विख्यात विद्वान मैक्समूलर उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए। जर्मनी के अलावा वे अन्य देशों में वेदान्त प्रचार के पश्चात वे भारत लौटे। चार वर्ष पश्चात् अपनी मातृभूमि में वापस आने पर उनका अभूतपूर्व, भव्य, गौरवमय और प्यार भरा स्वागत किया गया। सम्पूर्ण देश में विवेकानन्द का नाम गूंज उठा। देश और विदेश में अनेक धर्मों के लोग उनके शिष्य बने। रामकृष्ण मिशन की स्थापना के बाद यह महान् विभूति 4 जुलाई 1902 को ओम् की ध्वनि के साथ महाप्रस्थान कर गई।
दर्शन और सिद्धान्त
स्वामी विवेकानन्द का उद्देश्य रामकृष्ण परमहंस के धर्म तत्त्व को विश्वव्यापी बनाना था जिसका आधार वेदान्त था। अत: उन्होंने वेदों के प्रचार और प्रसार के लिए महासंकल्प किया। देश और विदेश में रामकृष्ण मिशन की शाखाएं और प्रचार केन्द्र स्थापित किए। अपने साथियों से उन्होंने एक बार कहा था – “जो लोग दिखावटी भावावेश के धर्म को प्रोत्साहन देते हैं उनमें से अस्सी फीसदी बदमाश और पन्द्रह फीसदी पागल हो जाते हैं।” उनका संन्यास जीवन से दूर नहीं भागता था अपितु संसार के दुःख दारिद्रय को दूर करना तपस्या के समान मानता था। केवल अपनी मुक्ति के लिए तपस्या करना उन्हें स्वार्थ प्रतीत होता था।
वे धर्म के ढोंग-ढकोसला के दलदल से बाहर निकलना चाहते थे। उनका स्पष्ट मत था कि धर्म का व्यवसाय करने वाले पण्डित-पुरोहित ही धर्म के मूल तत्त्वों को नहीं समझते हैं और भारत की धर्म निष्ठा जनता को गुमराह करते हैं।
वे पत्थर हृदय-संन्यासी नहीं संवेदनशील परदुःखकातर योगी थे। अपने गुरु भाई की मृत्यु पर अब वे शोक-विह्वल हुए और प्रमदा दास ने उनके साधारण व्यक्तियों जैसे शोक पर आश्चर्य प्रकट किया तो उन्होंने कहा था-क्या संयासी हृदयहीन होते हैं। मेरे विचार में तो संन्यासी का हृदय अधिक सहानुभूतिशील होता है। ….. पत्थर जैसा अनुभूतिशून्य संन्यासी जीवन तो मेरा आदर्श नहीं है।
वेदान्त के विभिन्न मतों के संबंध में उनका निश्चित मत था कि विभिन्न मतवाद परस्पर विरोधी नहीं है अपितु एक दूसरे के पूरक और समर्थक हैं। उनके इस समन्वयवादी विचार ने सभी धर्मों के श्रेष्ठ तत्त्वों को स्वीकारा किया अत: वे सबके प्रिय बने।
वे समाज को देश को प्रतिगामी रुढ़ियों से निकाल कर प्रगतिशील बनाना चाहते थे। जो नियम और आचार-विचार समाज के विकास और पोषण में बाधक थे उनके त्याग को ही वे स्वीकारते थे। उन्होंने धर्म-द्वन्द्व के त्याग, स्वाधीनता के नाम पर स्वेच्छाचारिता के परित्याग, जातीयता और राष्ट्रीयता के नाम पर दूसरे पर अत्याचार, धर्म के नाम पर दूसरों के धर्म को हेय मानने का निषेध तथा उच्च और उदार मानव धर्म की स्थापना पर बल दिया।
सर्वधर्म समन्वय का उपदेश देते हुए उन्होंने कहा था – प्रत्येक जाति और प्रत्येक धर्म जाति और धर्मों के साथ आदान प्रदान करेगा, कुछ लेगा और कुछ देगा। किन्तु प्रत्येक अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करेगा और अपनी अपनी अन्तर्निहित शक्ति के अनुसार आगे बढ़ेगा। उनका आदर्श था – “युद्ध नहीं सहयोग, ध्वज नहीं एकात्मता, भेद नहीं सामंजस्य।”
उपसंहार
यह दिग्विजयी संन्यासी, मानवता का उपासक और प्रेमी ज्ञान का प्रकाश पंज, दिव्य शान्तियों के आलोक से विभूषित ब्रह्मचारी केवल 39 वर्ष की अल्पायु में ब्रह्मलोक की ओर महाप्रयाण कर गया। मां भारती के इस पुत्र को देशवासियों ने इसकी इस विशाल प्रतिमा ‘परिव्राजक की प्रतिमा’ स्थापित कर अपने श्रद्धा सुमन और भावाजलियां इसके चरणों में निवेदित की।
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