Essay on Literature and Society in Hindi साहित्य और समाज पर निबंध
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Essay on Literature and Society in Hindi 600 Words
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और साहित्य उसकी स्वस्थ सामाजिकता की रचनात्मक अभिव्यक्ति। साहित्य और समाज का संबंध अतीव प्राचीन और घनिष्ठ है। विश्व के किसी भी खण्ड, क्षेत्र और भाग में रचे गये साहित्य को देख लीजिए, आप निर्विवाद रूप में उसकेकेन्द्र में समाज और व्यक्ति को ही देखेंगे। अर्थात् साहित्य और समाज परस्पर एक-दूसरे से अनिवार्य रूप से जुड़े हुए हैं। समाज जहाँ एक ओर साहित्य के लिए अनिवार्य है, वहीं दूसरी ओर साहित्य की जरूरत समाज को अपने सबलीकरण और विकास के संदर्भ में होती है। हिन्दी के मूर्धन्य आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस संदर्भ में ठीक ही लिखा है: ‘साहित्य केवल बुद्धि का विकास नहीं है। वह जीवन की वास्तविकता की उपेक्षा करके सजीव नहीं रह सकता।” प्रो महेन्द्र रायजादा लिखते हैं: “साहित्य के साथ व्यक्ति और समाज जुड़ा हुआ है। अतः साहित्य में व्यक्ति के आत्म-निवेदन के साथ व्यक्ति और समाज के विचारों और भावों की अभिव्यक्ति भी होती है।” सामाजिक जीवन, आचार-विचार, व्यवहार, मूल्य, रीतिनीति, ज्ञान, धर्म और संस्कृति आदि साहित्य के अंग-प्रत्यंग यानि उसके भाव-पक्ष और कला पक्ष को निर्मित करते हैं। वहीं साहित्य भी अपनी सांस्कृतिक-चेतना के ठोस धरातल पर खड़ा होकर पुन: उसी व्यापक मानव-समाज को संस्कारित और परिष्कृत करता है। किन्तु साहित्य और समाज की यह घनिष्ठता उद्देश्यविहीन न होकर सामाजिक और मानवीय कल्याण के वृहद् उद्देश्यों से संयोजित होती है। उदाहरणत: ‘साहित्य’ शब्द में निहित शाब्दिक अर्थ चेतना को देखा जा सकता है। साहित्य शब्द संस्कृत के ‘सहित’ शब्द से लिया गया है। ‘साहित्य’ अर्थात् ‘स+हित’। जिसमें व्यापक मानव समाज के कल्याण और हित की भावना प्रधान है। अर्थात् साहित्य मानव के सामाजिक, सांस्कृतिक, और धार्मिक आदि मूल्यों और हितों की रचनात्मक अभिव्यक्ति होता है।
प्रो रायजादा ने इस संदर्भ में लिखा है: “साहित्य समाज एवं देश विशेष की सांस्कृतिक गतिविधियों को सुरक्षित रखता है। प्राचीन यूनानी और रोमन संस्कृति का स्वरूप वहां के प्रसिद्ध ग्रंथ इलियड और ओडिसी के द्वारा हमें ज्ञात होता है। हमारे देश के प्राचीन ग्रंथ रामायण और महाभारत राम और कृष्ण के काल की संस्कृति का दिग्दर्शन करने में समर्थ हैं।” साहित्य पर समाज के व्यापक प्रभाव को भारतीय साहित्य के इतिहास के माध्यम से बहुत ही सहज रूप में देखा जा सकता है। भारत का संस्कृत-साहित्य हो, प्राकृत साहित्य हो, अपभ्रंश या आदिकालीन साहित्य हो या फिर भक्तिकालीन अथवा रीतिकालीन साहित्य हो – सभी सामाजिक जीवन से अपने गहरे संबंध को स्वयं ही अभिव्यंजित करते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास’ में साहित्य को जनता की चित्तवृति का संचित प्रतिबिंब कहा है। यानि साहित्य अपने देश, जाति एवं समाज की भावना, विचार और प्रवृत्तियों का रचनात्मक लेखाजोखा प्रस्तुत करता है। हिन्दी साहित्य का आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल भारतीय समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक आदि के उत्कर्ष और अपकर्ष का सामूहिक दस्तावेज है।
इस्लामी आक्रमणकारियों द्वारा छीनी गई राजनैतिक स्वतंत्रता से उत्पन्न क्षोभ और उसे पुन: प्राप्त करने के भारतीय समाज के वीरगाथात्मक प्रयत्नों से हिंदी का आदिकालीन साहित्य भरा पड़ा है। सारांश यह है कि जिस समय से हमारे हिन्दी साहित्य का अभ्युदय होता है, वह लड़ाई का समय था। वीरता के गौरव का समय था। भारतीय समाज की यह राजनैतिक स्थिति परिवर्तित न हो सकी, तो देश में मुसलमानों का राज कायम हो जाने पर हिन्दू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया। फलत: भारतीय समाज की इस राजनैतिक पराधीनता से उसके सम्मुख धार्मिक एवं सांस्कृतिक समस्याएं भी उठ खड़ी हुईं।
हिन्दी भक्तिकालीन-साहित्य भी भारतीय समाज की इसी कठोर वास्तविकता से संबंद्ध रहा है। भक्तिकालीन साहित्य में अभिव्यक्त विराट सांस्कृतिक चेतना, वस्तुत: तत्कालीन भारतीय समाज की प्रबल आकांक्षा थी। आचार्य द्विवेदी ने ठीक ही लिखा है: ‘सारे मानव-समाज को सुंदर बनाने की साधना का नाम ही साहित्य है।’
इस प्रकार साहित्य न केवल अपने समाज की वस्तुस्थिति को प्रकट करता है, अपितु वह उपयुक्त मार्गदर्शन भी करता है और वस्तुत: यही साहित्य अपने समाज का सच्चा दर्पण कहलाने का अधिकारी बनता है।
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Essay on Literature and Society in Hindi 700 Words
साहित्य आत्माभिव्यक्ति अथवा आत्म प्रकाशन की एक सरल भंगिमा है। यह समाज की अभिव्यक्ति है जो कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, पत्र-पत्रिका आदि अनेक धाराओं में समाज के मध्य अवतरित है। साहित्य के माध्यम से समाज के सुख-दु:ख, पीड़ा, वेदना आदि सभी मनोभाव प्रतिबिंबित होते हैं। समाज की प्रगति का संपूर्ण लेखा-जोखा, साहित्य में निहित होता है।
साहित्य अर्थात् ‘सभी के हित में’ या दूसरे शब्दों में, साहित्य की संरचना सम्पर्ण मानव-समाज के हित के लिए की जाती है। इस दृष्टि से साहित्य और समाज का अटूट सम्बन्ध है। साहित्य का सृजन मनुष्य द्वारा होता है और मनुष्य समाज के निर्माण की कड़ी है। एक साहित्यकार के मनोभाव, उसके विचार, संवेदना, संदेश तथा उसकी आकांक्षाएं सभी उसके सामाजिक परिवेश की देन होती है।
किसी भी साहित्य की उन्नति समाज की उन्नति है। उन्नत साहित्य और समाज दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। साहित्य एक ओर जहां समाज की मानसिक दशा व उसके विकास का मापदंड होता है वहीं दूसरी ओर समाज भी अपने विकास व अपनी संपूर्ण आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए साहित्य पर निर्भर है। एक साहित्यविहीन समाज को सभ्य समाज की संज्ञा नहीं दी जा सकती क्योंकि साहित्य ही समाज में रहने वाले मनुष्यों को पृथ्वी पर रहने वाले अन्य जीवों से विशिष्टता प्रदान करता है।
यदि संसार के इतिहास पर अपनी दृष्टि डालें तो हम पाते हैं कि समय के साथ विभिन्न राष्ट्रों व समाजों पर तत्कालीन साहित्य का प्रभाव अवश्य ही पड़ा है। महान् लेखक रस्किन और इंग्लैंड की समृद्धि के इतिहास को पृथक नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार फ्रांस की क्रांति के लिए रूसो और वाल्टेयर की लेखनी का महत्त्वपूर्ण योगदान है। लेनिन की विचारधारा ही साम्यवादी रूस के गठन का आधार बनी है। गाँधी जी ने ‘इंडियन ओपीनियन’ नामक पत्रिका का प्रकाशन कर दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों तक अपनी बात पहुंचाई। इसका लाभ यह हुआ कि वहां के शासक वर्ग के लोग भी गांधी जी के विचारों से अवगत होते गए। प्रेमचंद के उपन्यासों एवं कहानियों के कारण सामाजिक जागरूकता में वृद्धि हुई जिससे स्वतन्त्रता आन्दोलन में काफी सहायता मिली।
इसी प्रकार हिन्दी साहित्य के प्रभाव को भी हिन्दुस्तान के इतिहास के साथ स्पष्ट देखा और अनुभव किया जा सकता है। रासो साहित्य में तत्कालीन समाज की युद्धोन्मत्त हुंकारों व तलवार की झंकार को स्पष्ट महसूस किया जा सकता है। कबीर, तुलसी व सूरदास आदि भक्ति धारा के कवियों ने भक्ति-युग की पीड़ा, पराजय व उत्पीड़न की कुंठाओं को आत्मसात् कर भक्तियुगीन साहित्य को जन्म दिया। रीतिकालीन द्वारा श्रृंगार रस से ओतप्रोत साहित्य की रचना ने तत्कालीन समाज को कुंठा और अवसाद से ऊपर उठने में सहायता की। इसी प्रकार आधुनिक साहित्य में सन्निहित देश-प्रेम, प्रगतिवादिता व क्रांति का स्वर आधुनिक और सामाजिक दशा को प्रतिबिंबित करता है। अतः हिन्दी साहित्य अपनी समस्त विधाओं के साथ देश की प्रगति की प्रत्येक कड़ी से जुड़ा हुआ है।
अत: साहित्य और समाज को कभी भी पृथक करके नहीं देखा जा सकता। जो साहित्य सामाजिक दशा को प्रतिबिंबित नहीं करता वह वैयक्तिक प्रतिक्रियाओं, कुंठाओं व मनोदशा का एकांत प्रलाप ही हो सकता है। सामाजिक अपेक्षाओं से रहित साहित्य चिरंजीवी व प्रभावशाली नहीं हो सकता है। ऐसा साहित्य जन-मानस के लिए कौतूहल व मनोरंजन की सामग्री तो बन सकता है परन्तु समाज की आत्माभिव्यक्ति की लालसा को शांत नहीं कर पाता है अत: साहित्य और समाज का परस्पर अटूट संबंध है। दोनों के मध्य एक अटूट संबंध है, का प्रकटीकरण साहित्य की विभिन्न शैलियों द्वारा होता रहा है।
समाज से प्रभावित होकर साहित्य की सर्जना होती है और साहित्य ही समाज को प्रभावित करता है। जिस साहित्य में मानव समाज का यथार्थ चित्रण नहीं होता वह साहित्य शीघ्र ही विस्मृति के अन्धकार में खो जाता है। अतः अपने समकालीन समाज की अभिव्यक्ति ही साहित्य को प्राणवत्ता प्रदान करती है। जिस प्रकार जल से तरंगों को अलग नहीं किया जा सकता उसी प्रकार समाज से साहित्य को अलग नहीं देखा जा सकता।
साहित्य अपने समाज का दर्पण होता है जिसमें समाज प्रतिबिम्बित होता है। ग्लैडस्टोन ने लिखा है : बादल समुद्र से खारा पानी ग्रहण करता है और मीठा करके बरसा देता है। ऐसे ही साहित्यकार समाज की कटुताओं को ले कर साधारण समाज में उसे मधुर भावों में वितरित करता है। सृजन के माध्यम से समाज पर अधिक गंभीर एवं स्थायी प्रभाव पड़ता है। उस प्रभाव से कई प्रकार की मानसिकता और चेतना जन्म लेती है जो समाज के लिए मंगलकारी होती है।
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