Essay on Nuclear Power in Hindi परमाणु शक्ति पर निबंध

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Essay on Nuclear Power in Hindi

पोखरण परीक्षण और आर्थिक प्रतिबंध

सन् 1998 में राजस्थान के पोखरण नामक स्थान पर परमाणु परीक्षण करके भारत ने पूरे विश्व को चौंका दिया। हांलाकि इससे पूर्व भारत परमाणु परीक्षण कर चुका था, किंतु पोखरण का महत्व कुछ ज्यादा ही प्रभावशाली था। इसका स्पष्ट प्रमाण यह है कि इसने विश्व के अनेक देशों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रतिक्रिया करने पर विवश कर दिया। यह प्रतिक्रिया इतनी तीखी थी कि कई देशों ने भारत पर आर्थिक-प्रतिबंध भी लगा दिये । आर्थिक-प्रतिबंध लगाने वाले देशों में अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया, नार्वे, स्वीडन आदि देश प्रमुख थे। इन देशों द्वारा लगाए गए आर्थिक-प्रतिबन्धों का जो प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ना था सो तो पड़ा किन्तु इनके कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में कोई बड़ी अव्यवस्था नहीं पैदा हो सकी।

पोखरण परीक्षण को तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रीय सुरक्षा और सम्मान के साथ जोड़कर देखा। उन्होंने यह स्पष्ट रूप से घोषित किया कि भारतीय समाज, जिन सामरिक स्थितियों और परिस्थितियों को उभरते आज देख रहा है उससे इस प्रकार के परमाणु परीक्षणों को आयोजित करना भारत की अनिवार्यता है। वह भारतीय सुरक्षा के लिए नितांत आवश्यक कहा जा सकता है।

भारत के दोनों पड़ोसी देश पाकिस्तान और चीन अविश्वास पात्र और संदेह से भरे हुए हैं। दोनों ही देशों ने समय-असमय भारतीय सीमा का अतिक्रमण किया है। भारत पर अनावश्यक रूप से युद्ध का भार थोपा है। अत: इन स्थितियों को मद्देनजर रखते हुए भारत के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह अपने आपको सैन्य दृष्टि से ज्यादा सबल, मजबूत और सुदृढ बनाए। ताकि इन देशों की दोबारा यह हिम्मत न हो सके कि वे भारतीय सीमा का अतिक्रमण करें।

भारत की विदेश नीति शांति और सौहार्द की नीति रही है। किन्तु वैश्विक परिदृश्य को देखते हुए भारतीय हित में जिन-जिन कार्यो की अनिवार्यता टयगोचर होती है, भारत को वे सब कार्य किसी भी कीमत पर करने ही चाहिए। इन कार्यों को करने से किसी प्रकार के आर्थिक प्रतिबंध भारत को नहीं रोक सकते हैं।

पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका, नार्वे, स्वीडन आदि देशों ने भारत पर जो आर्थिक प्रतिबंध लगाए, वो भारत के लिए कोई अस्वाभाविक बात नहीं थी। ये देश भारतीय संघ की सबलता को किसी प्रकार से स्वीकारने की हिम्मत नहीं दिखला सकते। क्योंकि भारत के
प्रति इनका दृष्टिकोण साम्राज्यवादी और शोषण परक रहा है।

प्रतिबंध लगाने में सर्वाधिक तत्परता जापान ने दिखलायी। उसने अनेक प्रकार से अपने प्रतिबंधों को प्रभावी बनाने का प्रयास किया। जापान ने 35 मिलियन येन की जो सहायता राशि भारत को देनी थी उस पर पूर्णत: प्रतिबंध लगा दिया। उसने इसी के साथ उन ऋणों पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया, जो नये-नये स्वीकार किये थे। इसी के साथ जापान ने अन्र्तराष्ट्रीय विकास मंच की टोकिओ में होने वाली एड इंडिया की बैठक को भी आकस्मिक रूप से स्थगित कर दिया।

जर्मनी ने 300 मिलियन डॉलर, स्वीडन ने 119 मिलियन डॉलर, डेनमार्क ने 28 मिलियन क्रोनर की राशियों पर प्रतिबन्ध लगा दिये। अमेरिका ने भी 207 मिलियन डालर की स्वीकृत धनराशि पर प्रतिबंध लगा दिया।

ऐसा नहीं था कि सारे विश्व में इस कार्य की निन्दा और लगाए जा रहें आर्थिक प्रतिबन्धों की सराहना ही हो रही थी। अपितु फ्रांस, दक्षिण-अफ्रीका, कनाडा, आदि कुछ ऐसे देश थे जिन्होंने इस प्रकार से भारत पर लगाए जाने वाले आर्थिक प्रतिबन्धों का विरोध भी किया और उन्हें हास्यास्पद करार दिया।

वस्तुतः आज विश्व जिस वैश्विक अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहा है, उसमें इस प्रकार के आर्थिक प्रतिबन्धों का कोई महत्व नहीं है। विश्व व्यापार संगठन के अनुसार कोई भी देश व्यक्तिगत स्तर पर इस प्रकार के प्रतिबन्धों को नहीं लगा सकता।

हुआ भी वही, भारत पर लगाए गए ये सभी प्रतिबन्ध धीरे-धीरे हटा लिए गये और सभी कुछ सहज हो गया।

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परमाणु शक्ति और विश्वशान्ति

रुदरफोर्ड तथा अन्य वैज्ञानिकों ने परमाणु के केन्द्र तथा उसके बाहर उपस्थित कणों की खोज की थी। परमाणु के नाभिक में न्यूट्रॉन तथा प्रोट्रॉन होते हैं और बाहर के कक्ष में इलेक्ट्रॉन होते हैं। ये इलेक्ट्रॉन जो बाहरी कक्ष की ओर होते हैं रासायनिक क्रियाओं के दौरान महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं। आईन्स्टीन द्वारा परमाणु के अवयवों में विघटन के बाद जर्मन वैज्ञानिकों ने परमाणु बम बनाने के प्रयास किए। 1939 में विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. ओपेन हाइमर ने परमाणु बनाने के सम्बन्ध में अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट को जानकारी दी थी। विश्व में सर्वप्रथम अणु विस्फोट 13 जुलाई, 1944 में अमेरिका द्वारा किया गया था। इसके पश्चात् ही रूस, फ्रांस जैसे देशों ने अनुशक्ति प्राप्त की। भारत ने राजस्थान के पोखरण नामक स्थान में सन् 1974 को पहला परमाणु विस्फोट किया था।

यह कितनी विचित्र बात है कि परमाणु बम के साथ जब हम शान्ति का नाम लेते हैं तो विरोधाभास प्रतीत होता है। परमाणु के नाम से ही प्रतीत होता है कि वह विनाश का ही कारण है। हम कहते हैं कि परमाणु शक्ति और विश्वशान्ति, परन्तु यह भी स्पष्ट है कि यदि मनुष्य इसका दुरुपयोग करने लगे तो यह शक्ति अशान्ति और आतंक का भी कारण है। वस्तुतः सृष्टि का हर पदार्थ ही शुभत्व और अशुभत्व का कारण है। जहां विष मृत्यु का कारण है, वहां उसका ठीक किया हुआ प्रयोग जीवन शक्ति भी प्रदान करता है। घी एक पौष्टिक पदार्थ है, पर उसका दुरुपयोग मानव शरीर में रोग भी पैदा कर देता है। यदि परमाणु शक्ति का सदुपयोग किया जाए तो विश्व में कोई देश निर्धन नहीं रह सकता। बंजर भूमि हरियाली में बदली जा सकती है। बसुन्धरा शस्य श्यामला बन सकती है। यदि इसका दुरुपयोग किया जाए तो शायद विश्व का कोई भी प्राणी नहीं बच सकता।

आज विश्व की मानवता त्रस्त हो गई है। विश्वव्यापी दो महायुद्धों से मानवता इतनी भयभीत नहीं थी, इतनी आतंकित और त्रस्त नहीं हुई थी जितनी आज आंतकित है। तृतीय महायुद्ध का नाम लेते ही विश्व भर की मानव जाति भयभीत हो उठती है युद्ध रोकने का उपाय करने लगती है। यह सब इसलिए कि परमाणु शक्ति तलवार मानव जाति के सिर पर लटक रही है। आज के विज्ञान का सफल प्रयोग परमाणु शक्ति है।

सब से पहले 1945 में अमेरिका ने जापान पर दो परमाणु बम गिराए थे जो आज के परमाणु बमों के सामने एक खिलौना थे। उन दो बमों से जापान के दो नगर हीरोशिमा और नागासाकी क्षण भर में पूर्णतयः समाप्त हो गए थे। डेढ़ लाख के लगभग जनसंख्या अकाल के गाल में चली गई थी। दोनों नगरों में बड़े-बड़े गड्डे पड़ गए थे। 200 मील तक के क्षेत्र में इमारतें खिड़कियां झनझना उठी थीं। कितने ही लोग अपंग हो गए थे। मानवता ने ऐसा विनाशकारी रूप विश्व के इतिहास में शायद पहले कभी नहीं देखा था।

युद्ध समाप्त हो गया परन्तु मानव की दानवता समाप्त न हो पाई। बड़े-बड़े राष्ट्र इस परमाणु शक्ति की खोज में जुट गए। धीरे-धीरे अनेक राष्ट्रों ने अणु बम बनाने में सफलता भी प्राप्त की। इन देशों में इंग्लैंड, अमेरिका, फ्रांस, रूस और चीन के नाम उल्लेखनीय हैं। इन पांच राष्ट्रों-अमरीका, इंग्लैंड, फ्रांस, चीन और रूस ने परस्पर होड़ करते हुए परमाणु शक्ति में बहुत तरक्की कर ली है।

इस शक्ति के घातक प्रयोग का निषेध होना चाहिए। इस सम्बन्ध में सभी राष्ट्रों में परस्पर विचार चलता रहता है क्योंकि सभी राष्ट्र इस शक्ति से भयभीत हैं।

कोई भी राष्ट्र चाहे कितना भी शक्ति सम्पन्न क्यों न हो, अपने राष्ट्र का भय तो उसे भी है। इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ में बहुत बार यह प्रशन उठा कि परमाणु शक्ति का निषेध होना चाहिए। जब भी बड़े-बड़े राष्ट्रों में निरस्त्रीकरण की वार्ता चली, सबसे पहले परमाणु शक्ति के निषेध का प्रशन उठा। सभी राष्ट्रों ने एक स्वर से इसका विरोध किया, उन राष्ट्रों ने भी जो परमाणु शक्ति की होड़ में लगे हुए हैं।

सन् 1955 में जेनेवा में पहला सम्मेलन हुआ और यह सम्मेलन बहुत सफल रहा। इसमें सभी ने कहा कि परमाणु शक्ति पर रोक लगानी चाहिए। उसके बाद 21 अक्तूबर, 1957 को फिर इसी समस्या पर विचार किया गया। इंग्लैंड, अमरीका और रूस इस बात के लिए मान गए कि परमाणु अस्त्रों को कम करना चाहिए। मानव जाति प्रसन्न हो उठी, लोग आशान्वित हो उठे, परन्तु मार्च, 1961 में जब पुनः सम्मेलन हुआ तो इंग्लैंड और अमरीका ने कुछ ऐसी शर्ते रखीं जिन्हें रूस ने नहीं माना। आशा धूमिल हो गई लेकिन उसके बाद इंग्लैंड, रूस और अमरीका ने वायुमण्डल परीक्षण न करना मान लिया। फ्रांस ने भी इसे मंजूर न किया।

18 मई, 1974 को प्रात: 8 बजे राजस्थान के पोखरण नामक स्थान में भारत ने सफल भूमिगत परमाणु शक्ति विस्फोट किया। इस तरह अब परमाणु शक्ति का प्रयोग करने वाले – अमरीका, इंग्लैंड, फ्रांस, रूस, चीन, भारत तथा पाकिस्तान हैं। बाकी बहुत से देश भी जैसे संयुक्त अरब गणराज्य, आस्ट्रिया आदि इस ओर प्रयत्नशील हैं। ऐसा लगता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में जाकर निरस्त्रीकरण और परमाणु शक्ति के निषेध पर लम्बे-लम्बे भाषण तो सभी देते हैं और बहुत बार इस तरह की सन्धियां भी करते हैं परन्तु भीतर ही भीतर परमाणु शक्ति की तैयारी में सभी लगे हुए हैं। परन्तु एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जब परमाणु शक्ति विश्व में शक्ति, समृद्धि और कल्याण का साधन बनेगी।

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भारत का प्रथम अणु विस्फोट

जिस समय भारत ने अपनी स्वतंत्रता को विदेशी हाथों से छीना था वह समय वैश्विक स्तर पर अत्यंत तनाव और शंकाओं से भरा हुआ समय था। दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हो गया था और विश्व की रग-रग में अशांति और एक-दूसरे के प्रति व्यापक संदेह की भावना भर गयी थी। एक ओर जहाँ विश्व इस प्रकार की अशांति और संदेह की विकट भावना से भर गया था, वहीं दूसरी ओर उसे और भी बढ़ाने का कार्य विश्व के वर्चस्वादी देश नाना प्रकार के हथियारों का अविष्कार और परीक्षण करके कर रहे थे। अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, चीन और फ्रांस इन्हीं वर्चस्ववादी देशों में सम्मिलत थे।

जिस विज्ञान को आधुनिक मानव की विजय यात्रा का प्रतीक और प्रतिबिंब माना गया था, जिसके बारे में यह सोचा गया था कि उससे मानव एक नये जगत का उद्घाटन और अवलोकन कर सकेगा, वही विज्ञान आज इन वर्चस्ववाली देशों का गुलाम हो चुका था। उसका उपयोग ये देश मानव-हितों के कार्यों में न करके, विनाशकारी पदार्थों और हथियारों की खोज और निर्माण में कर रहे थे। इस दौरान विज्ञान का एक मात्र ‘अर्थ तकनीकी’ ही हो गया था, जिसका प्रयोग मारक हथियारों को और भी ज्यादा मारक क्षमता प्रदान करने मात्र से था। तो यह विडम्बनापूर्ण स्थिति थी जिसने वैश्विक स्तर पर अशांति और शंका को जन्म दिया था।

भारत ने अपनी स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही अपने बहुआयामी विकास को आयोजित करना, अथवा उन समस्त प्रयासों को एक प्रभावशाली रूपाकार प्रदान करना आरम्भ कर दिया था। हमारे प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने, जो स्वयं उच्च शिक्षा से सम्पन्न और समृद्ध थे, विज्ञान के विकास को भारत के विकास के लिए नितांत आवश्यक माना। उन्होंने जितना व्यापक प्रयास भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थक नीतियों को निर्मित करने का किया, उतना ही व्यापक और बृहद प्रयास उन्होंने भारत में वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान को समृद्धशाली रूप से आयोजित करने का भी किया। इसमें उन्होंने जिस एक अन्य महान भारतीय विभूति की सहायता और सुयोग्य क्षमता को प्राप्त किया, वह महान भारतीय विभूति थे- डॉ भाभा, जिनकी बुद्धि और आत्मा दोनों व्यापक रूप से वैज्ञानिक चेतना से समृद्ध थे।

पंडित जवाहर लाल नेहरू और डॉ भाभा के महनीय और अविस्मरणीय प्रयासों से जिस वैज्ञानिकता की चेतना का अविर्भाव भारत में हुआ था, उसे विकसित और वैश्विक गुणवत्ता के स्तर तक ले जाने का कार्य उन महान भारतीय बुद्धिजीवियों ने किया, जिन्हें डॉ भाभा का प्रभावकारी सहचर्य प्राप्त हुआ था। वस्तुत: भारत ने जिस वैज्ञानिक और तकनीकी विकास को अपना लक्ष्य बनाया था, वह वैज्ञानिकता मानव तथा नर संहार के स्थान पर उसके अप्रतिम मानवीय एवं भौतिक विकास का विकास का लक्ष्य रखती थी। भारत विश्व के ऐसे देशों में है जिसने अपनी वैज्ञानिक गतिविधियों को बाधित नहीं होने दिया और न ही मानवीय-अलगाव को उसमें निहित होने दिया। भारतीय वैज्ञानिकता मूल्यों और आदर्शों पर अवलंबित है।

भारत के प्रतिनिधियों ने समय-समय पर विश्व को इस बात से अवगत कराया है कि भारत जिस परमाणु-अणु शक्ति का विकास कर रहा है, उसका उद्देश्य हथियारों की बाढ़ लाना न होकर मानव-सभ्यता हेतु आवश्यक संसाधनों के वैकल्पिक स्रोतों की खोज और विकास करना है। किन्तु विश्व के वर्चस्ववादी देशों ने भारत की इस शुभेच्छा का भी सम्मान कभी नहीं किया।

भारत ने अणु-शक्ति के संदर्भ में सर्वप्रथम सफलता सन् 1974 में 17 मई को प्राप्त की जब राजस्थान के बाड़मेर जिले में उसने अपना पहला परमाणु परीक्षण सफलता के साथ सम्पन्न किया था। इसकी वैश्विक प्रतिक्रिया व्यापक रूप से हुई थी किन्तु इसका उद्देश्य परमाणु ऊर्जा आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ। सेठना ने कुछ इस प्रकार स्पष्ट कियाः “टी-एन-टी शक्ति वाला यह विस्फोट एक सफल 100 प्रतिशत युद्ध ईंधन तथा भारतीय सामग्री एवं तकनीक पर आधारित था। यह पूर्णत: क्रियान्वित सीमित विस्फोट था। इसका उद्देश्य गहराई तक धंसने और चट्टान तोड़ने की शक्ति मापना था जिसमें वह पूर्णत: सफल रहा।”

इसके बाद भारत ने स्वयं को परमाणु-शक्ति संपन्न करने के नियंत्रित और मानवीय उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए निरन्तर प्रयास जारी रखा और पर्यावरण इसका एक अन्य प्रमाण है। वस्तुतः परमाणु शक्ति से सम्पन्न होना आज विश्व की नितांत अनिवार्यता है और भारत इस अनिवार्यता को ध्यान में रखकर ही कार्य कर रहा है।

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परमाणु शक्ति और भारत

आज विश्व की स्थितियां व्यापक रूप से परिवर्तित हो रही हैं। औपनिवेशिकता का दौर फिर आता हुआ दिखाई दे रहा है। आज शक्तिशाली देश स्वयं को और भी ज्यादा शक्तिशाली बनाने की चेष्टा कर रहे हैं। अपनी इस चेष्टा से उन अनेकानेक विकासशील एवं अविकसित देशों के समक्ष भय की स्थिति प्रस्तुत कर रहे हैं शक्तिशाली देश स्वयं को नाना भांति की आणविक शक्तियों से समुन्नत करता है, तो इससे वह विकासशील देशों के सामने कई प्रकार की समस्याएं भी खड़ा करता है। अमेरिका आजकल वैश्विक स्तर पर बहुत कुछ ऐसा ही कर रहा है। उसने स्वयं को नाना प्रकार की आणविक शक्तियों से समृद्ध कर लिया है। उसके लिए परमाणु शक्ति का एकमात्र उद्देश्य है, शत्रु अथवा अपने विरोधी देश को शक्ति बल के माध्यम से दबाकर रखना।

आज भारत विश्व का छठवाँ ऐसा देश है, जिसके पास अणु-शक्ति का प्रचुर संसाधन है। आज भारत ने स्वयं को इस दृष्टि से अत्यधिक विकसित कर लिया है। किन्तु, भारत की नीति किसी प्रकार के साम्राज्यवादी या उपनिवेशवादी मनोभावों एवं रणनीतियों से प्रभावित नहीं है। भारत की आन्तरिक नीति एवं विदेश नीति विश्व मानवता की विराट भावना को पोषित करने वाली नीति है। भारत की विदेश नीति किसी अन्य देश का अर्थिक, राजनैतिक अथवा किसी अन्य प्रकार का शोषण करने का उद्देश्य ले कर चलने वाली नीति नहीं है। अपितु यह एक ऐसी नीति है जो तटस्थ की चेतना रखती है। जो विश्व को गुटों में बांधने का विरोध करती है। भारत की विदेश नीति समस्त विश्व को समानता के आधार पर विकसित होने की उपयुक्त स्थितियों की वकालत सदा से करती रही है। उसने विश्व को ‘शक्ति संगठन की भूमि बनाने वालों के साथ किसी प्रकार का संबंध नहीं रखा है। किसी देश विशेष में शक्ति के केन्द्रीयकरण का विरोध भारत सदा करता रहा है।

आज विश्व का प्रत्येक देश स्वयं को परमाणु शक्ति से लगभग भर लेना चाहता है, ताकि वह पूरे विश्व पर अपना वर्चस्व स्थापित कर सके। भारत ने इस दृष्टिकोण का समर्थन कभी भी नहीं किया है। हालांकि ऐसा नहीं है कि भारत ने स्वयं को ‘परमाणु अनुसंधान से निरपेक्ष रखा है। स्वाधीनता के कुछ समय पश्चात ही भारत ने इस संर्दभ में अपनी भूमिका को बेहद स्पष्ट रूप से प्रस्तुत कर दिया था। होमी जहाँगीर भाभा की अध्यक्षता में एक परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना की गई। भाभा ने वैश्विक स्तर पर भारत की पहचान को विज्ञान के क्षेत्र में स्थापित किया। परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना सन् 1948 में ही की गयी थी, किन्तु आरम्भ में इस आयोग की भूमिका एक सलाहकार समिति तक ही सीमित थी। किन्तु सन् 1954 में इसके अधिकारों एवं शक्तियों में प्रभावशाली वृद्धि की गई और इस विभाग को एक स्वतंत्र निकाय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। डॉ। भाभा के कार्यकाल में ही बम्बई के निकट ‘टाम्बे’ में एक परमाणु ऊर्जा केन्द्र स्थापित किया गया। इस परमाणु ऊर्जा केन्द्र का उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के कर कमलों द्वारा किया गया था।

भारत ने परमाणु ऊर्जा अनुसंधान के क्षेत्र में अत्यधिक प्रगति की है। किन्तु भारत का दृष्टिकोण परमाणु-शक्ति को लेकर बाकी दुनिया से प्राय: भिन्न है। भारत ने परमाणु शक्ति को किसी भी प्रकार के विनाश कार्य के लिए अर्जित नहीं किया है अपितु उसका उद्देश्य इस परमाणु शक्ति का नाना भांति के विकास कार्यों में प्रयुक्त करने का रहा है। मानव-जीवन का विनाश नहीं अपितु उसका सम्पूर्ण विकास ही भारत का मूल उद्देश्य रहा है। भारत ने बदलती वैश्विक स्थितियों, परिस्थितियों का अति सूक्ष्म अवलोकन किया और उसके संदर्भ में स्वयं को एक ऐसी स्थिति तक पहुँचाने का प्रयास किया कि भारत अपने मानवीय दृष्टिकोण को और भी बलपूर्वक वैश्विक परिदृश्य पर रख सके। पूर्व प्रधानमंत्री ने ‘पोखरण’ में परमाणु परीक्षण कर विश्व को एक बारगी तो चौंका ही दिया, ‘भारत की सैन्य क्षमता इसके बाद अत्यधिक मजबूत हो गयी’ -इससे इंकार नहीं किया जा सकता।

किन्तु यह भारतीय इतिहास में परमाणु-शक्ति के सफल परीक्षण का कोई पहला मौका नहीं था। इससे पहले, सन् 1974 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के शासन काल में भी एक परमाणु परीक्षण किया गया था। इससे भारत, अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन के बाद छठवाँ ऐसा देश बन गया था, जिसके पास परमाणु शक्ति थी।

भारत ने कभी भी इस शक्ति का दुरुपयोग करने की चेष्टा नहीं की, उसने सदैव इस शक्ति का विकास और रचनात्मक कार्यों में ही किया। इसके द्वारा तारापुर में बिजलीघर की स्थापना की गई जिससे बड़े पैमाने पर बिजली उत्पादन की संभावनाएं उभरकर सामने आयीं। तारापुर के अलावा मद्रास और राजस्थान में भी इसी प्रकार के केन्द्र स्थापित किए गये। उपग्रह आदि के क्षेत्र में भी इसका उपयोग किया गया। इसी के साथ परमाणु शक्ति का उपयोग जीवन के अन्य अनेक पक्षों में भी किया गया, जिसने मानव-जीवन को अधिक समृद्ध और संपन्न बनाने में भूमिका निभाई। इस दृष्टि से भारत और परमाणु शक्ति का सबंध अत्यधिक विशिष्ट कहा जा सकता है।

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