Essay on Reservation in Hindi आरक्षण पर निबंध
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Essay on Reservation in Hindi
आरक्षण: लाभ और हानि
आरक्षण को भारतीय समाज का सबसे अधिक ज्वलंत मुद्दा कहा जा सकता है। प्रायः विद्वानों ने समय-समय पर इसके महत्व को और इसके दुष्प्रभाव को रेखांकित किया है। आरक्षण का सवाल सर्वप्रथम भारतीय समाज में डॉ। भीमराव अम्बेडकर के द्वारा उठाया गया। उन्होंने अपनी प्रबल बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए नाना प्रकार से उसके परिवर्तनकारी स्वरूप का उद्घाटन किया और उसी समय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इसकी परिवर्तनकारी भूमिका में अपनी ऐतिहासिक आशंकाएं भी व्यक्त की थीं। इस प्रकार की परस्पर प्रतिकूल विचार-विमर्श की स्थिति भारतीय समाज, राजनीति और इतिहास में निरन्तर बनीं रहीं है।
सर्वप्रथम, हम आरक्षण की मूल अवधारणा को स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं। इसके बाद हम उसके लाभ और हानि पर विचार सहजता से कर सकेगें। आप सभी इस तथ्य से पूर्णत: परिचित होंगे कि भारतीय समाज प्राचीन समय से ही एक धार्मिक और जाति-आधारित व्यवस्था को स्वीकार करने वाला समाज रहा है। प्रायः विद्वानों ने भारतीय समाज को जातियों का समाज कहा है। हम भी इस वास्तविकता से अपना मुँह नहीं फेर सकते हैं। भारतीय समाज और सभ्यता के निर्माणक ऋषि-मुनियों ने मानव समाज को चार प्रमुख वर्षों में विभाजित किया था जिन्हें ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कहकर प्रायः सम्बोधित किया जाता है। इन संज्ञाओं को तात्विक रूप से वर्ण कहा जाता है, जाति नहीं। जाति इन वर्गों का विस्तृत रूप है।
एक ही वर्ण के लोगों में कई-कई जातियां हो सकती हैं, ऐसा हम प्राय: अपने हिन्दू समाज में देखते ही हैं। इसी कारण समय अति दीर्घ प्रवाह के उपरांत हमारा समाज हजारों जातियों वाला एक अत्यधिक संश्लिष्ट और भीतर से विभाजित समाज बन गया। आपने स्वयं भी कई बार अपने निवास स्थन के आस-पास या कुछ दूरी पर ऐसी छोटी-छोटी बस्तियों को अवश्य देखा होगा, जो गंदगी से बुरी तरह से भरे होते हैं और वहां रहने वाले लोगों ऐसे कार्यों में संलग्न देखा होगा जिन्हें आप कभी भी नही करना चाहेंगे। ये बस्तियों अछूतों, दलितों और शूद्रों की बस्तियां होती हैं। जिस समय भारतीय राजनीति में डॉ भीमराव अम्बेडकर का आविर्भाव हुआ, तो उन्होंने समग्र भारतीय समाज के समक्ष इन अछतों, दलितों और शद्रों की अत्यंत अभावग्रस्त और शोचनीय स्थिति को प्रस्तुत किया। उन्होंने इस समाज की दरिद्रता को देश के अन्य बड़े-बड़े नेताओं के समक्ष विचार हेतु रखा और प्रस्तावित किया। डॉ भीमराव अम्बेडकर ने इस समाज की दरिद्रता के प्रधान कारक के रूप में जिसका उल्लेख किया वह थी जाति । डॉ अम्बेडकर का यह स्पष्ट मानना था कि इस अछत समाज का जो भयावह आर्थिक शोषण आज तक होता रहा है, इस शोषण का प्रधान आधार जाति व्यवस्था ही रही है। अत: इस अछूत समाज में व्याप्त विकराल दरिद्रता को तोड़ने और समाप्त करने के लिए उन्हें उनकी इस जातिगत पहचान के रूप में ही संवैधानिक आरक्षण प्रदान किया जाए, ताकि दलितों और अछूत समाज के विकास को संवैधानिक और प्रशासनिक रूप से सुनिश्चित किया जा सके।
आजादी के बाद कानूनी तौर पर आरक्षण को भारत की केन्द्रीय राजनीति द्वारा ग्रहण किया। समय के साथ इसका लाभ भी हमें देखने को मिला है। आज इस समाज से संबंध रखने वाले लोग अनेकानेक सरकारी पदों पर कार्यरत हैं और अपने-अपने उत्तरदायित्वों का गम्भीरतापूर्वक पालन कर रहे हैं । किन्तु भारतीय समाज का एक बुद्धिजीवी वर्ग ऐसा भी रहा है, जिसने निरन्तर आरक्षण की संपूर्ण संकल्पना का ही विरोध किया है। उन्होंने इस संदर्भ में बल पूर्वक इस बात को रखा है कि आरक्षण की अवधारणा संवैधानिक रूप से असमानता की प्रस्तावना करती है। अत: आरक्षण की संकल्पना सामाजिक समानता और मानवीय बराबरी की चेतना को खण्डित करती है। इसलिए आरक्षण सम्पर्ण समाज की परस्पर सहभागिता के संदर्भ में भारतीय समाज के लिए स्वीकार्य नहीं है।
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