Grishma Ritu in Hindi Essay and Paragraph ग्रीष्म ऋतु पर निबंध
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Grishma Ritu in Hindi
ग्रीष्म ऋतु को कवियों, साहित्यकारों ने प्रकृति के उद्दण्ड एवं उद्दाम यौवन का प्रतीक कहा है। ऐसा इसलिए कहा गया है कि ऋतु चक्र में परिवर्तन के कारण सूर्य जब इस ऋतु में पहुँचता है, तब उसका तेज क्रमश: प्रखर से प्रखरतर होता जाता है। इतना प्रखर कि उसे सहन कर पाना अत्यंत मश्किल हो जाता है। शीत ऋत में व्यक्ति जहाँ एक के बाद एक गर्म वस्त्रों से अपने शरीर को ढकता ही जाता है, वहां ग्रीष्म के बढ़ते प्रकोप से वह शरीर पर पहने हुए अंतिम वस्त्र तक को भी उतार कर फेंक देना चाहता है। रीतिकाल के महाकवि बिहारी ने दोहे के माध्यम से इस ऋतु की प्रचंडता और प्रभाव का अत्यंत यथार्थ और सजीव वर्णन करते हुए लिखा है:
“कहलाने एकत वसंत, सर्प-मयूर, मृग-बाघ।
जगत तपोवन-सा कियो, दधि दीरध दाघ निदाघ॥”
अर्थात गर्मी के तेज से व्याकुल होकर परस्पर शत्रुता और विरोधी-स्वभाव रखने वाले भुजंग और मोर तथा हिरन और बाघ भी सारे वैरभाव भूल कर छायादार स्थान पर इकट्टे आ बैठते हैं। इस तरह ग्रीष्म के भयंकर ताप के प्रभाव ने मानो जगत का वातावरण तपोवन जैसा बना देता है। भाव यह है कि जैसे तपोवन में शत्रु-मित्र का भेद मिट कर, सप्रेम भावना का संचार हो जाता है, उसी तरह गर्मी की भीषणता भी समस्त भेद-भाव मिटा दिया करती है। ऐसा होता है ग्रीष्म ऋतु का प्रभाव । देशी महीनों के अनुसार वैशाख-ज्येष्ठ मास ग्रीष्म ऋतु के महीने माने जाते हैं। जैसे पौष के महीने में सर्दी अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है, उसी प्रकार ज्येष्ठ मास में गर्मी की भीषणता भी सीमा का अतिक्रमण कर जाती है। कविवर बिहारी ने इस ज्येष्ठ मास की गर्मी का भी सजीव तथा यथार्थ वर्णन करते हुए उचित ही लिखा है:
“बैठि रही अति सघन वन, पैठि सञ्जन तन मॉहै।
देखि दुपहरी जेठ को, छायहु चाहती छाँह॥”
अर्थात्, जेठ की भीषण गर्मी से भरी दुपहरी में छाया सिमट कर सघन जंगलों में, और परछाई शरीर में प्रविष्ट हो गई प्रतीत होती है। ऐसा लगता है कि जेठ की गर्मी से अपनी रक्षा करने के लिए, वृक्षों की छाया और शरीर की परछाईं भी छाँव की तलाश में कहीं कोने में जाकर छिप जाती हैं। भाव यह है कि एक तो ग्रीष्म ऋतु में छाया भी दुर्लभ हो जाती है, दूसरे उसमें भी शीतलता प्रदान करने की शक्ति नहीं रह जाती। ऐसी होती है ग्रीष्म ऋतु और उसका विषम प्रभाव।
ऋतु-क्रम के हिसाब से भारत में वसंत ऋतु के बाद ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है। इस ऋतु के प्रभाव से सूर्य का ताप बढ़ता ही जाता है। जैसे ही सुबह सूर्योदय होता है, गर्मी के कारण एक तरह की बेचैनी बढ़ने लगती है और दोपहरी ढलते-ढलते वह बेचैनी और गर्मी, अपने पूरे यौवन पर पहुँच जाती है। तब रास्ते पर चल पाना भी मुश्किल हो जाता है। प्यास के मारे गला सूखने लगता है। बार-बार पानी पीने पर भी प्यास नहीं बुझती। फिर जब लू चलने लगती है, तब तो जैसे तन-मन झुलसने लगते हैं। इसका विस्तृत प्रभाव कई बार लाचार आदमी की बीमारी और मृत्यु का कारण भी बन जाता है। पसीने से भीगा बदन किसी ठंडे स्थान पर पड रहने को तरस जाता है। कपड़े तो शरीर पर बर्दाश्त ही नहीं हो पाते।
ग्रीष्म ऋतु का प्रभाव प्रकृति को भी बेचैन कर देता है। धरती पर उगी घास ताप से मुरझा कर धरती को नग्र कर देती है। वृक्षों के पत्ते भी मुरझा कर अक्सर सूख जाते हैं और उन की छाया एकदम पतली पड़कर नाममात्र को ही रह जाती है। पशु-पक्षी तक उनकी छाया में शरण नहीं प्राप्त कर पाते। अनेक बार तो हवा रुककर एक विचित्र सा धमाका ओर सन्नाटा उत्पन्न कर देती है। साँस तक ले पाना अत्यंत मश्किल हो जाता है। मांसाहारी बाघ और शेर कुत्ते जैसे जीव तो जीभ बाहर निकाल कर हाँफते हुए से प्रतीत होने लगते हैं। मनुष्य भी कुछ ही देर में थक-हार जाया करते हैं। पक्षी चहचहाना तक भूल जाते हैं। चारों ओर का वातावरण ग्रीष्म के प्रभाव से एकदम सूखा और नीरस होकर रह जाता हैं। इस कारण क्या प्राणी और क्या प्रकृति जगत, सभी अपने-अपने आनन्द-उत्सव के भाव भूल जाते हैं।
ऋतु चक्र और प्राकृतिक नियम के कारण, ग्रीष्म ऋतु के सभी प्रकार के प्रभावों को भी मानव जाति अन्य ऋतुओं के समान सहन करने को विवश हैं। समर्थ लोग पहाड़ों पर जा अथवा घर पर ही ठंडक पाने के उपाय करके ग्रीष्म ऋतु को सहन कर लेते हैं; जबकि आम आदमी जैसे-तैसे इसके प्रभाव को झेला करता है। जो भी हो, ऋतु क्रम की दृष्टि से देखा जाए तो अन्य ऋतुओं के समान ग्रीष्म का भी अपना महत्त्व है, धरती के लिए उसकी जरूरत है। अत: हमें इसका भी उचित स्वागत करना चाहिए।
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