Essay on Indian Farmer in Hindi भारतीय किसान पर निबंध
|Essay on Indian Farmer in Hindi for students of class 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11 and 12. भारतीय किसान पर निबंध। In this article, we are going to post information about Indian farmer in Hindi, Indian farmer life and problems faced by farmer in Hindi.
Essay on Indian Farmer in Hindi 200 Words
विचार – बिंदु – • भारतीय किसान का महत्त्व • सादगी-पसंद • परिश्रमी जीवन • हृष्ट-पुष्ट • गरीबी • दुर्दशा के कारण • सुधार के उपाय।
भारत की संस्कृति कृषक-संस्कृति है। भारतीय किसान सीधा-सादा जीवन-यापन करता है। सादगी का यह गुण उसके तन से ही नहीं, मन से भी झलकता है। सच्ची बात को सीधे-सादे शब्दों में कहना उसका स्वभाव है। भारतीय किसान बड़ा कठोर जीवन जीता है। वह शरीर से हृष्ट-पुष्ट रहता है। माँ धरती और प्रकृति की गोद में खेलने के कारण न उसे बीमारियाँ घेरती हैं, न मानसिक परेशानियाँ। भारत के अधिकतर किसान ग़रीबी में जीते हैं। उनके पास थोड़ी जमीन है। छोटे किसान दिन-भर मेहनत करके भी भरपेट खाना नहीं जुटा पाते। अधिकतर किसान निरक्षर है। अज्ञान के कारण वे अंधविश्वासों में आस्था रखते हैं। इस कारण वे परिवार को सीमित रखने का महत्त्व नहीं समझते।
परिणामसवरुप उनका परिवार बढ़ता जाता है और ज़मीन कम होती जाती है। फिर उनके जीवन में खुशहाली कैसे आए? अज्ञानता के कारण ही व्यापारी लोग उन्हें आसानी से लूट लेते हैं। आवश्यकता है कि किसानों को उन्नत बीज, खाद, कीटनाशक सस्ते दामों पर उपलब्ध कराए जाएँ। उनके बच्चों को सस्ती शिक्षा दी जाए। उनके उत्पादन को ऊँचे दामों पर बेचने का प्रबंध किया जाए।
Indian Farmer in Hindi Essay 600 Words
भारतीय किसान की त्रासद स्थिति
मानव ने अपने पशुतुल्य जीवन को छोड़कर जिस समय एक स्थायी जीवन को ग्रहण किया था उसी समय उसने कृषि को अपने जीवन का अपरिहार्य अंग स्वीकार कर लिया था। कृषि ने ही मानव को पशु-जगत से भिन्न एक मानव-जगत् में स्थापित किया। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि संसार में मानव का आविर्भाव कृषि-व्यवस्था के परिणामस्वरूप ही अविर्भाव हुआ।
भारतीय संस्कृति, सभ्यता और साहित्य का एक बड़ा हिस्सा किसान-जीवन की नाना स्थिति-परिस्थितियों के विविध आयामी चित्रणों से भरा पड़ा है। आदिकाव्य रामायण में भी मानव के इस आदिम-पेशे का यथोचित वर्णन मिलता है। कालिदास ने तो ‘मेघदूत’ नामक अपने श्रृंगार और प्रेमपरक काव्य में, किसान जीवन की विराट मार्मिकता को पूरी तरह से उभार कर ही रख दिया। किन्तु किसान का जीवन मात्र प्राकृतिक-जीवन की मधुरता, स्वच्छंदता, सहजता और सौन्दर्य से भरा हुआ ही नहीं होता अपितु गरीबी, शोषण और विकराल अभावग्रस्तता का भी जीवन होता है। भक्ति-काल के सर्वश्रेष्ठ कवि महात्मा तुलसीदास ने कृषक जीवन की इस विडम्बनापूर्ण स्थिति को पूरी वास्तविकता और सच्चाई के साथ अनुभूत किया था। एक स्थान पर कृषक जीवन की त्रासद-स्थिति का वर्णन करते हुए महात्मा तुलसीदास ने लिखा है:
‘खेती न किसान को, भिखारी को न भीख बलि,
बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।
जीविका विहीन लोग सीधामान सोच बस,
कहैं एक एकन सों कहा जाई का करी?
जो किसान अपने अथक परिश्रम के द्वारा अन्न उत्पन्न करते हैं और उससे सकल संसार का पेट भरते हैं वही किसान स्वयं अपने पेट के लिए दो जून की रोटी को तरसते हैं। उन्हें भरपेट भोजन भी प्राप्त नहीं होता। उनके बीबी: बच्चे भूख से बिलखते रहते हैं। वस्तुत: इस स्थिति को देखकर तो हृदय यह पुकार उठता है कि कृषक जीवन वस्तुत: गरीबी, भुखमरी और दरिद्रता का जीवन रहा है। कितने आश्चर्य की बात है कि जो दूसरों की भूख शान्त करता है, वह स्वयं सदैव भुखमरी के भवंरजाल में फंसा रहता है। लाख प्रयत्न करने पर भी वह इस भंवरजाल से कभी निकल नहीं पाता। उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने भी अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘गोदान’ में कृषक-जनों की दारूण एवं मार्मिक स्थिति का चित्रण करते हुए लिखा है:
“तीन लडके बचपन में ही मर गए। उसका मन भी कहता था, अगर उनकी दवा-दारू होती तो वे बच जाते, पर वह एक धेले की दवा भी न मंगवा सकी थी। उसकी उम्र भी अभी क्या थी। छत्तीसवां साल तो था, पर सारे बाल पक गये थे, चेहरे पर झुर्रियां पड़ी थीं। सारी देह ढल गयी थी, वह सन्दर गेहँआ रंग साँवला गया था और आँखों से भी कम सूझने लगा था। पेट की चिन्ता ही के कारण कभी तो जीवन का सुख न मिला।’
यह एक महान कथाकार का बेहद सजगता से किया गया समाज-अध्ययन है। यह उस समय के किसान की दारूण स्थिति का लेखा-जोखा है, जब भारत में ब्रिटिश अपने उपनिवेश अपने चरम पर था। ब्रिटिश नीतियां तो निश्चित रूप से भारत की अर्थ-व्यवस्था को पूर्णतः बर्बाद करने वाली और आर्थिक शोषण के द्वारा अपने देश को समृद्ध करने वाली थीं। किन्तु ऐसा नहीं कहा जा सकता कि आज भारतीय कृषक की स्थिति बहुत अच्छी है। महात्मा गांधी ने धनिक वर्ग को चेतावनी देते हुए कहा था कि यदि भारतीय समाज को शान्तिपूर्ण मार्ग पर सच्ची प्रगति करनी है, तो धनिक वर्ग को निश्चित रूप से स्वीकार कर लेना होगा कि किसान के साथ भी वैसी ही आत्मा है जैसी उनके पास है और अपनी दौलत के कारण वे गरीब से श्रेष्ठ नहीं हैं।”
आज भी कृषक समाज बेतहाशा गरीबी और दरिद्रता का त्रासद जीवन जी रहा है। वह निरन्तर आत्म-हत्या और आत्महंता प्रवृत्तियों से ग्रस्त होता जा रहा है। आज आवश्यकता यह है कि सरकार अपनी संवेदनशीलता का परिचय दे और कृषक जीवन को बेहतर बनाने के लिए सच्चे अर्थों में प्रयास करें।
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