Essay on Jaishankar Prasad in Hindi कवि जयशंकर प्रसाद पर निबंध
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Essay on Jaishankar Prasad in Hindi
हिन्दी साहित्य को नयी दिशा में मोड़ने वाले श्री जयशंकर प्रसाद का जन्म सन् 1889 में काशी में हुआ था। इनका परिवार काशी में ‘सुंघनी साहू परिवार’ के नाम से प्रसिद्ध था। प्रसाद जी का परिवार मूलत: व्यापारी था। प्रसाद जी का साहित्यिक जीवन करीब सन् 1910-15 के बीच शुरू हुआ। प्रसाद जी ने विशद् रूप से साहित्य की रचना की। उन्होंने कविता रचने के साथ-साथ कहानी, उपन्यास, नाटक और निबंध आदि की भी रचना की। उनका विशद साहित्य-सृजन उनके व्यापक और विराट साहित्य बोध को उजागर करता है। उनका जीवन-दृष्टिकोण सभी प्रकार की संकीर्णताओं से मुक्त था। उनमें जीवन की व्यापकता और ब्रम्हाण्ड का भी विस्तार था। जयशंकर प्रसाद को जिस छायावादी युग का प्रर्वतक, कवि और रचनाकार माना जाता है, वह छायावाद अपनी मूल वृत्ति में स्थूलता के विरुद्ध सूक्ष्मता का आंदोलन था। डॉ नगेन्द्र का यह वाक्य छायावादी साहित्य की ठोस भावनात्मक वास्तविकता का परिचायक है।
जयशंकर प्रसाद को युगचेता और काल चेता रचनाकार माना जाता है। ऐसा मानना वास्तव में उचित ही है। हिंदी साहित्य के इतिहास का गहनता से अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि जिस युग विशेष में प्रसाद जी साहित्य सृजन का कार्य कर रहे थे, वह युग जितना जटिल और संक्रमणशील था उतना ही संघर्षपूर्ण भी था। भारत ब्रिटिश औपनिवेशिक साम्राज्य के अधीन था। यहाँ अंग्रजों का शासन था। भारत राजनैतिक और अर्थिक रूप से तो अंग्रेजों के अधीन हो ही चुका था, अब जिस समय प्रसाद जी साहित्य क्षेत्र में पदार्पण करते हैं, भारत के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती उसकी आत्मा के खोने का था। गांधीजी ने लिखा था: ‘भारत का भविष्य पश्चिम के उस रक्तरंजित मार्ग पर नहीं है, जिस पर चलते-चलते पश्चिम अब खुद थक गया है, उसका भविष्य तो सरल धार्मिक जीवन द्वारा प्राप्त शांति के अहिंसक रास्ते पर चलने में ही है। भारत के सामने इस समय अपनी आत्मा को खोने का खतरा उपस्थित है। और यह संभव नहीं है कि अपनी आत्मा को खोकर भी वह जीवित रह सके। इसलिए आलसी की तरह उसे लाचारी प्रकट करते हुए ऐसा नहीं कहना चाहिए कि पश्चिम की इस बाढ़ से मैं बच नहीं सकता। अपनी और दुनिया की भलाई के लिए उस बाढ़ को रोकने योग्य शक्तिशाली तो उसे बनना ही होगा।” भारतीय समाज पर ब्रिटिश साम्राज्य का सांस्कृतिक आक्रमण तत्कालीन युग की वास्तविकता थी। यह एक गहरा युग बोध था। प्रसाद जी की रचनात्मक दृष्टि ने अपने समय और समाज की इस करुण एवं जटिल वास्तविकता को पहचान लिया था। उनके द्वारा सृजित सम्पूर्ण प्रसाद-साहित्य इस युग सत्य से आप्लावित है।
वस्तुत: राजनैतिक एवं आर्थिक पराधीनता के साथ-साथ उस समय भारत अंग्रेजों का सांस्कृतिक गुलाम भी बनता जा रहा था। प्रसाद जी इस स्थिति के भयानक परिणाम समझते थे। अत: उनकी समग्र रचना के मूल में इस सांस्कृतिक आक्रमण का पुरजोर विरोध अन्र्तनिहित है। उनका साहित्य निरपेक्ष रूप से सांस्कृतिक-गौरव का गान नहीं गाता अपितु वह युग-सत्य को भांजते हुए, सांस्कृतिक-गान की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
जैसा कि कंहा जा चुका है, प्रसाद जी एक विराट परिदृश्य और परिप्रेक्ष्य के कवि थे। उनका साहित्य नाना भांति के विषय-रंगों से भरा पड़ा है। प्रकृति, व्यक्ति, समाज, संस्कृति, इतिहास तथा शोषण आदि नाना भांति के विषयों को प्रसाद जी ने एक समुचित दिशा प्रदान करके साहित्य में अभिव्यक्त किया है। सन् 1936 के आस-पास उनके द्वारा लिखित ‘कामायनी’ नामक महाकाव्य प्रकाशित हुआ था। यह महाकाव्य अपना एक स्वतंत्र ऐतिहासिक मूल्य रखता है।
कहा जाता है कि इस महाकाव्य में प्रसाद जी ने उन समस्त विशेषताओं और प्रवृतियों को एकाग्र अभिव्यक्ति प्रदान की है, जिन्हें छायावादी कहा जाता है।
प्रसाद जी एक विशिष्ट युग सत्य के सृजक रचनाकार थे। उन्होंने भारतीय नवजागरण की काव्यात्मक-रचनात्मक अभिव्यक्ति अपने साहित्य में की। उनके साहित्य में परम्परा और इतिहास के साथ-साथ आधुनिकता का भी समुचित सामंजस्य रहा है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भारत की प्राचीन संस्कृति को इस विशद् आयाम में उभारने पर प्रसाद जी को धन्यवाद दिया था और उनसे अनुरोध किया था कि एक उपन्यास वह इस विषय पर भी लिखें। प्रसाद जी ‘इरावती’ नामक उपन्यास लिख रहे थे कि उनका आकस्मिक निधन हो गया। इस कारण वह उसे पूरा नहीं लिख सके।
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