Kal Kare So Aaj Kar Doha Meaning and Essay in Hindi काल्ह करे सो आज कर
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Kal Kare So Aaj Kar काल्ह करे सो आज कर
Kal Kare So Aaj Kar Essay 500 Words
सन्त कबीर एक महान ज्ञानी, साधु और सन्त थे। उन्हीं का रचा हुआ एक प्रसिद्ध दोहा है जिस की प्रथम पंक्ति को उपर्युक्त शीर्षक बनाया गया है। पूरा दोहा इस प्रकार है:
काल्ह करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलै होएगी, बहुरी करेगा कब।
सामान्य-सी लगने वाली इन दो पंक्तियों में ज्ञानी, साधु-सन्त ने जीवन और समय के महत्त्व का समस्त सार भर दिया है। आज का काम कल पर नहीं छोड़ना चाहिए। प्रश्न यह उठता है कि क्यों नहीं छोड़ना चाहिए? उत्तर यह है कि पता नहीं अगला पल प्रलय। का ही पल हो। यदि ऐसा हुआ तो वह अधूरा या सोचा गया काम कर पाने का अवसर ही नहीं मिल पाएगा। फिर कब करोगे? कहा जा सकता है, कि यदि कोई काम नहीं भी हो पाया, तो उससे क्या बनता-बिगड़ता है? बस यही बात, मुद्दा या नुकता है कि जिसे सन्त ने हमें समझाना और स्पष्ट करना चाहा है। कहा जा सकता है कि भारतीय पुनर्जन्म और मुक्ति के सिद्धान्त का समूचा तत्त्व वास्तव में इस कथन में समाया हुआ है।
भारत में माना जाता है कि मरते समय यदि व्यक्ति का मन और आत्मा किसी प्रकार की इच्छाएं लिए रहते हैं, तभी दुबारा और किसी योनि में जन्म होता। है। यदि मृत्यु के समय मन में कोई इच्छा नहीं रहती, वह अपने किए कर्मों को पूर्ण मानकर सन्तुष्ट और तृप्त रहते हैं, तो जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्त हो जाते है। इस मुक्तावस्था को पाने के लिए ही सन्त कवि ने आज का काम कल पर नहीं छोड़ने की प्रेरणा दी है। कहा है कि जो काम कल के लिए सोच रखा है, उसे आज बल्कि अभी ही शुरु करके पूरा कर डालो, ताकि प्रलय यानि मृत्यु का अल्पप्रभावी अवसर आने तक करने को बाकी कुछ न बचा रहे। फलस्वरुप जन्म-मरण और कर्मों के बन्धन से मुक्ति का अधिकारी बना जा सके।
सामान्य व्यावहारिक दृष्टि से भी आज का काम कल पर कभी नहीं छोड़ना चाहिए। कल करने के लिए कोई अन्य काम आवश्यक हो सकता है। उसको करने के चक्कर में पिछला काम अधूरा रहकर हानि का कारण बन सकता है।
Kal Kare So Aaj Kar Essay 800 Words
आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक स्तर पर समय, उसके सदुपयोग करने की सीख देने वाले सन्त कबीर द्वारा रचे गए एक प्रसिद्ध दोहे का पहला चरण है यह शीर्षक-पॅक्ति इस सूक्ति परक दोहे का पूर्ण रूप इस प्रकार है:
“काल्ह करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलै होयगी, बहुरि करोगे कब।।”
बिल्कुल सीधा-सा; पर जीवन के अनुभूत तथ्यों को, व्यावहारिक एव लोक-परलोक-सम्बन्धी मान्यताओं को उजागर करने वाला है यह दोहा। इस का अर्थ, इसकी व्याख्या भी देखने में सीधी और सरल ही है। लेकिन अपने भीतर बड़े ही गम्भीर विचार को छिपाए हुए है। सीधा-सादा अर्थ है-जो कार्य कल करना है, उसे आज ही कर डालो। जो आज करने का विचार है, उसे अभी आरम्भ कर दो। पता नहीं, अगले ही क्षण प्रलय हो जाए। सो फिर सोचा कार्य कब करोगे? अर्थात बहुत संभव है कि प्रलय का क्षण उपस्थित हो जाए और उसके कारण फिर कभी भी वह कार्य कर पाने का अवसर ही सुलभ न हो सके। बिल्कुल सत्य एवं सामान्य सी लगने वाली बात ही कही है कवि और सन्त कबीर ने । आखिर इसमें विशेष या महत्त्वपूर्ण क्या है, जो इसे इस प्रकार एक सूक्ति मान लिया गया है।
निश्चय ही सीधे-सादे शब्दों और सरल शैली में कही गई बात का विशेष अर्थ, प्रयोजन एवं महत्त्व है। सब से महत्त्वपूर्ण संकेत तो यह है कि कवि ने समय के सदुपयोग करना आवश्यक किया है। दूसरे शब्दों में यह कहा है कि कभी भी आज का काम कल पर नहीं छोड़ना चाहिए। क्यों नहीं छोड़ना चाहिए. इस तथ्य को समझना और जानना ही वास्तव में इस सूक्ति के वास्तविक अर्थ और भाव तक पहुँचना है। उसे जाने बिना सभी कुछ एकदम सरल एवं सामान्य-सा ही प्रतीत होता है। तो आखिर वह विशेष, कथन का वह विशेष अर्थ एवं रहस्य है क्या? वह जानने से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि भारतीय दार्शनिक-आध्यात्मिक धारणा के अनुसार यदि मृत्यु के समय मरने वाले के मन-मस्तिष्क में कुछ अधूरी एवं अपूर्ण इच्छाएँ शेष रह जाती हैं, तो उन्हें पूरा करने के लिए उसे तब तक बार-बार जन्म लेते रहना पड़ता है कि जब तक वे पूर्ण नहीं हो जाया करतीं। पूर्ण करने के चक्कर में आदमी बार-बार जन्म लेता और मरता रहता है। इस प्रकार आवागमन का चक्कर कभी समाप्त ही नहीं हो पाता । जन्म-मरण के चक्कर में बन्धा प्राणी भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेता, कष्ट भोगता हुआ बड़े ही पुण्य कर्मों के बल से फिर मनुष्य योनि में इसलिए जन्म लेता है कि अच्छे कर्म कर के, सभी तरह की अधूरी रह गई इच्छाएँ समय पर यानि मृत्यु से पहले पूर्ण कर ले और इस तरह लोक-परलोक दोनों तरह की मुक्ति पाने का अधिकारी बन जाए।
कितनी गहरी और तत्त्व की बात कह दी है एक ज्ञानी सन्त ने इस साधारण और सामान्य से लगने वाले दोहे में। वास्तव में मुक्ति का, सभी तरह के कर्मों और जन्म-मरण के बन्धनों से छुटकारा पाने का रहस्य छिपा है इस सूक्तिपरक दोहे में। यों भी आम व्यवहार के स्तर भी तो यह आवश्यक है कि जो काम हमारे ज़िम्मे डाला गया है, उसे यथासम्भव शीघ्र समाप्त कर बेकार के बोझ को उतार, तनाव या दबाव से छुटकारा पाकर सुख-चैन की साँस लें। बचे समय में आराम तो कर ही सकें; अपने विकास के लिए अच्छे-अच्छे अन्य उपाय एवं कार्य भी सोच एवं कर सकें। करने से ही काम पूरा हुआ करता है। छुटकारा भी तभी मिल पाता है। मात्र ‘आज कर लूँगा, कल कर लूँगा’ सोचते रहने से न तो कोई कार्य सिरे चढ़ सकता है और न छुटकारा पा सकना ही संभव हो पाया करता है।
समय पर प्रत्येक कार्य सम्पन्न हो सके, इसके लिए भी आवश्यक है कि आज का काम कल पर न छोड़ा जाए। उन्नति और विकास की इच्छा एवं कल्पना भी तभी पूर्ण की जा सकती है कि जब समय पर उचित कार्य सम्पन्न करने की तरफ ध्यान दिया जा सके। महान लोग जो समय का सदुपयोग करने की शिक्षा दिया करते हैं, तो कहा जा सकता है कि प्रत्येक स्वीकृत कार्य को लगातार लग के साथ-ही-साथ पूर्ण करते जाना ही वास्तव में समय का सदुपयोग है। फिर दिन-प्रतिदिन आदमी की शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक शक्तियाँ भी तो लगातार क्षीण होती जाया करती हैं। इस से स्वभावतः कार्यक्षमता पर पड़र भी असता है। यदि व्यक्ति आज का काम कल पर छोड़ता जाएगा, तो क्या पता वह कल कभी आए या न आए? क्या पता कि कल तक उसकी आज की-सी कार्यक्षमता रह पाए या नहीं? जब अगली साँस के ही वापिस लौट आने का पता नहीं, तो कल के आ जाने का क्या भरोसा?
जीवन में सभी कुछ अस्थिर एवं क्षणभंगर है। ईश्वर के नाम पर अवश्यम्भावी मृत्यु के सिवा और कुछ भी निश्चित नहीं है। इसलिए इस अनिश्चय भरे संसार में टालू वृत्ति-प्रवृत्ति से काम लेकर अनिश्चय के भंवर में चढ़ते-उतरते रहना बेकार है। अपना कार्य-सम्पादन-रूपी सामान समेटते जाओ। जब ट्रेन प्लेटफार्म पर आ जाएगी, तब कुछ भी समेट पाना सम्भव नहीं रहेगा। इस जीवन यानि ‘समय’ का चरम सत्य यही है।
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