Karat Karat Abhyas Ke Jadmati Hot Sujan Hindi Essay करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान पर निबंध
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Karat Karat Abhyas Ke Jadmati Hot Sujan
Essay on Karat Karat Abhyas Ke Jadmati Hot Sujan in Hindi 800 Words
कविवर वृन्द के रचे दोहे की यह एक पंक्ति वास्तव में परिश्रम की निरन्तरता का महत्त्व बताने वाली है। साथ ही निरन्तर परिश्रम करते रहने वाले व्यक्ति के लिए अनिवार्य सफलता की गारण्टी भी प्रदान करने वाली है दोहे की यह पँक्ति। पूरा दोहा इस प्रकार है :
“करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत-जात ते, सिल पर परत निसान।।”
इस का अर्थ और व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि निरन्तर परिश्रम करते रहने से असाध्य माना जाने वाला कार्य भी सिद्ध हो जाया करता है। असफलता के माथे में कील ठोंक कर सफलता पाई जा सकती है। जैसे कुएँ की जात पर लगी सिल (शिला) पानी खींचने वाली रस्सी के बार-बार आने-जाने से, कोमल रस्सी की रगड़ पड़ने से घिस कर उस पर एक निशान अंकित हो जाया करता है; उसी तरह लगातार और बार-बार अभ्यास यानि परिश्रम और चेष्टा करते रहने से एक निकम्मा एवं जड़-बुद्धि समझा-जाने वाला व्यक्ति भी कुछ करने के लायक बन सकता है। सफलता और सिद्धि का स्पर्श कर सकता हैं। दूसरे शब्दों में अनवरत परिश्रम और लगन के द्वारा असम्भव समझे जाने वाले कार्यों को भी सम्भव कर के दिखाया जा सकता है। वस्तु स्थिति को बदला और दूसरा रंग-रूप दिया जा सकता है। हमारे विचार में कवि ने अपने जीवन के अनुभवों के सार-तत्त्व के रूप में ही इस तरह की बात कही है। हमारा अपना भी विश्वास है कि कथित भाव और विचार सर्वथा अनुभव-सिद्ध ही है।
पता नहीं यह सत्य है कि नहीं; पर ऐसी किंवदन्ती अवश्य प्रचलित है कि कविवर कालिदास कवित्व-शक्ति प्राप्त करने से पहले निपट जड़मति वाले ही थे। कहा जाता है कि वन में एक वृक्ष की जिस डाली पर बैठे थे, इस बात की चिन्ता किए बिना कि कट कर गिरने पर उन्हें चोट आ सकती या मृत्यु भी हो सकती है; उसी डाली को काट रहे थे। विद्योत्तमा नामक विदुषी राजकन्या का मान भंग करने का षड्यंत्र कर रहे तथाकथित विद्वान् वर्ग को वह व्यक्ति (कालिदास) सर्वाधिक जड़मति और मूर्ख लगा। सो वे उसे ही कुछ लाभ-लालच दे, कछ ऊटपटाँग सिखा-पढ़ा, महापण्डित के वेश में सजा-धजा कर राजदरबार में विदुषी राज कन्या विद्योत्तमा से शास्त्रार्थ करने के लिए ले गए। उस मूर्ख के ऊटपटाँग मौन संकेतों की मनमानी व्याख्या कर षड़यंत्रकारियों ने एक विदुषी से विवाह करा ही दिया। लेकिन प्रथम रात्रि में ही वास्तविकता प्रकट हो जाने पर पत्नी के ताने से घायल होकर ज्यों घर से निकले, कठिन परिश्रम और निरन्तर साधना-रूपी रस्सी के आने-जाने से घिस-पिट कर महाकवि कालिदास बन कर घर लौटे। स्पष्ट है कि निरन्तर अभ्यास ने तपा कर उन की जड़मति को पिघला कर बहा दिया। जो बाकी बचा था, वह खरा सोना था।
संसार के इतिहास में और भी इस प्रकार के कई उदाहरण खोजे एवं दिए जा सकते हैं। हमें अपने आस-पास के प्रायः सभी जीवन-क्षेत्रों में इस प्रकार के लोग मिल जाते है कि जो देखने-सुनने में निपट अनाड़ी और मूर्ख प्रतीत होते हैं। वे अक्सर इधर-उधर मारे-मारे भटकते भी रहते है, फिर भी हार न मान अपनी वह सनियोजित भटकन अनवरत जारी रखा करते हैं। तब एक दिन ऐसा भी आ जाता है कि जब अपने अनवरत अध्यवसाय से निखरा उनका रंग-रूप देख कर प्रायः दंग रह जाना पड़ता है। इससे साफ प्रकट है कि संसार में जो आगे बढ़ते हैं, किसी क्षेत्र में प्रगति और विकास किया करते हैं, वे किसी अन्य लोक के प्राणी न होकर इस हमारी धरती के हमारे ही आस-पास के लोग हआ करते हैं। बस, अन्तर यह होता है कि वे एक-दो बार की हार या असफलता से निराश एवं चुप हो कर नहीं बैठ जाया करते; बल्कि निरन्तर उन हारों-असफलताओं से टकराते रह कर उन्हें चूर-चूर करने का प्रयास करते रहते हैं और एक दिन उनको चर-चर कर विजय या सफलता के सिंहासन पर आरूढ़ दिखाई देकर सभी को चकित-विस्मित कर दिया करते हैं। साथ ही यह भी स्पष्ट कर देते हैं, अपने व्यवहार और सफलता से कि वास्तव में संकल्पवान व्यक्ति के शब्दकोश में असंभव नाम का, कठिन या दुर्लभ नाम का कोई शब्द नहीं हुआ करता।
इसलिए मनुष्य को कभी भी, किसी भी स्थिति में हार मान कर, निराश होकर नहीं बैठ जाना चाहिए। अपने अध्यवसाय-रूपी रस्सी को समय की शिला पर निरन्तर रगड़ते रहना चाहिए, तब तक लगातार ऐसे करते रहना चाहिए कि जब तक कर्म की रस्सी से विघ्न-बाधा या असफलता की शिला पर घिस कर उनकी सफलता का चिन्ह स्पष्ट न झलकने लगे। मानवप्रगति का इतिहास गवाह है कि आज तक जाने कितनी शिलाओं को अपने निरन्तर अभ्यास से घिसते आकर, बर्फ की कितने दीवारें पिघला कर वह आज की उन्नत दशा में पहुँच पाया है। यदि वह हार मान कर या एक-दो बार की असफलता से ही घबरा कर निराश बैठे रहता, तो अभी तक आदिम काल की अन्धेरी गुफाओं और बीहड़ वनों में ही भटक रहा होता। लेकिन यह न तब संभव था और प्राप्त स्थिति पर ही सन्तुष्ट होकर बैठे रहना न आज ही मानव के लिए संभव है।