कर्म प्रधान विश्व रचि राखा Karm Pradhan Vishwa Rachi Rakha
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कर्म प्रधान विश्व रचि राखा – Karm Pradhan Vishwa Rachi Rakha
Karm Pradhan Vishwa Rachi Rakha 900 Words
संसार में जीवित रहने के लिए, कुछ पाने के लिए, कहीं पहुँचने या प्रगति एवं विकास करने के लिए, अपनी इच्छाएँ पूर्ण कर जीवन, समाज और संसार को सजाने-संवारने के लिए कर्म-लगातार कर्म करते रहना परम आवश्यक है। कर्म के बिना गुजर-बसर कतई सम्भव नहीं। एक कदम भी चल पाना कठिन है। इसी कारण प्राकृतिक नियम और आत्मिक प्रेरणा से संसार का छोटा-बड़ा हर प्राणी किसी-न-किसी यानि अपनी स्थिति और आवश्यकता के अनुरूप कर्म में निरत रहा करता है। संसार की रचना का मूल उद्देश्य ही अनवरत कर्म कर के, सभी प्रकार के ऋणों से मुक्त हो कर जन्म-मरण के बन्धन से मुक्ति या छुटकारा पाना है।
संसार का तुच्छ-से-तुच्छ प्राणी और पदार्थ भी अपने कर्म में लगा रहता है। वृक्ष स्वतः या प्राकृतिक नियम से डोल कर अपने आनंद-भाव को तो प्रकट किया ही करते है; संसार को हरियाली, फल-फूल और प्राणवायु भी देते रहते हैं। ऐसा सब करना ही उन का कार्य है और करते रहना ही उनकी मुक्ति है। संसार में वस्तुतः कर्म ही मुक्ति और मुक्ति ही कर्म है। बादल जिन नदियों, सागरों, सरोवरों आदि के आबशारों से बना करते हैं, अपने अस्तित्व एवं व्यक्तित्त्व को मिटा कर उन सभी को वर्षा से दुबारा भरते रह कर ही कृत्कार्य होते रहते हैं। जाने उनका यह कर्ममय मुक्ति का क्रम कब से चला आ रहा है। तब तक निरन्तर चलता रहेगा कि जब तक यह धराधाम, यह हमारा दृश्य संसार विद्यमान है। वह धूल माटी कि जिस के तन या कपड़ों पर तनिक-सा लगते ही हम झाड़ देना उचित समझते हैं, वास्तव में हमारे अस्तित्व एवं सभी प्रकार के विकास का मूल कारण एवं आधार है। उस की कर्ममय सार्थकता इसी प्रकार की अनवरत साधना में है।
चाँद, सूर्य, तारे अपने कर्ममय गति-चक्र में कभी कोई बाधा नहीं मानते। उनके कदम किसी भी प्रकार के व्यवधान से रुका नहीं करते। अपने कर्ममय अवसान में और फिर उदय में ही उनके अस्तित्व का बोध और सार्थकता है। भक्ति और मुक्ति है। नदी का कर्म है रास्ते में आने वाले स्थानों को सींचते, हरियाली बाँटते हुए निरन्तर बहते रहना। कहीं कोई भी तो कर्ममय पथ में अवरोध स्वीकार नहीं करता। कर्म करते जाने में ही अपनी सफलता और साकार करता है। जब जड़ प्रकृति और उसके विविध एवं विभिन्न पुत्रों-रूपों का-जो अपने-आप में जड़ और निर्वाक है; यह हाल और नियम है; तब भला सजीव, सचेतन मनुष्य कर्महीन एवं निठल्ला बैठ कर जीवन को व्यर्थ कैसे कर सकता है? जीवन और प्रकृति के इन रूपों नियमों और रहस्यों को समझ-बूझ कर ही कवि ने इस तथ्य को उजागर किया है कि ‘कर्म प्रधान विश्व रचि राखा’ अर्थात् इस दृश्य जगत में कर्म करते रहना ही जीवन का चरम सत्य है। संसार की रचना ही वास्तव में कर्म करने के लिए की गई है।
संसार में सुखों का अधिकारी केवल कर्मवीर व्यक्ति ही हुआ करता है, कर्म से जी चुराने वाला कभी नहीं। वह तो जीते-जी नरक की आग में जलने, विषम यातनाएँ भोगने के लिए बाध्य हुआ करता है। कहावत है कि चलने वाला ही कहीं पहुँच पाता है, राह के किनारे बैठा रहने वाला नहीं। सागर के गहरे में उतर कर गोता लगाने वाला ही भीतर से निकाल कर मोती बाहर ला पाता है, मात्र किनारे बैठ कर यह प्रतीक्षा करते रहने वाला नहीं कि कब भीतर से कोई बवण्डर उभर का मोती बाहर फेंक जाए। ठीक उसी तरह से कर्म-सागर में कूद कर ही इस संसार में सफलता , सुख को मोती पाया जा सकता है, अन्य किसी भी उपाय से नहीं। संसार में आज हमें जो कई तरह की उन्नति, प्रगति और विकास के उच्च शिखर दीख पड़ रहे हैं, उन का निर्माण कर्म पर विश्वास रख उसमें जुट जाने वाले कर्मठ व्यक्तियों ने ही किया है। बातों के धनियों या बैठे-बैठे उबासियाँ लेते हुए हाथों की उँगलियाँ तोड़ते-मरोड़ते रहने वालों ने नहीं। आगे भी यदि सफलता का कोई अन्य शिखर विनिर्मित हो पाएगा, तो ऐसे कर्मशील लोगों के द्वारा ही होगा।
कर्म करने वाले के लिए संसार में अनन्त सम्भावनाएँ रहा करती हैं। वह चाहे जो भी सोच और कर ले, असम्भव कुछ नहीं होता उसके लिए। केवल बड़े-बड़े सपने देखने या कल्पनाएँ करते रहने से न तो अपना जीवन ही बन पाता है और न संसार के अन्य प्राणियों के लिए ही कुछ कर पाना संभव हुआ करता है। जब संसार है ही कर्ममय, उसकी रचना का उद्देश्य ही कर्म करना एवं उसे प्रश्रय देना है, तब उसके बाहर किसी प्रकार की अन्य गतिविधि की बात तक सोच पाना संभव नहीं। सोच लेने पर भी कर्म के बिना उसका कोई अर्थ नहीं। वह दिवास्वप्न से अधिक कुछ भी मूल्य एवं महत्त्व नहीं रखा करती। व्यावहारिक जीवन का अनुभव भी यही बताता एवं सिखाता है।
जब यह एक सर्वमान्य एवं निखरा हुआ तथ्य है कि कर्म बिना गति नहीं, तो क्या सोच कर निठल्ले बैठे हुए हो? उठो और कमर कस कर कर्मक्षेत्र में कूद पड़ो। सभी सपनों की तामीर स्वयं होती जाएगी। सभी तरह की सुख-समृद्धियाँ स्वतः ही खिंची चली आएँगी। याद रहे, सफलताएँ हाथों में माला लिए कर्मठ व्यक्तियों की प्रतीक्षा में खड़ी हमेशा बाट जोहा करती हैं। सो इस कर्म-प्रधान विश्व में अपने कर्मठ कदम बढ़ाते हुए आगे बढ़ कर उस माला को अपने कण्ठ का हार बना लो। यही जीवन और कर्म दोनों का चरम लक्ष्य एवं मान्य सत्य है।