Kidnapping Industry in Hindi अपहरण उद्योग पर निबंध
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Kidnapping Industry in Hindi
अपहरण उद्योग पर निबंध
आज से तीन-चार दशक पूर्व देश और राज्य की जनता ‘अपहरण’ शब्द और उसकी प्रासंगिक व्याख्या से लगभग अनभिज्ञ थी। पर लगभग डेढ़ दशक पूर्व तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रूबइया सईद के आतंकवादियों द्वारा अपहरण ने अपहरण’ की एक नई व्याख्या देश के सामने रख दी। आज से चार दशक पूर्व देश में यदा-कदा ही अपहरण की घटनाएं घटती थी। चंबल के बीहड़ों में वास करने वाले कुख्यात डकैत सरगना भी अपने गिरोह के खर्चे हेतु यदा-कदा जरूर इस काम को करते थे। पर तब अपहरणं को ‘पकड़’ के नाम से जाना जाता था। उसी कुख्यात दस्यु सरगना के मानसिंह से लेकर मलखान सिंह तका पकड की परंपरा ने आज संपूर्ण बिहार को अपनी पकड़ में ले लिया है और इस पकड़ रोग से अगर देश में सबसे ज्यादा कोई राज्य प्रभावित हुआ है तो वह है बिहार, जहां अपहरण एक उद्योग के रूप में फल-फूल रहा है।
सन् 1990 के बाद से अपहरण ने बिहार में एक उद्योग का रूप धारण कर लिया। पहले राजनीति का अपराधीकरण और बाद के वर्षों में अपराधियों के राजनीतिकरण ने इस कथित उद्योग को और भी तीव्रता प्रदान कर दी। तो उस वक्त फिरौती अपहरण की घटनाओं में जो उछाल आया, उसका क्रम आज भी निरंतर जारी है। पूर्व में यह देखा जाता था कि जो गिरोह अपहरण करता था फिरौती की राशि भी वही वसूल करता था। पर 1990 के बाद अपहतो गिरोहों ने संगठित अपराध नीति के तहत काम करना शुरू कर दिया और अपहृतों के एक-दूसरे के हाथों बेचना शुरू किया। आलम यह था कि एक गिरोह अपहरण करता, और दूसरा गिरोह अपहृत को सुरक्षित ठिकाने पर रखता और तीसरा गिरोह फिरौती की रकम वसूलता। ऐसी स्थिति में पुलिस अगर किसी तरह पहले या तीसरे गिरोह में हाथ भी डालती है तो उसे मायुसी ही हाथ लगती है। पूर्व में अपहरण पर शासन और प्रशासन ने कुछ अंकुश लगाने की कोशिश तो की, पर नब्बे के दशक से नेता, अपहर्ता पुलिस गठजोड़ ने इस तथाकथित उद्योग को नई ऊंचाइयां प्रदान कर दी, बिहार में चाहे पूर्ववर्ती सरकार की बात हो या वर्तमान की, हर निजाम में शामिल सरकारी सेना के कुछ खद्दरधारी प्यादों का गठजोड़ अपहर्ता गिरोह से जरूर रहा। सत्ता पक्ष के करीब रहने के कारण पुलिस इन प्यादों पर हाथ डालने से कतराती रही है। बिहार के अपहरण कांडों में राजनेता अपहर्ता गठजोड़ के साथ कई मामलों में तो पुलिस अधिकारी कि भूमिका भी काफी संदिग्ध रही। तीन साल पहले पटना में हुए उद्योगपति वंशीधर अग्रवाल अपहरण कांड में राजनेता के साथ-साथ पटना का एक पुलिस अधिकारी भी शामिल था।
वैसे देखा जाए तो बिहार की यह मात्र एक ही घटना नहीं जिसमें अपहर्ता और राजनेताओं के गठजोड़ का मामला सामने आया हो । पटना के प्रसिद्ध न्यूरो सर्जन डा। रमेश चंद्रा के अपहरण से लेकर उद्योगपति एस।एम सहाय अपहरण, एनएचपीसी अभियंता टी मंडल अपहरण आदि सारे घटनाओं में बाहुबली विधायकों से लेकर नामी राजनेताओं का नाम भी आया है, हांलाकि ठोस प्रमाण के बिना किसी को किसी अपराध में शामिल होने का आरोप करना नियम सिद्ध नहीं, यही बताया जा रहा है। लेकिन पुलिस की विवशता की असलियत भी आज किसी से छिपी नहीं है। पिछले पन्द्रह वर्षों में हुए हजारों अपहरण कांडों में से सिर्फ एक-दो मामलों को छोडकर पुलिस किसी और कांड का पर्दाफाश करके अपहर्ताओं के विरूद्ध कोई कठोर कानून का विधि सम्मत पालन कर पाई है, इसका जिक्र कहीं भी नहीं है। अगर सरकार, अपहरण के विरूद्ध संशोधित भादवि (भारतीय दंड विधि) की धार 364 ए अर्थात् आरोप साबित होने पर मुजरिम को आजीवन कारावास या मृत्युदंड देने के प्रावधान का सही ढंग से पालन करती, तो बिहार में अपहरण एक उद्योग का रूप कभी भी नहीं ले सकता था।
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