Maithili Sharan Gupt मैथिलीशरण गुप्त – एक सच्चे राष्ट्रकवि
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Maithili Sharan Gupt
मैथिलीशरण गुप्त द्विवेदी-युग के लब्ध प्रतिष्ठ कवि हैं। भारतीय समाज उन्हें सम्मानपूर्वक राष्ट्रकवि कहकर संबोधित करता है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद से टक्कर ले रही भारतीय जनता, नेता-राजनेता और हरेक बुद्धिजीवी गुप्त जी का साहित्यिक-मार्गदर्शन लेते रहे। गुप्त जी ने स्वतंत्रता-आंदोलन में अपनी सक्रियता को साहित्य के माध्यम से निरंतर बनाए रखा। विद्वान आलोचक, लक्ष्मी सागर वाष्र्णेय ने गुप्त जी के संदर्भ में उचित ही लिखा है कि – “जिस राष्ट्रीय चेतना और मानवतावाद का जन्म भारतेन्दु और उनके समकालीन साहित्य में हुआ था, वह मार्यादा-प्रेमी मैथिलीशरण गुप्त की रचनाओं में अपने चरम पर पहुँच गया।”
गुप्त जी द्वारा रचित काव्य-कृतियों की एक लंबी सूची है। उन्होंने लगभग चालीस काव्यकृतियों की रचना की है। उनकी प्रमुख काव्य कृतियां हैं – ‘रंग में भंग’, ‘जयद्रथ वध’, ‘भारतभारती’, ‘शकुंतला’, ‘वैतालिका’, ‘पद्मावती’, ‘किसान’, ‘पंचवटी’, ‘स्वदेशी संगीत’, ‘हिन्दू-शक्ति’, ‘सौरंध्री’, ‘वन वैभव’, ‘वक संहार’, ‘झंकार’, ‘चन्द्रहास’, ‘विकटभट’, हिडिम्बा’, ‘साकेत’, ‘प्रदक्षिणा और जयभारत’ आदि।
मैथिलीशरण की प्रसिद्धि का आधार ‘भारत-भारती’ हैं। इसमें मैथिलीशरण गुप्त की दृष्टि भारतीय जीवन के अतीत, वर्तमान और भविष्य, तीनों कालों के साथ रागात्मक संबंध स्थापित करती हुई विस्तृत काव्य फलक प्रस्तुत करती है। गुप्त जी ने एक विशिष्ट ऐतिहासिक स्थिति को समझकर तत्कालीन भारतीय समाज की समस्त साहित्यिक आकांक्षाओं की पूर्ति की। गुप्त जी की प्राय: सभी रचनाओं की कथा-भूमि इतिहास पर आधारित है। ऐतिहासिक-पौराणिक चरित्रों, पात्रों, नायकों और महान व्यक्तित्चों को उन्होंने अपनी काव्य-कृतियों के प्रधान आलंबन के रूप में स्वीकार किया। इसके माध्यम से गुप्तजी ने समस्त भारतीय समाज को अपने गौरवपूर्ण एवं समृद्धशाली अतीत से न केवल परिचित कराया, अपितु उनके माध्यम से संपूर्ण समाज के समक्ष उदात्त आदर्शों और मूल्यों को भी उभारा। इसी कारण गुप्त जी की कृतियों में वेदों से लेकर समकालीन राष्ट्रीय, राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक आदि जीवन के विविध पक्षों का समावेश है। उनका काव्य-साहित्य राष्ट्रीय जीवन का सर्वांगीण चित्र प्रस्तुत करता है भारतीय सांस्कृतिक जीवन का सार तत्व ग्रहण करते हुए वे उसे अधिकाधिक विकसित होते हुए देखना चाहते थे। वस्तुत: स्वस्थ भारतीय संस्कृति की स्थापना ही गुप्त जी के संपूर्ण काव्य का प्रधान उद्देश्य रहा है।
गुप्त जी आधुनिक काल के एकमात्र ऐसे कवि रहे हैं जिन्होंने भारतीय संस्कृति के प्राय: हर उपेक्षित अंग-प्रत्यंग और चरित्र को अपने साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत धारा में लाने का प्रयास किया है। ‘उर्मिला’ भारतीय संस्कृति की एक ऐसी ही उपेक्षित नारी चरित्र रही है। ‘साकेत’ में मैथिलीशरण गुप्त ने उर्मिला के अंतर्मन की समस्त निगूढ़ता और गहरी विरह वेदना को अभिव्यक्ति प्रदान की है। साकेत में ‘उर्मिला’ एक ऐसी भारतीय सच्चरित्र स्त्री का प्रतीक बनकर उभरी है जो नाना जीवन स्थितियों में अपने गहरे क्षोभ को अभिव्यक्त करती है। किन्तु कहीं भी उसकी विरह-वेदना या उसके हृदय का क्षोभ अत्यधिक मुखर होकर अमर्यादित नहीं होने पाया है। उसमें भारतीय नारी की गहरी नैतिक-चेतना निरन्तर विद्यमान बनी रहती है।
वस्तुतः मैथिलीशरण गुप्त भारतीय गृहस्थ-जीवन के रचनाकार हैं। उनका समस्त काव्य इसका ज्वलंत प्रमाण है। कतिपय विद्वानों ने गुप्त जी की गृहस्थ भावना को महाकवि तुलसीदास की गृहस्थ-भावना के समकक्ष माना है।
हिन्दी काव्य-क्षेत्र में गुप्त जी का अविर्भाव जिस विशेष कालावधि में होता है वह अनेक दृष्टियों से संक्रमण काल है। इनमें से जिस एक क्षेत्र में गुप्त जी की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक रही है वह भाषा-संबंधी क्षेत्र है। गुप्त जी ने काव्य क्षेत्र में गृहीत खड़ी बोली को अपने काव्य के माध्यम से काव्योपयुक्त, माधुर्यपूर्ण और कलात्मक स्वरूप प्रदान करने में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । हिन्दी साहित्य इस संदर्भ में गुप्त जी का सदैव ऋणी रहेगा।
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