Man Ke Hare Har Hai Man Ke Jeete Jeet मन के हारे हार है मन के जीते जीत
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Man Ke Hare Har Hai Man Ke Jeete Jeet
Man Ke Hare Har Hai Man Ke Jeete Jeet 800 Words
हार-जीत तो आरम्भ से ही जीवन के साथ लगी हुई है, लगी रहती है और आगे भी लगी ही रहेगी। यह जीवन का एक निश्चित एवं परीक्षित सत्य है कि जब दो फरीक (पक्ष) प्रतियोगिता की भावना से आमने-सामने आया करते हैं, तो एक के जीतने पर दूसरे को अनिवार्यतः हारना ही पड़ता है। पतझड़, वसन्त; फिर पतझड़ और फिर वसन्त, जीवन का यह निश्चित-निर्धारित क्रम है। अतः पतझड़ के आगमन पर हम न तो यह सोच कर निराश बैठ जाते हैं कि अब वसन्त ने कभी आना ही नहीं है और न ही वसन्त के आगमन पर आशा और उन्माद से भर कर यह मान लेते हैं कि इस आए वसन्त ने कभी जाना ही नहीं है। वसन्त आया, उस का भी स्वागत। पतझड़ आया-आओ पतझड़, तुम्हारा भी स्वागत । बस, जब व्यक्ति का मन इस तरह की समतावादी चेतना से भरा रहता है, तब वह साँसारिक हार-जीत की कभी कुछ भी परवाह न कर अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए शाश्वत पथ पर चल अपनी यात्रा को ठीक से जारी रख पाता है।
मन सभी इन्द्रियों का स्वामी और केन्द्र है। वह सभी का संचालक भी है। उसी में पहले कुछ करने का, कोई खेल खेलने का विचार बनता है। तभी अन्य अंग उस विचार को स्वरूपाकार देने के लिए सक्रिय हुआ करते हैं। मन में बना विचार यदि ढीला-ढाला हुआ करता है, तो शरीर तथा शेष अंग भी शिथिल या ढीले-ढीले रह कर ही उसकी पूर्ति की दिशा में बढ़ा करते हैं। इस तरह किया कार्य पहले तो कभी सफल होकर सिरे चढ़ ही नहीं पाता, यदि चढ़ भी जाए तो मन एवं आत्मा को वास्तविक सुख-सन्तोष प्रदान नहीं कर पाता। वह सफलता भी असफलता और जीत भी हार जैसी हुआ करती है। अतः जीवन को जीत-हार जैसी प्रत्येक दशा में आनन्दानुभूति से भरे रखने के लिए आवश्यक है कि मन को दृढ़-संकलित, कर्म के प्रति समर्पित रखा जाए। कर्म के लिए समर्पित मन ही वास्तव में शरीर तथा उसकी प्रत्येक इन्द्रिय को चुस्त-दुरुस्त रखा करता है, यह एक परीक्षित परम सत्य है।
जिस मन में खेल-खिलाड़ी की भावना भरी रहती है. वही जीवन की अच्छी-बुरी प्रत्येक स्थिति का सक्रिय सामना कर सकता है। एक अच्छा खिलाडी खेलना-यानि अपनी ओर से खेल का अच्छा एवं उचित प्रदर्शन करना ही अपना कर्त्तव्य मानता है। यह चिन्ता नहीं किया करता कि इसमें हार होगी या जीत । ऐसी मानसिकता बना कर खेलने वाला यदि हार भी जाएगा, तब भी उसका मन दुःखी या निराश होकर नहीं बैठ जाएगा। अपनी कमियों-कमजोरियो पर बार-बार विचार कर वह पुनः मन लगा कर खेलेगा, बार-बार तब तक खेलता रहेगा कि जब तक वह अपनी हार को जीत में नहीं बदलेगा। भई, जब उसके मन ने एक-दो बार हार कर भी हार नहीं मानी, तो फिर वह अवसाद के आँसू बहाते हुए, पराजित मानसिकता लिए निठल्ला होकर बैठे भी कैसे रह सकता है?
मानव-समाज ने अपने आरम्भ काल से लेकर आज तक जितनी प्रगति, जितना विकास किया है, उसके लिए जाने कितनी विघ्न-बाधाएँ सही. कितनी-कितनी असफलताएँ झेलीं और कितनी बार असफल परीक्षण किए, कहाँ है उस सब का हिसाब-किताब? यदि वह कुछ विघ्न-बाधाएँ देख कर, कुछ असफल परीक्षणों के बाद ही मन मार कर बैठ जाता, तो आज तक की उन्नत यात्रा भला कैसे और क्यों कर के कर पाता? वहीं अन्धेरी गुफाओं और घने जंगलों के सघन वृक्षों की डालियों में ही उछल-कूद न मचा रहा होता? पर नहीं, मनुष्य के लिए हार मान हाथ-पर-हाथ धर कर बैठ जाना कतई संभव ही नहीं हुआ करता। मानव-मान हार को हार मान ही नहीं सकता। सच्चे मनुष्य का मन तो हमेशा जीत के आनन्दोल्लास से भरा रहता है। उत्साह से भरे उसके कर्मठ मन को उठता हुआ हर कदम जीत या सफलता को निकटतर खींचता हुआ प्रतीत होता है। तभी तो वह गर्मी-सर्दी, वर्षा-बाढ़ आदि किसी की भी परवाह न करते हुए, वसन्त या शरद की सुन्दरता की ओर आकर्षित होते हुए भी उन की उपेक्षा करते हुए अपने गन्तव्य की ओर कदम-दर-कदम हमेशा बढ़ता रहता है-तब तक कि जब तक उस तक पहुँच कर अपना विजय-ध्वज नहीं फहरा देता।
इन तथ्यों के आलोक में शीर्षक-सूक्ति में व्यंजित सत्य को नतमस्तक होकर स्वीकार कर ही लेना चाहिए कि हार-जीत दोनों मन के व्यापार हैं। सुदृढ़ मन के लिए हार का कुछ अर्थ या प्रयोजन नहीं हआ करता । मंजिल तक न पहुँच पाने की स्थिति में भी वह अपनी अनवरत गतिशीलता में ही जीत का सख एवं आनन्द प्राप्त कर लिया करता है। वह प्रयत्न को ही सर्वोच्च महत्त्व दिया करता है। किसी भी स्थिति में उससे विमुख होना नहीं जानता। ऐसे सुदृढ मना व्यक्तियों से जीत कभी दूर रहा भी नहीं करती; बल्कि कच्चे धागे से खिंची चली आती है – जीत!