Mazhab Nahi Sikhata Aapas Mein Bair Rakhna मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
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Mazhab Nahi Sikhata Aapas Mein Bair Rakhna
Mazhab Nahi Sikhata Aapas Mein Bair Rakhna 800 Words
मज़हब यानि जाति एवं धर्म, सभी ने इन्हें अपने ग्रन्थों में बड़ा पवित्र माना और उच्च महत्त्व दिया हैं। इसे नस्ल, वंश और रक्त की पवित्रता का अनवरत प्रवाह भी स्वीकार किया है। और हाँ, इस का सम्बन्ध उतना बाह्य आचार-व्यवहारों से नहीं माना, जितना कि आन्तरिक सूक्ष्म प्रक्रियाओं, आत्मा एवं मन से माना है। जो वस्तु मन में रहती है या रखी जा सकती है, वह बिना किसी भड़क या भनक के रह सकती है. यह एक निश्चित एवं तत्त्वगत सत्य है। आप मन में किसी को भी, कुछ भी रखिए, मुझे या किसी को क्या ऐतराज हो सकता है? होना भी नहीं चाहिए और मेरे विचार में होता भी नहीं है। ऐसे में स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि ये जो दंगे-फसाद और सिर-फुटौवल हो जाया करते हैं, जिन्हें मजहबी दंगे, जातिगत फसाद या धार्मिक उन्माद कह कर पारिभाषित किया जाता है, वे सब क्या हैं? क्यों होते रहते हैं? क्या वे जरूरी हैं? अटाल्य हैं?
प्रश्न सारे एक जैसे हैं और समान रूप से विचारणीय भी हैं। मजहब, जाति और धर्म जब कट्टरता का आवरण पहन कर भीतर से बाहर आ जाया करता है अर्थात् बाह्याचार-व्यवहार बन कर अपनी श्रेष्ठता का प्रतिपादन और दूसरों के प्रति हेयता का प्रचार-प्रसार करने लगता है, तभी वह दंगे-फसाद आदि का कारण बन जाया करता है। जहाँ तक अपने को श्रेष्ठ बताने की बात है, वहाँ तक तो ठीक है और सहनीय भी हो सकती है; पर होता यह है कि हम अपनी बात दूसरों पर थोपने का प्रयत्न करने लगते हैं। जब यों नहीं थोप पाते तो भावनाओं में बह कर उसे बलात् दूसरों पर आरोपित करने लगते हैं। राजाश्रय या शक्ति पाकर दूसरों के मजहबी या जातिगत प्रतीकों को भूमिसात कर उसके स्थान पर अपने प्रतीक खड़े करने लगते या कर देते हैं जैसाकि मध्य काल में अनेकशः हुआ; तब वैमनस्य उग्र होकर दंगे-फसाद के रूप में उमड़ पड़ा करता है-ठीक उसी तरह जैसे कोई फोड़ा पक कर बहने लगता है। पीप निकल जाने के बाद ही वह ठीक हो पाता है। वैसे ही रक्तपात या तोड़-फोड़ के बाद ही वह उन्माद ठण्डा पड़ता है।
यह एक वास्तविकता है कि मजहबी-उन्माद भारतीय न होकर बाहर से आई वस्तु है। भारतीय सभ्यता-संस्कृति तो आरम्भ से ही ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त को मानने वाली रही है। तभी तो कोल-मंगोल. हण आदि कितने ही आक्रमणकारी यहाँ आए और यहीं के होकर रह गए। कुछ इस तरह घल-मिल गए कि आज उनकी कोई अलग पहचान तक शेष नहीं रह गई है। लेकिन मध्यकाल में जो आक्रमणकारी आए, उन्होंने तरह-तरह के अत्याचार तो किए ही,यहाँ के परम्परागत जातिगत प्रतीकों को भमिसात कर अपने प्रतीक भी बना दिए और अपनी अलग पहचान भी बनाए रखी। वस्ततः सत्य यह भी है कि उन्हीं में से ऐसे लोग भी निकलकर सामने आए कि जिन्होंने एकेश्वरवाद की स्थापना की। कहा कि अल्लाह कह लो या ईश्वर, मूल तत्व एक ही है। वह मन्दिर-मस्जिद में न रह कर घट-घट में रहता है। सभी के साथ समान व्यवहार करता और सिखाता है। उस तक पहुँचने के रास्ते अलग-अलग हैं और हो सकते हैं। सारे धर्म, मजहब और जातियाँ आदि वे अलग-अलग रास्ते ही हैं, अन्य कुछ नहीं। उनमें से किसी का भी कोई उच्चतम मान्य ग्रन्थ इनके या ईश्वर-अल्लाह के नाम पर आपस में बैर-विरोध रखना या लड़ना-झगड़ना नहीं सिखाता। वह तो मात्र सत्य को पहचान प्रेम और भाईचारे की, मानवीयता की शिक्षा देता है। लेकिन हम उन धर्मों-मजहबों को मानने वालों ने भीतर सत्यों को न पहचान मात्र बाह्याचारों को ही अपना लिया, सभी तरह के झगड़ों का मूल कारण यही है।
हमेशा ध्यान में रखने की बात यह होती है कि कोई मजहब या धर्म जिस पावन धरती पर पलता-पुसता और पनपता है, उस देश-धरती का मूल्य एवं महत्त्व उस सब से पहले हुआ करता है। उस देश और धरती के सुरक्षित बने रहने पर ही वह मज़हब, धर्म या जाति बना रह सकता है। फिर कोई भी मजहब यह नहीं सिखाता कि आपस में एक-दूसरे का सिर भी फोड़ो और देश या राष्ट्र को भी तोड़ो। इस प्रकार की तोड़-फोड़ की शिक्षा या प्रेरणा देने वाले तत्त्व वास्तव में मजहबी एवं धार्मिक तो कभी भी नहीं हुआ करते। निश्चय ही मात्र स्वार्थी तत्त्व हुआ करते हैं। अंग्रेज़ क्योंकि भारत को गुलाम बनाए रखना चाहते थे। इस कारण उन्होंने अपनी ‘बाँटों और राज करो’ नीति के तहत भारत में मजहबी जुनून इस सीमा तक जगाया कि भारत-विभाजन हो जाने के इतने वर्षों बाद भी वह कायम है या उसे निहित स्वार्थी देशी-विदेशी तत्त्वों द्वारा उसे कायम रखने का षड्यंत्रपूर्ण प्रयास किया जा रहा है। लेकिन स्वतंत्रता-संघर्ष के उन दिनों में शायर अलामा इकबाल का यह कथन जितना सत्य-स्मरणीय था, आज भी है कि
“मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,
हिन्दी हैं, हम वतन हैं, हिन्दोस्ताँ हमारा।”