Essay on Media in Hindi मीडिया पर निबंध
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Essay on Media in Hindi
मीडिया और लोकतंत्र
मीडिया को लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तम्भ और मूलाधार कहकर संबोधित किया गया है। यह बात जहाँ एक ओर भारतीय समाज में मीडिया के महत्वपूर्ण स्थान को उजागर करने वाली है वहीं दूसरी ओर यह कथन भारतीय समाज में मीडिया की एक अत्यंत वांछित भूमिका को भी प्रत्यक्षतः रेखांकित करता है। अभिप्राय यहाँ अत्यंत स्पष्ट और सीधा है कि मीडिया को जहाँ भारतीय लोकतंत्र व्यवस्था में निरीक्षक का स्थान प्रदान किया गया है, वहीं उससे एक गहरी सामाजिकता और देश हित की प्रगाढ़ भावना की भी मांग की जाती रही है।
यह बात पूर्णत: सही और उपयुक्त कही जा सकती है कि भारतीय समाज में मीडिया को एक लोकतान्त्रिक स्थान प्राप्त हुआ है। किन्तु हम जिस तीव्र गति से उदारीकरण और भूमण्डलीकरण की स्थितियों और जीवन-परिस्थितियों को ग्रहण करते जा रहे हैं, मीडिया भी अपनी सामाजिकता की भूमिका को शनैः शनैः छोड़ने लगा है। अथवा यह बात कुछ इस प्रकार से भी कही जा सकती है कि इस व्यावसायिक और पूर्णत: व्यावहारिकता की मांग करने वाले समय और समाज में मीडिया के मूलभूत तत्वों के स्वरूप में भी परिवर्तन उभरने लगे हैं। इस बात को प्राय: आपने भी यदा-कदा अनुभव अवश्य किया होगा कि हमारा मीडिया अपनी गहरी सामाजिकता को छोड़ कर और बनावटी सामजिकता को आज लक्ष्य और अपना उद्देश्य बनाता जा रहा है।
इस बात से कोई भी समझदार इंसान अपनी असहमति कभी भी नहीं रख सकता कि हमारे समाज को जाग्रत और मुद्दों, समस्याओं एवं स्थितियों-परिस्थितियों के प्रति अधिक संवेदनशील बनाने में हमारा मीडिया अपनी एक प्रधान और प्रभावशाली भूमिका अवश्य रखता है। किन्तु अगर वह अपनी इस महनीय भूमिका का निर्वाह पूरी सजगता और कर्तव्यबोध के साथ निरन्तर करता रहता है, तभी वह समाज के लिए अपना कोई उपयोगी मूल्य रखता है। अन्यथा उसका महत्व व्यावहारिक स्तर पर इस समाज के लिए शून्य ही रहेगा।
आज वैश्विक परिस्थितियां निरन्तर अति तीव्र गति से परिवर्तित हो रही हैं। पूंजीवादी मनोवृत्ति मानवीय संबंधो में लगातार धंसती चली जा रही है। इस परिवर्तित परिस्थिति ने मीडिया के सामाजिक चरित्र को भी कहीं न कहीं और किसी न किसी रूप से प्रभावित तो किया ही है।व्यावसायिकता का मीडिया जगत में इधर कुछ वर्षों से लगातार बोलबाल ही बढ़ता चला जा रहा है। इससे खबरें और मीडिया द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली रिर्पोटे प्राय: किसी न किसी रूप में प्रभावित होती रहती हैं। इससे मीडिया चैनलों के धन्नासेठों को अनेक आर्थिक और राजनैतिक फायदे तो अवश्य होते हैं, किन्तु समाज में जिन में मीडिया के प्रति गम्भीरता से लगाव और आकर्षण होता है, भ्रांतिया पैदा होती हैं। उनमें भटकाव और समस्याओं एवं युद्धों के प्रति एक प्रकार की दूषित मनोदृष्टि और हानिकारक दृष्टिकोण पैदा होता है। वस्तुत: आज हमारे समाज का कुछ एक मीडिया इसी प्रकार के कार्य कर रहा है।
अनेकसमाजशास्त्रियों और बुद्धिजीवियों ने सामाजिक जागरूकता एवं परिवर्तन की व्यापक भूमिका के निर्वाह के संदर्भ में मीडिया की अविस्मरणीय भूमिका और उपयोगिता को स्वीकार किया है।
आज का संचार का युग है। सारा विश्व किसी एक ही सूत्र में पिरोया हुआ प्रतीत होने लगा है। इस कार्य को करने में मीडिया की भी एक उल्लेखनीय भूमिका रही है। उन्होंने बृहद समाज को इसके लिए अपने-अपने स्तर पर अनुकूलित करने का महनीय कार्य संपन्न किया है। किन्तु जैसा कि कहा जा चुका है कि व्यावसायिकता और पूंजीवादी-मनोवृति की अविस्मरणीय रूप से उदघाटित होती केन्द्रीयता से आज मीडिया के सामाजिक-चरित्र और सामान्य जनता के प्रति उसकी पक्षधरता का निरन्तर स्खलन होता जा रहा है। आज मीडिया इस प्रकार के मुद्दों और समस्याओं का चयन और संकलन करने पर बल देने लगा है, जिनसे विसंगतियों और कुरीतियों की जड़ें और मजबूत होने लगी हैं। जबकि मीडिया की जिम्मेदारी और उसका नैतिक कर्तव्य सामाजिक जीवन को सुन्दर बनाना होना चाहिए।
अत: आज मीडिया को स्वयं अपने चरित्र का आत्म विश्लेषण करना होगा, और अपनी सामाजिकता की रक्षा किसी भी प्रकार से करनी ही होगी, तब जाकर उसका पद ‘लोकतंत्र का स्तम्भ’ कहलाने लायक बना रह सकेगा।
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मीडिया की नई धार
मीडिया पिछले पन्द्रह वर्षों में अपने आप में जबरदस्त बदलाव लाया है। इसने अपने शक्ल और विषय वस्तु में ही नहीं अपितु उद्योग में भारी परिवर्तन किये हैं।
मीडिया जगत का स्वरूप पहले एक छोटे व्यवसाय और लघु उद्योग की तरह था, लेकिन आज के समय में यह शेयर बाजार का खिलाड़ी बन गया है। सन् 2000 में जो अखबार विज्ञापन के लिए तरस रहे थे, जिनकी तरफ कोई विशेष ध्यान नहीं देता था, वे आजकल खुद बड़े पैमाने पर विज्ञापनदाता बन गए हैं। इस साल जब जी और भासकर वालों का अखबार डीएनए और हिन्दुस्तान टाइम्स का मुंबई से प्रकाशन शुरू हुआ, तो सभी ने बहुत जोर से विज्ञापनबाजी की। जिस व्यवसाय का प्रबंधन परिवार से जुड़े हुए पुराने व्यवस्थापकों के हाथों में होता था, वे आजकल देश के सबसे बड़े कन्जूमर्स मल्टीनेशनल्स से अपने मैनेजरों को प्रशिक्षित कर रहे हैं और भारतीय प्रबंधन संस्थान जैसी संस्थाओं से अपने कर्मचारियों को प्रशिक्षित कर रहे हैं।
पिछले साल एचटी मीडिया लिमिटेड कंपनी शेयर बाजार में सूचीबद्ध हुई। उससे पहले, 2004 में, आंध्रप्रदेश की डेक्कन क्रोनिकल। और अब 2006 में दैनिक जागरण की माह कंपनी, जागरण प्रकाशन ने आईपीओ जारी किया हैं। टीवी में सिर्फ प्रसारण कंपनियां ही नहीं, बालाजी टेलीफिल्म्स जैसी सॉफ्टवेयर उत्पादक कंपनियाँ भी शेयर बाजार में उतर रही हैं।
इसका प्रमुख कारण प्रतिस्पर्धा में हो रही वृधि है। प्रतिस्पर्धा में वृद्धि की वजह से बिना विस्तार के जिंदा रहना मुश्किल हो गया है। और विस्तार के लिए अधिक पैसा सूचीबद्ध होकर ही इकट्ठा किया जा सकता है।
आजकल मीडिया कंपनियों के शेयरों को स्टॉक मार्केट में बहुत अच्छा मूल्य मिल रहा है। शेयर बेचकर निवेश के लिए पैसे का जुगाड़ करना आसान हो गया है। पर आर्थिक रूप से मजबत कंपनियां ही सूचीबद्ध हो सकती हैं। जो मीडिया कंपनियां लाभ नहीं कमा पाईं। उनके लिए यह विकल्प नहीं है। इस साल कुछ टीवी चैनलों ने ज्यादा लाभ नहीं कमाया, पर उनके शेयर बाजार में बहुत तेजी पर हैं। आश्चर्य की एक और बात यह है कि टीवी कंपनियों की ऊंची टीआरपी का शेयर मूल्य से कोई सीधा ताल्लुक नहीं।
आज से अगर बीस साल पहले देखा जाए तो अखबार अपनी कीमत रियल स्टेट या जमीन और राजनीतिक प्रभाव से आंकते थे। इंडियन एक्सप्रेस के रामनाथ गोयनका पर आधारित किताब ‘वारियर आफ दि फोर्थ स्टेट’ पढ़कर यह स्पष्ट होता है कि रामनाथ जी बहुत पहले समझ गए थे कि रियल स्टेट अखबार वालों के लिए कितना महत्व रखता है। उन्होंने कई बड़े शहरों में जमीन खरीदीं और जब मुश्किल सामने आई, जैसे आपातकाल के दौरान, तो इन पर बनी इमारतों के किराए से गुजारा हुआ। लेकिन अब जमाना बदल गया है, और उसके साथ मीडिया उद्योग बदल रहा है। जब मीडिया शेयर बाजार का खिलाड़ी बन जाता है, तो पत्रकारिता पर पड़ने वाले असर का कई जवाब हो सकता है। अगर आपको अच्छे परिणाम दिखाने हैं, तो खुब विज्ञापन मिलना चाहिए और अगर विज्ञापन पर जोर है, तो ज्यादा विज्ञापन करने वाली कंपनियों के बारे में प्राय: कुछ नकारात्मक नहीं लिखा या दिखाया जा सकता है।
समाचार हासिल करने का स्वस्थ तरीका है, तेज तराई रिपोर्टिंग करो और अगर लोग बड़ी तादाद में चैनल देख रहे हैं, तो विज्ञापन आएगा और शेयर बाजार में कीमत बढ़ेगी।
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मीडिया का ‘वाई’ फैक्टर
फैशन का ग्लैमरस शो – यह शीर्षक हिंदी के एक अखबार की एक खबर का था। इस शीर्षक में सिर्फ एक शब्द का हिंदी का है। मसला मिर्फ शीर्षक का नहीं है। सिर्फ खबर की भाषा ही नहीं इंगलिशिया रही है। वेलेंटाइन डे करीब दस साल पहले मीडिया के लिए कोई खास मौका नहीं हुआ करता था। अब टीवी मीडिया के लिए तो वेलेंटाइन डे विशिष्ट दिवस है। प्रिंट मीडिया भी इसकी लपेट से नहीं बचा है। पूरे पेज के मैसेज छपेंगे, कई अखबारो में । जिसमें प्रेमिका प्रेमी से कुछ कहेगी और प्रेमी प्रेमिका से कुछ कहेगा।
बात सिर्फ अंग्रेजी अखबारों की नहीं हो रही है। तमाम अखबार जैसे बेटों और बेटियों के हो गये हैं, पापाओं और मम्मियों को उनसे समायोजन करने में थोड़ी सी दिक्कत आ रही है। यही तो मीडिया का ‘वाई’ कारक है। वाई अर्थात यूथ यानी युवा, तब मीडिया के लिए वाई तत्व महत्वपूर्ण क्यों हो रहा है, इसका जवाब भारतीय जनसंख्या के ढाँचे में छिपा है। इस देश की करीब 54 प्रतिशत जनसंख्या अभी 25 साल की उम्र के बीच हैं। मार्केटिंग के हिसाब से देखें, तो अखबारों पर युवा-प्रिय होने के ठोस दबाव हैं। मीडिया मार्केटिंग का तर्क बताता है कि मीडिया चाहे प्रिंट हो अथवा टीवी, एक आदत की तरह होता है। जिनकी उम्र करीब चालीस साल है उन्हें अगर कोई अखबार अथवा टीवी चैनल अपना ग्राहक बनाये, तो औसत तौर पर यही उम्मीद कर सकता है कि करीब बीस साल तक वह उनका ग्राहक रहेगा। अर्थात् साठ की औसत आयु में वह ग्राहक ऊपर पहुँच जायेगा। चालीस के व्यक्ति को ग्राहक बनाने का प्रतिफल बीस साल मिलेंगे। बीस साल के नौजवान को अगर ग्राहक बनाया जाये, तो वह अखबार के साथ करीब चालीस साल तक रह सकता है।
यह अनायास नहीं है कि अब से करीब दस साल पहले ही कुछ अखबारों ने आठ-दस साल के बच्चों को भी अपना लक्ष्य बनाना शुरू किया था। तमाम स्कूलों में लगभग मुफ्त अखबार वितरण नीति सामने आयी। आठ साल का बच्चा अगर चार साल तक मुफ्त अखबार देखे, तो अखबार उसकी आदत बन सकता है। आठ साल के बच्चे को पकड़ो, तो वह अखबार का ग्राहक ज्यादा लंबे समय तक बना रह सकता है। बेटे टाइप अखबार क्या हैं? बेटे-बेटी टाइप खबरें क्या हैं? कुछ मौज-मसाला हो। कुछ फड़कते हुए एसएमएस हों। कुछ फैशन के ग्लैमरस शो हों। कुछ पॉप शो हों। कुछ युवा केन्द्रित रियलटी शो हों। वैलेंटाइन की मैसेजबाजी हो। रोज ही मैसेज करने का स्कोप हो। भाषा ऐसी हो जो समझ में आए। शुद्ध हिंदी नहीं, इंगलिश और क्षेत्रीय भाषा मिश्रित हिंदी। तमाम महानगरों और छोटे नगरों में पब्लिक स्कूलों और कॉनवेंट स्कूलों की करामत से ऐसे बच्चे और नौजवान तैयार हुए हैं, जिन्हें अंग्रेजी के दरवाजे से दाखिल हिंदी ही समझ में आती है, ऐसी समझ रखने वालों को अब अपमार्केट कहा जाता है। ऐसा अपमार्केट ही विज्ञापनदाता का अभीष्ट है।
ऐसा नहीं है कि सारे अखबार इन सारे तत्वों का ध्यान रखते हैं। पर जो ध्यान नहीं रखते, वे देर-सबेर नंबर वन अथवा मुख्य धारा की दौड़ में नहीं रहेंगे। बेटा टाइप अखबार का मतलब यह कि खबर और भाषा ऐसी हो, जो युवाओं को आकर्षित कर सके। यानी ऐसी भाषा का अखबार ‘सीपी में फेस्ट’ अर्थात कनॉट प्लेस में फेस्टीवल। युवा अधीर है। फेस्टीवल पुरा बोलने में दिक्कत है। फेस्ट काफी है।
भविष्य का शीर्षक यह हो सकता है- ‘पीएम का सेंटी स्पीच’ अर्थात प्राइममिनिस्टर ने सेंटीमेंटल भाषण दिया। एसएमएस ने संक्षिप्तीकरण की नयी स्वीकार्य पद्धति विकसित कर दी है।
युवा के पास टाइम नहीं है। खबरें, लेख संक्षिप्त से संक्षिप्ततर होते जा रहे हैं। अंग्रेजी के एक अति गंभीर अखबार ने लेखकों के लिए निर्देश लिखे हैं कि 1500 शब्दों के लंबे लेख हम नहीं छाप सकते। 1500 शब्दों का लेख अब लंबा हो गया है। सात सौ आठ सौ शब्दों से ज्यादा का मामला नहीं चलेगा। आगामी पांच सालों में यह सीमा पाँच सौ शब्दों तक सिकुड़ सकती है। यह मीडिया का वाई तत्व है।
इस देश में छोटे शहरों में रहने वाले ऐसे नौजवानों की तादाद बहुत ज्यादा है। जिनका वेलेंटाइन डे, तमाम किस्म की फेस्टीवलबाजी से कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि उनके पास पैसा नहीं है। आज की सच्चाई यह है कि जिनकी जेब में पैसा नहीं है। ऐसे युवा मीडिया के वाई तत्व के दायरे में नहीं आते।
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