नदी की आत्मकथा Nadi Ki Atmakatha in Hindi Essay -Autobiography of River
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Nadi Ki Atmakatha in Hindi Essay
Nadi Ki Atmakatha in Hindi Essay 800 Words
नदी, नहर, सरि, सरिता, प्रवाहिनी, तटिनी, क्षिप्रा आदि जाने कितने नाम हैं मेरे। सभी नाम मेरे रूप को नहीं, बल्कि गति को ही प्रकट करने वाले हैं। सर-सर सरकती चलती रहने के कारण मुझे सरिता कहा जाता है। सतत प्रवाहमयी होने के कारण मैं प्रवाहिनी हूँ। इसी प्रकार दो तटों अर्थात् किनारों के बीच रहने वाली होने के कारण तटिनी और गति की क्षिप्रता यानि तेजी के कारण क्षिप्रा हूँ। और आम शब्दों में नहर हूँ मैं-जी हाँ, नहर या नदी। कहीं भी पहुँच जाऊँ, वहाँ की धरती, पशु-पक्षी आदि सभी प्राणियों, मनुष्यों और खेत-खलिहानों की प्यास बुझा, उनका ताप हर, ठण्डा और फिर कुछ ही देर में हरा-भरा कर देना मेरा नित्य प्रति का काम है। यह काम करते रहने में ही मेरे जीवन की सफलता एवं सार्थकता है। मैं नदी जो हूँ।
मैं नदी हूँ। आज मेरा जो स्वरूप तुम सब को दिखाई दे रहा है, वह हमेशा ही ऐसा नहीं था। कभी मैं किसी सजला हरी और बर्फानी पर्वतशिला की कोख में उसी तरह चुपचाप, अनजान और निर्जीव-सी पड़ी रहती थी, जैसे माता की कोख में किसी जीव का भ्रूण पड़ा रहा करता है। फिर समय आने पर जैसे प्रसव-वेदना से कराह कर नारी एक सन्तान को जन्म दिया करती है, उसी प्रकार पहाड़ी के उस शिलाखण्ड के अन्तराल से एक दिन मेरा जन्म हुआ। जैसे जन्म के बाद उसके रोने से सारा घर-प्रांगण गूंज उठा करता है, उसी प्रकार शिलाखण्ड की गोद से मेरे उतरते ही वह सारी घाटी एक प्रकार के मधुर संगीत से, सरस सुरीली स्वर-लहरी की गूंज से जैसे गा उठी। बस, मुझ में और मानव-सन्तान में अन्तर केवल इतना ही है कि वह जन्म लेने के तत्काल बाद चलने नहीं लगती, जबकि मैंने उसी क्षण चलना आरम्भ कर दिया। चलते हुए आगे-ही-आगे बढ़ती गई। पीछे रह गई धारा के रूप में मानो अपना आँचल फैला कर, उसे मेरी धारा आँचल के साथ बान्ध कर मेरे साथ अपना सम्बन्ध तो बनाए रखा, साथ ही अपने प्रवाह-वेग से मुझे आगे-ही-आगे बढ़ते जाने की प्रेरणा और उत्साह भी बंधाती रही।
मैं सरिता हूँ न, सो सर-सर सरकती ही गई। मेरे जन्म के साथी वे पहाडी शिलाखण्ड, इधर-उधर बिखरे पत्थर, इधर-उधर की वनस्पतियाँ, अखुए, पेड़-पौधे आदि मेरे हाथ, मेरे पैर, मेरे आँचल को पकड़-थाम मेरी राह रोकने का प्रयास करने लगे, पर मैं कहाँ रुकने वाली थी। नहीं रुकी। कई बार किसी बड़े शिलाखण्ड ने आगे आ कर मेरा पथ रोकने की कोशिश की। तब मेरी कृष-काया रुकती-डुबती हुई-सी प्रतीत हुई, पर कुछ ही देर में मेरे भीतर जाने कहाँ से उत्साह भर आता कि अपने तन को संचित और शक्ति को उभार कर फिर आगे बढ़ आती। इसी प्रकार कई बार राह में आ कर कोई गड्ढा, कोई खाई मुझे अंक में भर कर वहीं बैठी और मुझे बिठाए रखना चाहती; पर मैं उसकी बाँहों की गर्मी में कुछ क्षण तो सुख का अनुभव करती, फिर जैसे ऊब एवं घुटन का अनुभव करते हुए मैं उछल कर निकली और फिर आगे चलने लगी। कई बार ऐसा भी हुआ कि जैसे अकेली जाती छरहरी युवती को निहार मनचले छोकरे उस से छेड़खानी करने लगते हैं, उसी प्रकार घने-जंगलों में से गुजरते हुए अपनी लम्बी डालियाँ रूपी बाहें फैला कर राह में आने वाले वृक्ष मुझ नदी से छेड़-छाड़ करने लगते । अपनी सर्रसर्राह रूप में मैं उन पर गुर्राती हुई आगे बढ़ती गई।
इस प्रकार पहाड़ों, जंगलों को पार करते हुए मैं मैदानी इलाके में आ पहुँची। जहाँ से भी गुजरती, वहाँ मेरे आस-पास किनारे बना दिए जाने लगे। पटरियाँ भी बनने लगीं। मेरे कदम निरन्तर आगे बढ़ते गए, निरन्तर मेरा पाट फैलता गया। उस पर वैसे ही किनारे, पटरियाँ, पुश्ते आदि बनाए जाते रहे। यहाँ तक मेरे तटों के आस-पास छोटी-बड़ी बस्तियाँ आबाद होती गई। गाँव बसे। मेरे पानी से सींचा जाकर वहाँ खेती-बाड़ी भी होने लगी। जगह-जगह सुविधा के लिए लोगों ने मुझ पर छोटे-बड़े पुल बना लिए। कई स्थानों से मुझे काट कर छोटे नाले भी बना लिए. ताकि उनसे खेती-बाड़ी को सींचा जा सके। उस पानी का अन्य प्रकार से भी उपयोग सम्भव हो सके। जो हो, इस तरह अनेक स्थानो से गजरती, अनेक बाधाओं को पार करती हुई मैं निरन्तर आगे-ही-आगे बढ़ती चली गईं। आपने मुझे रोक कर मेरी कहानी सुननी चाही, सो मैंने चलते-चलते सुना दी।
अब मैं अपने प्रियतम सागर से मिलकर उसी में लीन होने जा रही हैं। मैंने अपने आस-पास कई बार कई तरह की घटनाएँ भी घटते देखी हैं । सैनिकों की टोलियों, सेनापतियों, राजाओं, महाराजाओं, राजनेताओं, दंगाइयों, धर्मदूतों आदि को मैंने इन पुलों से गुजरते हुए देखा। धर्मसंस्कृतियों के स्वरूप बनते बिगड़ते, उन्हें आगे बढ़ते या घटते हुए भी देखा । राज्य परिवर्तित होते हुए देखा है। पुरानी बस्तियाँ ढहते और नई बस्तियाँ बसते हुए भी देखी हैं। सभी कुछ धीरज से सुना और सहा है। मै आप सब से भी यही कहकर आगे बढ़ जाना चाहती हूँ। चाहती हूँ कि तुम लोग भी हर कदम पर आने वाली विघ्न-बाधाओं को पार करते लगातार मेरी ही तरह आगे-ही-आगे तब तक चलते-बढ़ते रहो कि जब तक अपना अन्तिम लक्ष्य न पा लो।
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