नर हो न निराश करो मन को पर निबंध Nar Ho Na Nirash Karo Man Ko Essay in Hindi
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Nar Ho Na Nirash Karo Man Ko
Nar Ho Na Nirash Karo Man Ko Essay in Hindi 900 Words
बोलचाल में अक्सर कहा जाता है – ‘वह तो नर पुरुष है’ या फिर ‘वह तो नर है, नर।’ सामान्य रूप से नर और परुष शब्द एक ही अर्थ के व्यंजक हैं। पुरुष का अर्थ है-नर और नर का अर्थ है पुरुष। लेकिन जब हम गम्भीरता से कथन के लाक्षणिक और व्यंजक अर्थभाव पर विचार करते हैं, तो स्पष्ट है कि ‘नर’ का प्रयोग केवल पुरुष की सामान्यता को प्रकट करने के लिए नहीं किया गया; बल्कि उस के वैशिष्ठ्य को, उस के पुरुषत्व एवं श्रेष्ठतम वीरत्व के भाव को अभिव्यंजित करने के लिए किया गया है। इस ध्वन्यात्मक तथ्यों के आलोक में जब शीर्षक-पंक्ति ‘नर हो न निराश करो मन को के अर्थ और भाव-विस्तार पर विचार करते हैं, तो मनष्य-जीवन के अनेक कोने स्वतः ही उजागर होते जाकर उन्हें पुरुषत्व के, अनवरत पुरुषार्थ के आलोक से जगमगाते जाते हैं।
इस भावाविल पंक्ति को पढ़ या सुन कर लगता है जैसे कोई चुनौती भरे स्वरों में, ललकार की टंकार भरी ध्वनि में कह रहा है-वाह! कैसे मनुष्य हो तुम। अच्छे मनुष्य हो कि संसार की जरा-जरा सी विपरीत लगने वाली बातों और स्थितियों से ही घबरा कर यों बैठ जाते हो कि जैसे अभी तक चलना, आगे बढ तक अपनी मंजिल को खींच कर पास ले आना कभी सीखा या आया ही न हो। यों माथा पीटने लगे. जैसे आसमान गिर पड़ा या जमीन फट गई हो। अरे, नर हो। वीर पुरुष हो। अपार पुरुषत्व तुम्हारे पास है। एक बार की असफलता क्या महत्त्व रखती है। अरे, उठो और निराशा त्याग कर परिस्थितियों के सामने सीना खोल दो। एक नन्ही चींटी को चावल का दाना ले जाते हुए देखा है कभी? कभी दीख पड़े, तो उसके सामने तिनका अड़ा कर उसका रास्ता रोकने या वह दाना छीनने का प्रयास करो। फिर देखो, वह कैसे छटपटाती है। उस एक दाने के लिए कैसे और कितना संघर्ष करती है। तब तक संघर्ष से मुँह न मोड़ेगी कि जब तक वह दाना प्राप्त कर उसे अपने भौण तक ले जाने में सफल न हो जाए। एक तुम हो कि ज़रा-सी बात पर मुँह लटका कर बैठ गए। वाह! क्या कहने हैं तुम्हारे पुरुषत्व के।
नर यानि बुद्धि-बल से संयमित और इसी कारण सभी प्राणियों में श्रेष्ठ कहलाने वाले मनुष्य और निराशा का वास्तव में दूर का भी रिश्ता या वास्ता न है और न होना ही चाहिए। हर हाल में निराशा से कोसों दूर रह आशा के उजास से भरे रहने में ही सच्चा नाता है। जिस दिन नर मनुष्य निराश या सन्तुष्ट होकर बैठ जाएगा, उस दिन वास्तव में सृष्टि का विकास ही रुक जाएगा, इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं। निराशा या उदासी यदि जीवन के तथ्य होते, तो आज तक विश्व में जो प्रगति एवं विकास संभव हो पाया है, कदापि न हो पाता। नरता का पहला और अनिवार्य लक्षण है हर हाल में, हर स्थिति में निरन्तर आगे-ही-आगे बढ़ते जाना। जिस तरह जल की नन्हीं, कोमल एवं स्वच्छ धारा अपने निकास-स्थान से निकलकर एक बार जब चल पड़ती है, तो सागर में मिले बिना कभी रुकती या विश्राम नहीं लिया करती; उसी प्रकार नरता भी कभी लक्ष्य पाए बिना रुका नहीं करती। चट्टानें धारा की राह रोकने आ जाया करती हैं, कभी रेगिस्तान उसे सोख लेने की कोशिश करते हैं। कभी झाड़-झंखाड़ उसे रोकते हुए प्रतीत होते हैं; पर धारा कभी रुकती नहीं। यदि चट्टान आदि के आने पर कुछ समय के लिए – नहीं क्षणों के लिए रुकती या ठहरती हुई-सी भी प्रतीत होती है, तो अपनी शक्ति एवं प्रवाह संचित कर, इधर-उधर से राह बना फिर आगे बढ़ जाया करती है; नरता की कार्य-पद्धति भी ठीक इसी प्रकार की हुआ करती है। वह भी क्षण या कुछ समय रुक कर, शक्ति-संचय कर और योजना बना, निराशा के माथे पर पाँव धर कर आगे बढ लेती है। इसी का नाम जीवन है। यही जीवन का निश्चित क्रम है।
नर प्राणी किसी बात से निराश होकर बैठ जाए, यह उसे कतई शोभा नहीं देता। निराश होकर बैठ जाना हार तो है ही, श्रेष्ठता से विमुख होना या उसे काल के हाथों गिरवी रखना भी है। किसी भी वस्तु को गिरवी रखने वाला व्यक्ति मान-सम्मान एवं आत्मविश्वास के साथ-साथ लोक विश्वास से भी हाथ धो बैठता है। ऐसा होना दूसरे शब्दों में निराशात्तिरेक में उसका नरता से पतित होना है। अपने-आप को कहीं का भी नहीं रहने देने जैसा है। सो नर मनुष्य हो कर कभी भूल से भी इस तरह की स्थिति, पतन और गिरावट मत आने दो। आने की सम्भावना भी लगती है तो झटका देकर उठ खडे होओ। साहस और उत्साह से भर कर फिर-फिर आगे बढ़ने, संघर्ष करने का प्रयास करो। फिर देखो, मंज़िल मिले या न मिले; पर उस संघर्ष और प्रयास में एक प्रकार का अभूतपूर्व आनन्द अवश्य प्राप्त होगा? उस आनन्द के अमृत को पाने के लिए निराशा छोड़कर उठो। आगे बढ़ो।
निरन्तर गतिशीलता, अध्यवसाय, उत्साह और आनन्द का सन्देश देना ही कवि की इस उक्ति का उद्देश्य एवं सन्देश है। उस तक निराश होकर कभी कतई नहीं पहँचा-पाया जा सकता? आशा का न बुझने वाला दीपक हाथ में लेकर ही वहाँ तक पहँच पाना संभव है, अन्य का उपाय नहीं।