Non Violence Essay in Hindi अहिंसा पर निबंध
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Non Violence Essay in Hindi 700 Words
अहिंसा और विश्व-शांति पर निबंध
भारतीय सभ्यता में मनीषियों ने “अहिंसा परमो धर्म:” कहकर अहिंसा का महत्त्व समझाने और प्रतिष्ठापित करने का प्रयत्न किया है। अहिंसा और अहिंसक होने को मनुष्य का सर्वोच्च धर्म मान कर ही ऐसा किया गया है।
सृष्टि के आरंभ से ही मनुष्य धरती पर युद्ध और अशांति का वातावरण बनाता आया है, युद्ध भी होते रहे हैं। लेकिन तब यह सब कुछ सीमित लोगों में, एक सीमित क्षेत्र में ही हुआ करता था। अत: अन्य क्षेत्रों और वहां के भी आम लोगों पर उस सब का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता था। युद्ध के बाद धीरे-धीरे स्थितियाँ अपने आप ही सामान्य हो जाया करती थीं, अथवा थोड़े-बहुत संघर्ष के बाद उनका अंत हो जाया करता था। पर मानव-सभ्यता के वैज्ञानिक, यांत्रिक और औद्योगिक विकास के आज के युग में स्थितियां पहले जैसी नहीं रही। अब केवल अनेक प्रकार के हिंसक शस्त्रों का वैज्ञानिक निर्माण करके उनकी ऐसी प्रयोग-विधियाँ ही विकसित कर ली गई हैं कि जो घर बैठे-बिठाए समस्त विश्व को विनाशक अथवा संघारक गतिविधियों से प्रभावित कर सकती है, बल्कि हिंसा मानव स्वभाव का एक अंग बन गई है। आज सेवा, व्यवसाय, कार्य-व्यापार आदि सभी क्षेत्र में मनुष्य की हिंसक वृत्ति हावी होती जा रही है। स्वयं को सुसभ्य, सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत समझने वाला मानव अपनी स्वार्थ-पूर्ति के लिए किसी भी सीमा तक गिर सकता है। तभी तो चारों तरफ राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी आपाधापी, लूट-खसौट, घोटालों, भ्रष्टाचार और अराजकता का वातावरण व्याप्त हो कर जीवन को अशांत बनाए हुए हैं।
जब इस तरह का वातावरण चारों ओर व्याप्त रहा हो, तो एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि आखिर इस सब का निराकरण क्या और कैसे हो सकता है? कैसे समाज, व्यक्ति, जाति, धर्म और राष्ट्र को अशांति-अराजकता फैलाने वाले तत्त्वों से बचाया जा सकता है? इन सभी सवालों का एक ही उत्तर, सभी समस्याओं का मात्र एक ही हल है। वह है- अहिंसा। व्यक्ति से लेकर राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय, हर स्तर तक अहिंसा ही हर प्रकार की अशांति, अराजकता से मानवता और उसके जीवन की शांति की रक्षा कर सकती है लेकिन तभी, जब अंहिसा को सहज मानव धर्म और सिद्धांत बनाकर उस व्यक्ति से लेकर राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हर समाज, मनुष्य, धर्म, जाति और प्रशासन अंगीकृत कर ले।
अहिंसा का तात्पर्य केवल शस्त्र का त्याग करना ही नहीं है। अहिंसा दुर्बलों का हथियार अथवा दुर्बलता का प्रतीक-परिचायक भी नहीं है। वास्तव में अहिंसा पराक्रम का प्रतीक और परिचायक है। हाँ, वह पराक्रम शस्त्र या शक्ति की न हो कर आस्था, आत्मा और विश्वास की भी हो सकती है। भारत ने इसी प्रकार की अहिंसा को महात्मा गांधी से एक अमोध शस्त्र के रूप में प्राप्त करके ही अपनी खोई स्वतंत्रता हासिल की हैं; इस तथ्य से आज का संपूर्ण विश्व अच्छी तरह परिचित है। इसलिए इसी शस्त्र को धारण करके ही विश्व में फैल रही अशांति और अराजकता के तत्त्वों कारवों के विरुद्ध मोर्चे बंदी करके विश्व-शांति की सही मायने में रक्षा संभव हो सकती है। इसके लिए आत्मविश्वास और आत्मिक दृढ़ता तथा एक उदात्त मानवीय संकल्प का होना जरूरी है। अहिंसा की आँच से ही उन दीवारों को पिघलाया जा सकता है जो आज विश्व-शांति की राह में अवरोध बनकर खड़ी हैं। स्वयं को विश्व-नेता और मानवता का प्रहरी मानने वालों को आज सर्वप्रथम आत्मालोचन एवं आत्मनिरीक्षण करके इसी को पहचानने और अंगीकार करने की आवश्यकता है।
मानव-जीवन दुर्लभ माना जाता है। यह भी सर्वविदित है कि अशांति और अराजकता के मार्ग पर चलकर हम अपने जिस आर्थिक, राजनीतिक अथवा अन्य प्रकार के साम्राज्य का निर्माण किया करते अथवा करना चाहते हैं, वह किसी के साथ नहीं जाया करता। वह सदैव बना भी नहीं रहा करता। फिर क्यों न जीवन के जो थोड़े से पल मिले हैं, उन्हें सुख शांति से व्यतीत कर लिया जाए। क्यों न उन पर प्रेम भाई चारे का ऐसा सहज मानवीय रंग चढ़ाया जाए जो पक्के रूप से मानवता की पहचान बन जाए। इन रंग-रूप का निर्माण अहिंसा को हिंसा के विस्तृत रूप में नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक व्यापक शर्त के रूप में अपना कर ही किया जा सकता है। यदि थोड़ा प्रयत्न कर हम उस रंग का निर्माण कर लेते हैं, तो कोई कारण नहीं कि आज के अशांत वातावरण का अंत होकर विश्व में शांति की स्थापना न हो।
Non Violence Essay in Hindi 800 Words
अहिंसा की परम्परा और आज की हिंसा
गांधीजी ने एक स्थान पर लिखा है कि भारत का अभिप्राय है, एक महान संस्कृति की गौरव गाथा। इस बात को गाँधीजी ने पूरी सचेतता के साथ लिखा था। भारतीय संस्कृति की मूल विशिष्टता अगर किसी एक तत्व को माना और कहा जा सकता है, तो वह इस महान संस्कृति की ‘अहिंसक सचेतना’ ही है। आज विश्व, भारतीय संस्कृति की ओर व्यापक रूप से आकर्षित होता प्रतीत हो रहा है। आज यूरोपीय समुदाय की परस्पर हिंसात्मक मनोवृत्तियों से ऊबे हुए यूरोपवासी दिन-प्रति-दिन भारत की ओर उन्मुख हो रहे हैं। उनकी इस उन्मुखता और आकर्षित होने का अगर कोई एक ठोस कारण माना जा सकता है तो, वह मात्र भारतीय संस्कृति की उदारता और महानता ही है।
क्या आपने कभी इस बात पर विचार किया है कि आखिर वे कौन से कारण रहें है जिन्होंने अहिंसा को भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषता बना दिया। वस्तुतः हमारे प्राचीन ग्रंथों में इस देश को देव भूमि कहकर संबोधित किया गया है। यहाँ समय-समय पर देवताओं, ऋषिमुनियों ने अवतार ग्रहण किया हैं। यह देश मूल्यों और आदर्शों वाला देश रहा है। अहिंसा को जीवन-मूल्य के रूप में इस पावन भूमि पर सदैव से अनुकरण योग्य माना जाता रहा है, किन्तु सर्वप्रथम इसे आगे बढ़कर एक भव्य जीवन-दर्शन का रूप देने का कार्य महात्मा बुद्ध ने किया था। तब से आज तक भारतीय समाज, संस्कृति और सभ्यता सैद्धान्तिक स्तर पर स्वयं को एक अहिंसक रूप देने की चेष्टाएँ करता रहा है।
आज हम जिस समाज में निवास करते हैं वह यांत्रिकता के भार से दबा हुआ समाज है। विवेक युक्त वैज्ञानिक चेतना के स्थान पर आज तकनीकी वैज्ञानिकता का अबाध रूप से विकास हो रहा है और आदर्श एवं मूल्य लगातार उपेक्षित होते जा रहे हैं। ऐसे में समाज आज
अपनी परंपराओं और संस्कृति से विच्छिन्न होता जा रहा है और निरन्तर उसका व्यक्तित्व संकीर्ण और हिंसक होता जा रहा है। आज के समय को अगर संकीर्णता और हिंसा का युग कहा जाए तो इसमें कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं होगा।
आज हिंसा अपना अति विस्तार पा रही है। वह नाना रूपों और स्वरुपों में आज हमारे समाज को ग्रस्त बनाती जा रही है। पारिवारिक हिंसा के साथ-साथ, सामाजिक हिंसा की भी घटनाएं रोज हम न्यूज चैनलों पर सुनते हैं अथवा अखबारों में पढ़ते हैं। सामाजिक स्तर पर, आर्थिक स्तर पर, राजनैतिक स्तर पर एवं सांस्कृतिक स्तर, प्रत्येक क्षेत्र हमें हिंसक प्रवृत्तियों से घिरा हुआ प्रतीत होता है। यह दूषित अहिंसा की प्रवृत्ति आज इतनी मुखर और प्रधान होती जा रही है कि आज लोग अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए अथवा राजनीति का कोई उच्च पद प्राप्त करने के लिए व्यापक रूप से आयोजित की गयी हिंसा को माध्यम बनाने से भी नहीं चूकते गुजरात के दंगे, मेरठ के दंगे आदि अनेक ऐसे उदाहरण हमारे सामने प्रस्तुत हैं जिनमें हिंसा का निज स्वार्थों की पूर्ति हेतु संचालन किया गया।
महात्मा गांधी ने कहा था: “भारत का भविष्य पश्चिम के उस रक्त-रंजित मार्ग पर नहीं है, जिस पर चलते-चलते पश्चिम अब खुद थक गया है। उसका भविष्य तो सरल धार्मिकजीवन द्वारा प्राप्त शांति के अहिंसक रास्ते पर चलने में ही है। भारत के सामने इस समय अपनी आत्मा को खोने का खतरा उपस्थित है और यह संभव नहीं है कि अपनी आत्मा को खोकर भी वह जीवित रह सके। इसलिए आलसी की तरह उसे लाचारी प्रकट करते हुए ऐसा नहीं कहना चाहिए कि पश्चिम की इस बाढ़ से मैं बच नहीं सकता। अपनी और दुनिया की भलाई के लिए उस बाढ़ को रोकने की क्षमता तो उसे प्राप्त ही होगी।” इस उद्धरण में एक ओर हमें भारत की मूल आत्मा के बारे में पता चलता है, जो गाँधीजी की दृष्टि में अहिंसा और सत्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकती। साथ ही साथ, गांधी जी हिंसा की संकीर्ण मनोवृत्ति को पश्चिमी समस्या की विकृति मानते हैं, जो कि ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर देखने पर उचित ही प्रतीत होती है।
अगर हम वर्तमान वैश्विक स्थितियों और परिस्थितियों पर दृष्टि डालें, तो हमें अनायास विश्व हिंसा की अग्नि में जलता हुआ दिखलायी पड़ता है। यूरोपीय देश, आज अपने कुण्ठित और अमानवीय स्वार्थों को पूरा करने के लिए बेवजह पिछड़े और गरीब देशों को हिंसा के हवाले कर देते हैं। अफगानिस्तान, इराक आदि के उदाहरण आज हमारे सामने हैं। इस संदर्भ में कतिपय लोगों का मानना कुछ भिन्न है। उनका मानना है कि तानाशाही राजतंत्र सामंतवाद से मुक्ति दिलाने के लिए, वहाँ की जनता के हितार्थ और वहाँ लोकतंत्र की स्थापना करने के महान उद्देश्यों से परिचालित होकर ही ये दोनों युद्ध लड़े गए। किन्तु जैसा कि स्वयं गाँधीजी ने भी कहा था कि पवित्र कार्य संपन्न करने के साधन भी अनिवार्यतः पवित्र ही होने चाहिए।
इस पर भारत सरकार का जो रुख रहा वह अत्यंत दुखद था। आज आवश्यकता है कि हम अपनी संस्कृति-मेघा को संसार के सामने उदाहरण के रूप में रखें और विश्व को शांति, प्रेम, सत्य और अहिंसा का सुरीला पाठ पढ़ाएं।
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