पर उपदेश कुशल बहुतेरे Par Updesh Kushal Bahutere Anuched in Hindi
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पर उपदेश कुशल बहुतेरे – Par Updesh Kushal Bahutere
Par Updesh Kushal Bahutere 800 Words
किसी भक्ष्य पदार्थ का वास्तविक स्वाद क्या है, इस तथ्य से भली-भाँति परिचित तभी हुआ जा सकता है, जब उसे स्वयं खा कर देखा जाए। वस्तु सत्य, जीवन-सत्य, लोक-परलोक का सत्य क्या है; सत्य के शोधकों ने यह सब जानने के लिए अपने प्राणों तक की बाजी लगा दी। कई बार ऐसा भी पढ़ने-सुनने को मिला है कि किसी संघातक, प्राणहारक विष का वास्तविक स्वाद जानने के लिए किसी डॉक्टर ने उसे अपनी ही जिह्वा पर रख लिया और अनुभूति का सत्य प्रकट करने से पहले ही प्राण त्याग दिए। सत्य तो यह है कि व्यक्ति जो कुछ भी अनुभव किया करता है, अनुभूति के उस सत्य को सही रूप में प्रकट कर पाना संभव ही नहीं हुआ करता। उसका वर्णन कर पाना जीभ के वश की बात ही नहीं रह जाती। कबीर के मत में वह तो ‘गूंगे का गुड’ हुआ करता है:
“कह कबीर गूंगे गुड़ खायो, बिनु रसना का करै बढ़ाई?”
लेकिन आम जगत में आम प्रचलन यह है कि लोग किसी बात का अर्थ या महत्त्व स्वयं जानें या न जानें, किसी बात और व्यवहार पर स्वयं आचरण करें या न करें, दूसरों के सामने उस सब का बखान करते, दूसरों को उन की कही बातों पर आचरण करने के उपदेश बघारने का शौक अवश्य चर्राता रहता है। जब उन से पूछा जाए कि आप ने इस का कब, कहाँ कैसा और क्या अनुभव किया; तो उनका उत्तर होगा कि “अजी इन सब बातों को छोड़ो। बस, जैसा बता दिया, वैसा करके तो देखो, सब स्वयं ही पता हो जाएगा। इस तरह की बातें सुन कर विवशतः कहना पड़ता है कि इस तरह दूसरों को उपदेश देते रहने वाला स्वभाव रखने वाले लोगों के लिए हर बात आज के कांग्रेसियों का गान्धीवाद हो गया या उन का नाम हो गया कि जिस पर न तो आचरण करने का कभी कष्ट किया और न जिसे कभी देखा ही, बस चुनाव जीतने का उपकरण हो गया।
कबीर हो या नानक, गान्धी हो या विनोबा या फिर कोई अन्य सन्त एवं महापुरुष; इन सभी ने पहले स्वयं किसी बात का परीक्षण कर के उसके अच्छे-बुरे परिणाम को भोगा, फिर जो उचित एवं आवश्यक लगा उस पर चलने की बात बड़े ही आत्मविश्वास और नम्र ढंग से कही। लोगों ने उस पर अमल तो किया ही, उसका सुफल भी पाया। तभी तो उनका प्रत्येक कथन, कदम एवं व्यवहार युग-युगों का सत्य, आदर्श और भूले-भटकों का पथ-प्रदर्शन करने वाल स्थिर आलोक स्तम्भ बन गया। इसके विपरीत स्वयं आचरण-व्यवहार न कर मात्र दूसरों के सामने आदर्श की बातें बढ़-चढ़ कर बघारने वाले कथनों, कदमों और व्यवहारों को लोगों ने कूड़े की तरह उलीच कर बाहर फेंक दिया। इस कान से सुना और उससे निकाल दिफिया। र भी तथ्य यही है कि संसार में अधिकता इस तरह कि ‘पर उपेदश कुशलों’ की ही हमेशा रही और आज भी विद्यमान है।
यहाँ एक प्रचलित कहानी का स्मरण हो आया है। एक बार एक भद्र पुरुष एक महात्मा के पास जा कर बोले – “महात्मन्! मेरा बेटा गुड़ बहुत खाता है। इस कारण वह अक्सर रुग्ण रहता और बहुत दुबला हो गया है। कोई ऐसा उपाय बताइये कि उस का गुड़ खाना छूट जाए। सुन कर महात्मा मुस्कराये। दो-चार क्षण सोचते रहे. फिर बोले-एक सप्ताह बाद लड़के को साथ लेकर आइये, कोई-न-कोई उपाय अवश्य बताऊँगा।” एक सप्ताह बाद वे सज्जन लड़के को साथ लेकर महात्मा जी की सेवा में उपस्थित हो गए। तब महात्मा जी ने लड़के को पास बिठाकर कछ देर समझाया। फिर उसे कहा कि तम्हारी जेब में गड का जो डला है, उस निकाल कर फेंक दो और कहो कि अब कभी गुड नहीं खाओगे। लडके ने वैसा ही किया। सब देखने-सुनने के बाद उस आदमी ने महात्मा जी से कहा, “यह सब तो आप एक सप्ताह पहले भी कर-करा सकते थे। यदि सात दिन पहले कह-करा दिया होता, तो कितना ही गड़ और इसका स्वास्थ्य बचा रहता। इस पर मुस्करा कर महात्मा बोले- “लेकिन तब मैं स्वयं बहुत गुड़ खाया करता था, सो जो काम स्वयं कर रहा था उसे करने से इसे कैसे रोकता? अब मैंने सात दिन पहले गुड़ खाना छोड़ कर अपने पर परीक्षण कर लिया, तब इस बालक को समझाने का हकदार बना। ऐसे होते हैं सन्त जन। अपने अनुभव को ही संसार के सामने प्रकट करते हैं। तभी संसार उनका लोहा भी मानता है।
आजकल तो लोगों की बात ही निराली है। वे स्वयं कुछ न कर चाहते हैं कि दूसरे ही सब करें। नेता, अभिनेता, शिक्षक-गुरु सभी उपदेश तो देते हैं, बड़े-बड़े आदर्श वाक्य उछालते फिरते हैं, फिल्मी भाषा-अन्दाज में डॉयलॉग भी मारते हैं और बड़े-बड़े महापुरुषों के नाम भी लेते नहीं थकते; पर आचरण के नाम पर एकदम कोरे साबित होते हैं। इसी कारण जीवन-समाज पर उनके कथनों का कतई कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इन ‘पर-उपदेश कुशलों’ की कृपा और वास्तविक व्यवहार के कारण ही जीवन-समाज का माहौल बद से बदतर होता जा रहा है। पता नहीं कब इन्हें सबुद्धि आएगी? कब ऐसे लोग परोपदेश छोड़ कर अपने आचरण-व्यवहार को भी शुद्ध करेंगे? जब ऐसा हो जाएगा, तभी संसार का कुछ भला भी संभव हो सकेगा?