Paradhin Sapnehu Sukh Nahi Essay in Hindi पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं निबंध
|Know more about
Paradhin Sapnehu Sukh Nahi
Paradhin Sapnehu Sukh Nahi 300 Words
वैसे तो सुख को सम्बन्ध व्यक्ति की भावना और मन के साथ माना जाता है, पर सत्य यह भी है एक स्वतंत्र-स्वाधीन भावना से भरा मन ही वास्तविक सुख का अनुभव कर सकता है, पराधीन और परतंत्र व्यक्ति कदापि नहीं। ऐसा क्यों होता है, इसके प्रत्यक्ष और परोक्ष कारण गिनाए जा सकते हैं?
पराधीन आदमी पहले तो कुछ सोचने-करने का अवसर ही नहीं पाता, यदि पाता भी है तो पराधीन बनाने वाले की इच्छा और तेवर के अनुसार । यानि जो वह सोचता, करने को कहता है, पराधीन वह सब कुछ करने को बाध्य होता है। अपनी इच्छा और सोच के अनुसार कुछ करने की चेष्टा करने पर उसे बड़ी बेशरमी से दण्डित किया जाता है। इस प्रकार धीरे-धीरे उस की इच्छाएं, भावनाएं, सोचविचार की शक्ति मर या समाप्त हो जाती है। उस अवस्था में किसी सुख की प्राप्ति या अनुभूति का प्रश्न ही नहीं उठता। इसके विपरीत स्वाधीन व्यक्ति अपनी इच्छाभावना के अनुसार सोच-विचार कर वह सब कुछ करने के लिए स्वतंत्र है कि ऐसा करने से उसे सुख प्राप्त हो सकता है। सन् 1947 से पहले और बाद के भारत के निवासियों की स्थिति की तुलना कर के इस अन्तर को सरलता के साथ समझाया जा सकता है।
सन् 1947 से पहले भारतवासी अंग्रेजों के अधीन थे। इस कारण अपना कोई संविधान, कोई योजना, कोई नियम-कानून नहीं था। अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कायदे-कानून मानकर चलना पड़ता था। विरोध करने पर लाठियाँ-गोलियाँ खानी, जेलें, भरनी और फाँसी तक पर झूलना पड़ता था। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उनकी इच्छा के बिना स्वतंत्रतापूर्वक पत्ता तक नहीं हिल सकता था। तरह-तहर के कष्ट सह कर, संघर्ष, त्याग और बलिदान देकर 15 अगस्त, सन् 1947 के दिन हमने स्वतंत्रता प्राप्त कर ली। तब एक स्वतंत्र-स्वाधीन राष्ट्र के रूप में अपनी इच्छा, अपने सुख-दु:ख के हम स्वयं स्वामी बन गए। अपना संविधान बना, अपनी योजनाएं बनीं और आज हम कहाँ-से कहां पहुँच गए हैं यह किसी से छिपा नहीं है। हमें पराधीन बनाने वाले लगातार पिछड़ते जा रहे हैं और हमारा स्वतंत्र-स्वाधीन देश संसार की एक महाशक्ति बन कर उभर रहा है।
Essay on Self Dependence in Hindi
Story on Self Dependent in Hindi
Paradhin Sapnehu Sukh Nahi Essay 600 Words
भारतीय समाज और संस्कृति के अनेकानेक मूल्यों में से अगर किसी एक को पूर्णत: सार्वभौमिक और शाश्वत मूल्य कहा जा सकता है तो वह है आत्म-निर्भरता का मूल्य। भारतीय संस्कृति और साहित्य का समूचा इतिहास इस अद्वितीय मूल्य के भव्य गौरव गान का ही इतिहास रहा है। महात्मा तुलसीदास की यह काव्य-पंक्ति जन-जन के दृश्यों में आज भी स्वावलम्बन की उत्कट भावना को भरने की अखंड क्षमता रखती है।
‘पराधीन सपनेहँ सुख नाही।’
अर्थात वे मनुष्य जो दूसरों पर निर्भर रहे हैं, उनकी पराधीनता अथवा उनके वश में होते हैं, सपने में भी कभी सुख की आकांक्षा नहीं कर पाते। वास्तविक सुख उन्हें ही प्राप्त होता है जो जीवन में सुख-साधन के लिए अथक परिश्रम करते हैं। सभी प्रकार की समस्याओं का डटकर सामना करते हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों से घबराकर कभी अपने कदम पीछे की ओर नहीं ले जाते। ऐसे ही मनुष्य अपना जीवन सार्थक और आत्मनिर्भर बना पाते हैं जो जीवन भर विकास साधन करते हुए जीवन की नाना भांति की अनिवार्यताओं के परिप्रेक्ष्य में स्वयं को आत्मनिर्भर बनाते हैं।
भारतीय समाज और इतिहास ने जिस महान विभूति को “राष्ट्रपिता” कहकर संबोधित किया, उन्होंने अपने जीवन में सदैव ‘आत्मनिर्भरता’ के आदर्श का न केवल अपने व्यक्तिगत जीवन में कठोरता से अनुपालन किया, अपितु यही आदर्श उन्होंने देश के सामने भी रखा। गांधीजी इस वास्तविकता से भलीभांति परिचित थे कि जब तक देश का प्रत्येक नागरिक अपने जीवन में आत्मनिर्भरता प्राप्त नहीं करता, तब तक इस बात की कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती कि हमारा देश भविष्य में कभी इस विराट आदर्श को प्राप्त कर सकेगा।
भारतीय ऋषि-मनियों ने प्रत्येक मानव को आत्मनिर्भर बनाने एवं उसमें इसके लिए उत्कट आकांक्षा भरने के लिए अनेक प्रयास किए। उन्होंने ऐसे पंगु मनुष्यों की भर्त्सना की जो कठोर परिश्रम कर अपने जीवन को स्वावलम्बी बनाने के स्थान पर सदैव निकृष्ट आचरण में निरत रहते हैं, और समय पर, समय को, भाग्य को या फिर ईश्वर को दोषी ठहराते हैं। इस संदर्भ में निम्रोक्त पंक्तियाँ उल्लेखनीय है।
“ते परत्र दुख पापह, सिर धुनि-धुनि पछितहिं।
कालहिं कर्महं ईखरहिं मिथ्या दोष लगाहिं।।”
कर्मठ मनीषियों ने इस बात को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है कि जो मनुष्य अपने जीवन को आत्मनिर्भर बना लेता है, जो जीवन के लिए आवश्यक सभी प्रसाधनों का अर्जन अपनी कठोर साधना के द्वारा कर लेता है, वही वास्तव में योग्य मनुष्य होता है और उसी का जीवन भी सार्थक होता है। उसे न केवल शारीरिक सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती हैं बल्कि उसे मानसिक एवं आत्मिक सुख-भी स्वतः ही मिल जाता है। उसके जीवन में किसी प्रकार का कलह-क्लेश आदि नहीं होता। वह अपना जीवन पूरे जोश और उल्लास के साथ बिताता है।
वस्तुत: जो अपने जीवन को पूर्णत: आत्मनिर्भर बना लेते हैं उन्हें ही कर्मठ मनुष्य कहा जाता है। ऐसे कर्मठ मनुष्यों की मदद स्वयं ईश्वर भी करता है। अंग्रेजी की एक बहुत ही सटीक कहावत है कि ‘God helps those who help themselves’ वास्तविकता भी यही है। जो कठोर परिश्रम करते हुए अपने जीवन को सार्थक बनाने का प्रयास करते हैं, उनके मार्ग को काटों से रहित करने का कार्य स्वयं ईश्वर ही करता है।
तुलसीदास ने भी लिखा है, ‘कर्म प्रधान विश्व कर राखा’। अर्थात् संसार में कर्म की महत्ता ही सर्वोपरि होती है। हिन्दी के एक वरिष्ठ निबंधकार, सरदार पूर्णसिंह ने एक स्थान पर लिखा है – “सच्चा आनन्द तो मुझे मेरे काम से मिलता है। मुझे अपना काम मिल जाये तो फिर स्वर्ग की प्राप्ति की भी इच्छा नहीं।” जीवन में अपरिहार्य रूप से कर्म की महत्ता होती है और जो मनुष्य कर्मशील होते हैं, वे ही केवल अपने जीवन को आत्मनिर्भर और सार्थक बना पाते हैं।
More Hindi Essay
Lalach Buri Bala Hai Story in Hindi
Thank you for reading. Don’t forget to give us your feedback.
अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए हमारे फेसबुक पेज को लाइक करे।