Ramdhari Singh Dinkar in Hindi Biography रामधारी सिंह दिनकर की जीवनी
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Ramdhari Singh Dinkar in Hindi
रामधारी सिंह दिनकर की जीवनी
रामधारी सिंह दिनकर का जन्म, सन् 1908 को मुंगेर जिले के सिमरिया नामक स्थान पर हुआ था। दिनकर जी का नाम साहित्य के क्षेत्र में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। उन्होंने विपुल मात्रा में साहित्य की रचना की। उनका कुरूक्षेत्र’ तो एक प्रकार से विश्व प्रसिद्ध कृति ही माना जाता है। इसी के साथ उन्होंने ‘रश्मि रथी’ जैसी श्रृंगार परक काव्य कृति की भी रचना की। इन्होंने बी.ए. तक की शिक्षा प्राप्त की और ये क्रमश: हाई स्कूल के प्रधानाध्यापक और बिहार सरकार के अधीन प्रचार-विभाग के एक निर्देशक रहे। इसी के साथ वे सरकार के हिन्दी सलाहकार भी रहे। ये सभी बातें अप्रत्यक्ष रूप से उनके महत्व को ही बताती हैं।
रामधारी सिंह दिनकर एक सचेत और युग-धर्मी रचनाकार रहे हैं। उन्होंने अपने युग की नाना यथार्थ-छवियों को बड़ी गम्भीरता के साथ चित्रित किया है। इस युगधर्मिता का प्रमाण है उनका कुरूक्षेत्र काव्य जिसमें उन्होंने तत्कालीन युद्धपरक परिस्थितियों के मूल में निहित कारणों और परिणामों को समझने-समझाने का प्रयास किया है। इसी काव्य की कुछ पंक्तियां दृष्टव्य हैं:
कर पाता यदि मुक्त हृदय को
मस्तक के शासन से
उतर पकड़ता बाँह दलित की
मंत्री के आसन से
स्यात् सुयोधन भीत उकाता
पग कुछ और सँभल के
भारत भूमि पकड़ती न स्यात
संभल के आगे चल दे
युद्ध के प्रति दिनकर जी का दृष्टिकोण अत्यंत स्पष्ट और मार्मिक है। उन्होंने युद्ध का विवेचन करते हुए लिखा है: “युद्ध निन्दित और क्रूर कर्म हैं, किन्तु, उसका दायित्व किस पर होना चाहिए? उस पर, जो अनीतियों का जाल विछाकर प्रतिकार को आमंत्रण देता है, या उस पर, जो जाल को छिन्न-भिन्न कर देने के लिए आतुर है? पांडवों को निर्वासित करके एक प्रकार की शांति की रचना तो दुर्योधन ने भी की थी तो क्या युधिष्ठिर महाराज को शांति-भंग नहीं करना चाहिए था?”
यह उद्धरण अत्यधिक सांकेतिक और अर्थपूर्ण है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि दिनकर जी अपने कुरूक्षेत्र काव्य में सिर्फ किसी पौराणिक अथवा पुरातनपंथी समस्या से नहीं उलझ रहे थे, अपितु वह सन् 1936 के आस-पास से उभरती युद्ध की स्थितियों को एक मिथक के माध्यम से व्यक्त-अभिव्यक्त करने का प्रयास कर रहे थे। दिनकर जी ने स्पष्टे शब्दों में कहा है – “यद्यपि मैने सर्वत्र ही इस बात का ध्यान रखा है कि भीष्म अथवा युधिष्ठिर के मुख से कोई ऐसी बात न निकल जाय जो द्वापर के लिए सर्वथा अस्वाभाविक हो । हाँ, इतनी स्वतंत्रता जरूर ली गयी है कि जहाँ भीष्म किसी ऐसी बात का वर्णन कर रहे हो, जो हमारे युग के अनुकूल पड़ती हो, उसका वर्णन नये और विशद रूप से कर दिया जाय।”
इस उद्धरण से दिनकर जी की युगधर्मिता प्रकट होती है। उन्होंने युद्ध के मूल में निहित मूल मनोवृत्ति को कुछ इस प्रकार स्पष्ट कियाः
विश्व-मानव के हृदय निर्देष
मूल हो सकता नहीं ब्रोहाग्नि का
चाहता लड़ना नहीं समुदाय है,
फैलती लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से
कहने की आवश्कता नहीं की दिनकर जी का यथार्थवादी चिंतन आज की समसामयिक स्थितियों में भी अपना अप्रतिम महत्व रखता है इसके मूल में निहित काव्य मूल्यों एवं जीवन-मूल्यों का रोपण हमें अवश्य करना चाहिए।
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