Essay on Ramlila in Hindi राम लीला पर निबंध
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Essay on Ramlila in Hindi
‘रामलीला’ का अर्थ है – भगवान श्रीराम द्वारा की गई लीला। आपने कभी न कभी दीपावली के आस-पास एक अत्यंत भव्य कार्यक्रम नौ दिनों तक लगातार चलते हुए अवश्य देखा होगा, हो सकता है आप कभी उसे देखने के लिए उस स्थल पर भी गए होंगे, जहाँ वह कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। भारतीय समाज इस सांस्कृतिक कार्यक्रम को ‘राम लीला’ कह कर संबोधित करता है। जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, यह कार्यक्रम भगवान राम की ‘अवतार-लीला’ का नाट्य-अभिनय करता है। इस दौरान अनेक लोग तुलसीकृत रामचरितमानस का अभिनय करते हैं और विराट जनसमूह इसे पूरे उत्साह और रुचि के साथ देखने के लिए आता है।
क्या आप इस राम लीला के बारे में कुछ विशेष बातें जानते हैं? इस लीला की शुरुआत कब हुई और वह कौन महान मनीषी था जिसने भारतीय समाज में रामलीला का भव्य प्रचलन आरम्भ किया? आप शायद ही जानते होंगे। वस्तुतः भारतीय समाज में रामलीला मध्यकाल से ही अभिनीत की जाती रही है किन्तु इसका व्यवस्थित रूप से प्रचलन रामभक्त तुलसीदास ने किया था। वस्तुतः राम लीला का प्रचलन किसी प्रकार की आकस्मिक घटना नहीं थी अपितु भारतीय समाज मध्यकाल में जिन सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से विकट स्थितियों का सामना कर रहा था, रामलीला के इस भव्य प्रचलन को वस्तु रूप में उन्ही विश्रृंखलतापूर्ण स्थितियों का परिणाम माना जा सकता है।
मध्यकाल का इतिहास लिखते हुए प्रायः सभी महत्वपूर्ण इतिहासकारों ने दो प्रधान वास्तविकताओं की चर्चा अनिवार्यत: की है। पहली यह कि भारत की राजनैतिक सत्ता इस दौरान मुगलों अथवा मुसलमान शासकों द्वारा छीन ली गयी थी और इससे भारतीय समाज अपने गौरव की भव्य गाथा चाहकर भी नहीं गा सकता था। हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य आलोचक रामचन्द्र शुक्ल ने इसी ओर संकेत करते हुए एक स्थान पर लिखा है: “देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिन्दू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उसके देवमंदिर गिराए जाते थे, देव मूर्तियां तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत न तो वे गा ही सकते थे और न बिना लज्जित हए सन ही सकते थे। आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्य भी नहीं रह गए। इतने भारी राजनैतिक उलटफेर के पीछे हिंदू जनसमुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी सी छाई रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?”
यह उद्धरण तत्कालीन भारतीय समाज की अशांत और उथल-पुथल से युक्त मनोदशा को मूर्तरुप में स्पष्ट कर देता है। भारतीय समाज राजनैतिक तौर पर हार चुका था, इसका स्पष्ट उल्लेख स्वयं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इस उद्धरण में किया है। किन्तु इसी के साथ एक अन्य विराट समस्या भी उस समय भारतीय जनमानस को चिन्ता ग्रस्त बनाए हुए थी। वह थी सामाजिक सांस्कृतिक उथल-पुथल। भारतीय समाज पर सांस्कृतिक आक्रमण भी होने लगे था। इसने भारतीय समाज की गहरी हताशा को और भी गहरा और तीक्ष्ण बना दिया। वह किसी ऐसे शक्ति स्रोत की खोज करने लगा था जो उसे सांस्कृतिक शक्ति प्रदान कर सकें। भक्त तुलसीदास ने इसी अभाव की पूर्ति हेतु रामलीला का भव्य प्रचलन आरम्भ कर दिया, जिसने भारतीय समाज को आज तक भारतीय संस्कृति और परम्परा से बांध रखा है।
अंत में, आज विश्व के कोने-कोने में रामलीला की प्रसिद्धि फैली हुई है। भारत के प्रत्येक हिस्से में रामलीला का आयोजन होता है और इसके अंतिम दिन रावण का पुतला जलाया जाता है। यह दृश्य अत्यंत भव्य और सुंदर प्रतीत होता है। दिल्ली का रामलीला मैदान इन दिनों बाजार की तरह सजा रहता है। वस्तुत: जितना इसका सांस्कृतिक महत्व है उतना ही सामाजिक भी।
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