Sadachar Essay in Hindi सदाचार पर निबंध
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Sadachar Essay in Hindi
सत्+ आचार, सन्धि हो जाने पर बना सदाचर। सत् का अर्थ होता है – अच्छा, सच्चाई और मानव हित पर आश्रित। आचार का अर्थ है – मानवीय चरित्र, चाल चलन और व्यवाहर। इस प्रकार हमारा जो व्यवहार अपनी राष्ट्रीयता, अपने देश और अपने काल अर्थात् समय के अनुसार उचित, अच्छा, सभी का हित साधने वाला होता है, उसे सदाचार कहा जाता है। इस परिभाषा और व्याख्या से सदाचार का महत्त्व भी स्वत: ही उजागर हो जाता है।
यह ध्यान रहे, जैसे भूख-प्यास, नींद आदि जीवन के शाश्वत सत्य हैं, उसी प्रकार सदाचार का बाहरी, स्वरूप तो देश और समाज के अनुसार कुछ अवश्य बदल जाता है, पर उसके अनेक आन्तरिक तत्त्व हमेशा एक जैसे बने रहते हैं। बड़ों का आदर करना, सत्य, अहिंसा, प्रेम, भाईचारा, समानता, सभी धर्मों के प्रति समान आदर का भाव रखना ही सदाचार है। इन सब गुणों के बिना व्यक्ति और समाज दोनों का कार्य नहीं चल सकता। व्यक्ति और समाज इन का तिरस्कार कर सम्मान और मानवीय गौरव के अधिकारी कदापि नहीं बन सकते। एक अलिखित सामाजिक और नैतिक समझौते के अन्तर्गत इन बातों का पालन सभी के लिए आवश्यक होता है।
सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य को दूसरों के सम्पर्क में आना पड़ता है। वह अपने व्यवहार, बातचीत और क्रिया-कलापों से पहचाना जाता है। जीवन और समाज को ठीक से चलाने के लिए, उन्नत और विकसित बनाने के लिए यह जरूरी है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी बोलचाल और व्यवहार ठीक रखे। यही सदाचार है।
इन तथ्यों के आलोक में ही व्यक्ति को सदाचारी बनने की शिक्षा तथा प्रेरणा दी जाती है। कठिन-से-कठिन परिस्थिति में भी सदाचार की राह से विचलित न होने को कहा जाता है। आज संसार जिन्हें महापुरुष कह कर पूजता है, वे इसी प्रकार के कभी विचलित न होने वाले सदाचारी पुरुष थे।
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सदाचार
रूपरेखा : सदाचार का अर्थ, सदाचार के नियमों का स्वरूप, सदाचार और नैतिकता, सदाचार और शिष्टाचार, सदाचार के अंग, उपसंहार।
‘सदाचार’ शब्द दो शब्दों के मेल से बना है – सत् + आचार। इसका अर्थ है अच्छा आचरण। अच्छा आचरण वह है जिससे व्यक्ति और समाज दोनों का हित हो। सत्य, अहिंसा, प्रेम, उदारता, सदाशयता आदि सदाचार के कुछ सनातम लक्षण हैं। सभी देशों और सभी कालों में इन्हें मान्यता मिलती रही है। जो व्यक्ति अपने जीवन में इन्हें चरितार्थ करता है, सदाचारी कहलाता है। सदाचरण से व्यक्ति अपने जीवन में तो सुख और शांति का अनुभव करता ही है, उससे औरों का भला भी होता है।
सदाचार से संबंधित कुछ नियम ऐसे भी हो सकते हैं, जो समय और समाज-सापेक्ष हों। हर व्यक्ति अपने निजी जीवन में सदाचार के कुछ विशिष्ट नियम या सिद्धांत स्थिर कर सकता है। ऐसा करने में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे नियमों या सिद्धांतों से पूरे समाज का हित हो और उससे किसी वर्ग अथवा संप्रदाय के हितों या भावनाओं पर कोई आघात न पहुंचे। स्मरणीय है कि सदाचरण वह है, जिससे व्यक्ति के साथ पूरे समाज के जीवन में सुख, शांति, समृद्धि और नैतिकता को प्रश्रय मिले।
सदाचार और नैतिकता का गहरा संबंध है। इन्हें एक दूसरे का पर्याय कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी। सदाचार का संबंध मनुष्य के मन की भावनाओं से भी और उसके बाहरी आचरण या व्यवहार से भी है। वास्तव में मन की भावनाएँ और बाहरी आचरण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो मनुष्य मन से सत्यनिष्ठ और अच्छे विचारों वाला नहीं है, उसे सदाचारी नहीं माना जा सकता, भले ही परिस्थितिवश वह अच्छे व्यवहार का मिथ्या प्रदर्शन क्यों न कर रहा हो।
शिष्टाचार सदाचार का एक अंग ही नहीं है बल्कि सामाजिक व्यवहार में तो वह सदाचार का पर्याय ही हो जाता है। देश और काल के अनुसार शिष्टाचार के नियमों में न्यूनाधिक परिवर्तन होते रहते हैं। बड़ों के प्रति आदर-दर्शन सभी समाजों में मान्य है, आदर-प्रदर्शन के ढंग अलग-अलग हो सकते हैं; जैसे – दोनों हाथ जोड़कर या सिर झुकाकर प्रणाम करना या हाथ उठाकर सलाम करना। विभिन्न अवसरों के भी शिष्टाचार के नियम हैं; जैसे – ध्वजारोहण के समय सावधान की स्थिति में खड़े होना, राष्ट्रगान सुनाई पड़ने पर मौन खड़े हो जाना।
इसी प्रकार विनय, मधुर-भाषण, अथिति-सत्कार आदि भी शिष्टाचार के आवश्यक अंग हैं। गोष्ठी, औपचारिक सभा एवं समारोह, प्रीतिभोज आदि में देश-काल के अनुसार शिष्टाचार के अलग-अलग नियम हैं, जिनका पालन करना अपेक्षित है। बिना पूछे बोलना, आवश्यकता से अधिक बोलना, किसी समारोह में बिना बुलाए पहुँच जाना, किसी अन्य व्यक्ति के लिए निर्धारित स्थान पर बैठना, दो आदमियों की बातचीत में दखल देना आदि अशिष्ट व्यवहार के उदाहरण हैं।
सदाचार तभी संभव होगा जब मनुष्य संयम, श्रमनिष्ठा, अध्यवसाय, कर्तव्यपरायणता, क्षमाशीलता आदि गुणों के सतत् अभ्यास से अपने व्यक्तित्व का विकास करे। ऐसे ही व्यक्तित्व वाले मनुष्य समाज के समक्ष आदर्श उपस्थित करते हैं। उन्हीं के बारे में गीता में कहा गया है
यद्यदाचरति श्रेष्ठः तत्तदेवेतरो जनः ।।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।।
अर्थात् जैसा आचरण श्रेष्ठ जन करते हैं, वैसा ही दूसरे लोग भी करते हैं। वे जो मानदंड स्थापित करते हैं, लोग उसी का अनुकरण करते हैं।
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