Samrath Ko Nahi Dosh Gosain समरथ को नहिं दोष गुसाईं
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Samrath Ko Nahi Dosh Gosain
Samrath Ko Nahi Dosh Gosain 800 Words
यह सक्ति ‘रामचरितमानस’ जैसी अद्भुत एवं अमर रचना के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास द्वारा कही गई है। इसमें उन्होंने युग-युगों के अनुभूत जीवन-सत्य को सहज कलात्मक सुन्दरता एवं गम्भीरता से प्रसंगतः उजागर किया है। यों कहने को वे ग्रामीण मुहावरे में भी कथित सत्य को व्यंजित कर सकते थे यह कह कर कि ‘जिस की लाठी उसकी भैंस। अर्थात लाठी वाला व्यक्ति अपनी तो क्या जिस किसी की भी भैंस को हाँक कर ले जा सकता है। ऐसा करने पर भी उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। बात वही हुई न कि ‘समरथ को नहिं दोष गुसाई’ अर्थात् समर्थ लाठीवान व्यक्ति चाहे कुछ भी ऊँच-नीच क्यों न करता रहे उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
इस युग-युगों के सत्य को एक अन्य मुहावरे या कथन द्वारा भी प्रकट किया जाता है। वह यों कि ‘बड़ी मछली छोटी मछली को निगल कर ही बड़ी बना करती है। ये सभी उक्तियाँ और शीर्षक-सक्ति वास्तव में परम्परागत सामाजिक न्याय व्यवस्था को रेखांकित कर उस पर तीखा व्यंग्य कसने वाली हैं। जो असमर्थ है, अपने-आप में दुर्बल है, जिसके हाथ में शक्ति का प्रतीक लाठी नहीं है, जो हीनता का शिकार होकर छोटा है, तो छोटा ही बना रहना चाहता है, अपनी दीन-हीन स्थितियों से उबर पाने के लिए प्रयास नहीं करता, उसे हमेशा से सबलों – समर्थों की इच्छा का शिकार होते आना पड़ा है और बिना उन्हें कोई दोष दिए, ननु-नच किए आनो भी होते रहना है। जिस युग में कविवर तुलसीदास ने सूक्तिगत सत्य व्यंजित किया था, या अन्य लोगों ने उपर्युक्त मुहावरे गढ़े थे; उस युग या उनके युगों में तो यह सब सत्य था ही, आज का भी पूर्ण सत्य यही है, आगे भी लगता है यही सब होता रहेगा।
आज भी समर्थों-शक्तिशालियों द्वारा दुर्बलों-असमर्थों के साथ मनमाना व्यवहार किया जाता है। आज भी पुलिस निहत्थे जन को डण्डे और गोली-बारी से हाँकती रहती है। आज भी जमींदार मजदूर किसान के साथ बेगारों जैसा व्यवहार करता है। आज भी इराक कुवैत को और अमेरिका जैसा समर्थ दादा इराक के साथ मनमाना व्यवहार कर लेता है और सभी बिटर-बिटर देखते भर रह जाते हैं। अपनी असमर्थता से उसके समक्ष नतमस्तक होकर उसकी मनमानी को चुपचाप सहन कर लेते हैं। मतलब यह कि आदिम काल का ‘छोटी मछली-बड़ी मछली’ वाला युग-सत्य आज का भी युग-सत्य है।
इस कथन का ध्वन्यर्थ ही वास्तव में विचारणीय है। ऊपर का व्याख्यायित अर्थ और भाव तो मात्र स्थितियों की विडम्बना का उजागरण ही है। हमारे विचार में कवि या सक्तिकार जो कहना चाहता है, ध्वनि का सहारा लेकर ही उस की गहराई तक पहँचा जा सकता है। वह प्रयोज्य कथन यह है कि मनुष्य होकर भी अन्य मनुष्यों की समर्थता का शिकार होते रहना, यह समझ कर कि हम छोटे और असमर्थ हैं अपने-आप को दूसरों का भक्ष्य बनते रहने देना वास्तव में मानवता का भी अपने साथ-साथ घोर अपमान है। स्वयं मनुष्य ही उपाय कर के, बुद्धिमत्ता एवं हिम्मत से काम लेकर इन स्थितियों से, अपमानकारक कारणों से अपना उद्धार कर सकता है। ऐसा करने के लिए अपने आप को मात्र शारीरिक स्तर पर ही नहीं बल्कि मानसिक-बौद्धिक स्तर पर भी सशक्त-समर्थ बनाना आवश्यक है। यह निश्चय करना भी आवश्यक है कि न तो हमें अपने-आप को किसी का भोजन बनने देना है, न स्वयं किसी को अपना भोजन बनाना है। तभी इस तरह की विषमताओं से छुटकारा पा कर वैयक्तिक एवं सामाजिक न्याय का प्रावधान सम्भव हो सकता है, अन्य कोई उपाय नहीं।
दुनिया झुकती है, बस उसे झुकाने वाला चाहिए। लेकिन झुकाने की शक्ति अर्जित करने का यह तात्पर्य नहीं है कि स्वयं जिन विषम स्थितियों से गुजरे हैं, दसरों को भी बाधित कर दें कि अब वे हमारा दबाव प्रतिरोध के बिना सहन करें। ऐसा करना तो मात्र प्रतिकार की हिंसा को बढावा देना है। उसे कभी भी समाप्त नहीं होने देना है। यह प्रयास करना है कि कभी हम, कभी वह, कभी यह समर्थ होकर दसरों को हाँकता ही रहे। इस क्रिया-प्रातक्रिया को कभी समाप्त ही न होने दिया जाए। नहीं गोस्वामी तलसीदास जैसा मुक्तभोगी, दूरदर्शी और लोक-हितैषी कवि कभी इस तरह की प्रेरणा तो क्या देना, कल्पना तक भी नहीं कर सकता। वह तो समदर्शिता के आधार पर सभी को समर्थ देखना चाहता है ताकि कोई किसा पर का तरह का बेकार दोषारोपण कर ही न सके।
समरथ को नहिं दोष गुसाईं, इस सुशक्ति के उपर्यक्त ध्वन्यर्थ को आज के वातावरण में, चारों ओर से भीतरी-बाहरी कई तरह के शत्रओं से घिरे भारतवर्ष के लिए समझना और भी आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है। उसे अपने-आप को इतना समर्थ बनाना है कि आज उसे तोड़ने या दबाने के जितने भी प्रयास हो रहे हैं, सभी व्यर्थ होकर रह जाएँ।