Essay on Secularism in Hindi धर्मनिरपेक्षता पर निबंध
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Essay on Secularism in Hindi
Essay on Secularism in Hindi
भारत का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप
भारतीय संविधान के आमुख में स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है: “हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक-गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मसमर्पित करते हैं।” इसमें स्पष्टता के साथ दो बातों पर बल प्रदान किया गया है। पहली, पंथनिरपेक्ष होने पर और दूसरी, अन्य सभी धर्मों के प्रति सम्मानजनक व्यवहार करने पर। अतः यह बात निस्संदेह कही जा सकती है कि भारत की मूल चेतना, धर्मनिरपेक्ष चेतना ही रही है। उसमें किसी भी भांति की संकीर्णता या पूर्वाग्रह आदि की अवस्थिति किसी भी प्रकार से नहीं रही है। संवैधानिक रूप से भारत की जिस चेतना का निर्माण हमारे महान बुद्धिजीवियों द्वारा किया गया, वह चेतना धर्म आदि की संकीर्णता से रहित एक व्यापक चेतना रही है।
हांलाँकि भारतीय समाज, संस्कृति और सभ्यता का दीर्घ इतिहास इस बात को स्वत: प्रमाणित कर देता है कि भारत की आत्मा मूलतः धार्मिक आग्रहों की संकीर्णताओं से हमेशा मुक्त और स्वच्छ रही है। इस बात को प्रमाणिकता प्रदान करने वाला एक अन्य स्रोत भारत का ओजवान साहित्य रहा है। हिन्दी भाषा के आदि-प्रवर्तक कवि संत कबीरदास माने जाते हैं। उन्होने स्पष्ट रूप से स्वयं को “न हिन्दू न मुसलमान” कहकर संबोधित किया था। वस्तुत: भारतीय संस्कृति की यह मूल विशेषता रही है कि यहां धर्म आदि को संकीर्ण अर्थों में कभी भी स्वीकार नहीं किया गया है अपितु धर्म को यहां औदात्यपूर्ण एवं व्यापक अर्थ में ग्रहण किया गया है। कबीरदास ने तो स्पष्ट शब्दों में कहा था:
“पाथर पूजें हरि मिले तो मैं पूजु पहार।”
कहने का अभिप्राय है कि भारत में धर्म को सामन्य रूप से समझा जाता रहा है। वह वाह्य आडम्बरों, रूढ़ियों और संकीर्ण आचरणों से पूर्णत: मुक्त रहा है। किन्तु इस बात से भी पूरी तरह से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भारत की इस मूल पंथनिरपेक्ष और धर्म निरपेक्ष
आत्मा को स्खलित करने का भी प्रयास कतिपय लोगों द्वारा किया जाता रहा है। हिन्दू समाज में संकीर्ण सोच रखने वाले कुछ लोग जो स्वयं को ‘हिन्दुत्ववादी’ कहते हैं, वे भारत को हिन्दू राष्ट्र में परिवर्तित करने का प्रयास आजादी से पूर्व समय से ही करते आ रहे हैं। इनका प्रभाव आज भी भारतीय राजनीति पर कुछ न कुछ बना ही हुआ है। इसी प्रकार कुछ अन्य धर्मों से संबंधित संगठन भी निरन्तर उग्र एवं संकीर्ण जीवन आचरणों का प्रदर्शन करते रहे हैं। महात्मा गांधी ने इस विकराल स्थिति को अपने जीवन काल में ही भांप लिया था। उन्होंने इस ओर संकेत करते हुए एक स्थान पर लिखा है:
“कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि भारतीय स्वराज्य तो बहुसंख्यक समुदाय का यानी हिन्दुओं का ही राज्य होगा। इस मान्यता से ज्यादा बड़ी कोई दूसरी गलती नहीं हो सकती। अगर यह सही सिद्ध हो तो अपने लिए मैं ऐसा कह सकता हूँ कि मैं उसे स्वराज्य मानने से इंकार कर दूंगा और अपनी सारी शक्ति लगाकर उसका विरोध करूंगा। मेरे लिए स्वराज्य का अर्थ, सब लोगों का राज्य, न्याय का राज्य है।”
भारतीय राजनीति संवैधानिक रूप से धार्मिक संकीर्णताओं, आग्रहों, पृर्वाग्रहों और किसी धर्म विशेष के प्रति पक्षपात-पूर्ण आचरण न करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। संविधान, भारत के प्रत्येक नागरिक से भी यही आशा करता है कि वह अपने निजी और सामाजिक आचरण में भारत की इस मूल आत्मा की रक्षा करे, जिसे धर्मनिरपेक्ष कहा गया है। भारतीय समाज का बहुसंख्यक-समुदाय भाव एवं विचार से अपने जीवन में पूर्णत: धर्मनिरपेक्षता के वृहद आदर्श का आचरण करता है। लोग परस्पर अपने सहयोगियों से, पड़ोसियों से, परिचितों आदि से प्राय: धार्मिक आधार पर भेदभाव या उनके प्रति द्वेष, घृणा आदि का आचरण नहीं करते हैं। वह इस प्रकार का स्वच्छ जीवन आचरण मात्र इस कारण से नहीं करते हैं कि यह उनकी संवैधानिक बाध्यता या जिम्मेदारी है। यह बात तो है ही, इसी के साथ यह भी कि इस प्रकार के मानवीय आचरण उनके संस्कार, संस्कृति और जीवन आदर्शों का अंग-प्रत्यंग रहे हैं।
वस्तुत: भारत एक धर्मबहुल धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। यहाँ सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से पर्याप्त विविधता है, किन्तु कहीं न कहीं इस विविधता के मूल में एक व्यापक एकता की चेतना भी अन्तनिहित है।
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Essay on Secularism in Hindi
भारत एक विशाल और प्राचीन देश है। यहां सभी धर्मों और सम्प्रदायों के लोग आदिकाल से निवास करते हैं। हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख आदि कुछ महान धर्मों का तो यह जन्म स्थान ही है। मुसलमानों की संख्या भी यहां बहुत अधिक है। संख्या की दृष्टि से मुसलमानों की दूसरी बड़ी आबादी भारत में निवास करती हैं। केवल इंडोनेशिया ही एक ऐसा देश है जहां मुसलमानों की संख्या भारत से अधिक है। ईसाई लोगों की भी यहां प्रचुर संख्या है। इसके अतिरिक्त यहूदी, पारसी और दूसरे धर्मों के लोग भी यहां शांति, सुख और प्यार से रहते हैं। भारत में धर्म का महत्त्वपूर्ण स्थान प्राचीन काल से ही रहा है। यहां की जनता धर्मप्रिय है परन्तु धार्मिक कट्टरवाद या उन्माद को यहां कभी स्थान नहीं मिला। दूसरे शब्दों में भारत प्रारंभ से ही एक धर्मनिरपेक्ष देश रहा है।
भारत एक पूर्ण धर्मनिरपेक्ष राज्य है। इसका तात्पर्य है कि यहां किसी प्रकार का धार्मिक भेदभाव नहीं है। यहां सभी धर्मों का समान रूप से आदर होता है। न्याय और विधि की दृष्टि में सभी धर्म-सम्प्रदाय समान हैं। हमारे यहां किसी धर्म विशेष को कोई विशेष अधिकार और सुविधाएं प्राप्त नहीं हैं। धर्म के मामले में सरकार व प्रशासन तटस्थ हैं। धर्म नागरिकों का अपना व्यक्तिगत तथा निजी मामला है। इस में किसी तरह का राजकीय हस्ताक्षेप नहीं है।
भारतीयता और धार्मिकता में बड़ा अंतर है। भारत में रहने वाले सभी भारतीय हैं और भारतीयता के एक रंग में रंगे हुए हैं। उनकी भारत के प्रति एकनिष्ठा, भक्ति व प्रेम जगजाहिर है। देश व देशहित उनके लिए सर्वोपरि है। समय आने पर वे राष्ट्रहित में कोई भी बलिदान कर सकते हैं। अलग-अलग धर्मसंप्रदायों को मानने के बावजूद वे भारतीयता के एक सूत्र में बंधे हैं। वे सबसे पहले और अंतिम रूप में भारतीय है और अन्य कुछ बाद में। भारतीयता हमारी सबसे बड़ी पहचान, शक्ति और भावना है। हमें भारत और भारतीयता पर गर्व है।
भारतीयता का अर्थ है भारत के लिए अनन्य प्रेम, शक्ति और त्याग की भावना। भारतीयता और अपने-अपने व्यक्तिगत धर्मपालन में कोई विरोध नहीं है।
धर्मनिरपेक्षता और सर्वधर्म समभाव भारत की एक विशेषता प्राचीन काल से ही रही है। धार्मिक संकीर्णता, कट्टरवाद या उन्माद को यहां कभी कोई स्थान नहीं मिला। धर्म व सम्प्रदायों की अनेकता और विभिन्नता यहां सदा से ही रही है। हिन्दू धर्म में भी अनेक पंथ, मत और संप्रदाय हैं। सभी धर्मों का यहां सदैव आदर हुआ है। यहूदी तथा ईसाई भारत में ईसा की पहली सदी में आये और यहां पर उनका स्वागत हुआ। कई शताब्दियों बाद पारसी और मुसलमान यहां आये और यहां के जन-जीवन का अभिन्न अंग बन गये। बौद्ध और जैन धर्म भी यहां समान रूप से फलते-फूलते रहे हैं। सम्राट् अशोक ने बौद्धधर्म को अपनाया,उसे अपना राजधर्म बनाया। परन्तु उसने धर्म के नाम पर कोई भेदभाव नहीं किया। सम्राट् अशोक किसी तरह की साम्प्रदायिकता से कोसों दूर थे। उनका धर्म मानवधर्म का पर्याय था। वह चाहता था कि सभी धर्मों व सम्प्रदायों के लोग शांति व सद्भाव से रहते हुए फले-फूलें और उन्नति करें। इसी प्रकार अकबर ने कोई धार्मिक कट्टरता नहीं दिखाई। उसके धार्मिक विचार उदार और विशाल थे। उसके दरबार में मानसिंह, टोडरमल, बीरबल जैसे प्रसिद्ध नवरत्न थे जो हिन्दू थे। उसकी अपनी बेगम एक राजपूत राजकुमारी थी। जहांगीर अकबर और इस महारानी की ही संतान था।
अंग्रेजों ने भी भारत को सांप्रदायिक और धार्मिक आधार पर बांटने का प्रयत्न किया क्योंकि यह उनके स्वार्थों की आपूर्ति के अनुकूल था। जाते-जाते भी उन्होंने देश के दो टुकड़े कर दिये तथा भारत के साथ-साथ पाकिस्तान को भी एक स्वतंत्र राष्ट्र बना दिया। महात्मा गाँधी आदि सभी बड़े नेता देश विभाजन के विरूद्ध थे परन्तु जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग की हठधर्मी के कारण उन्हें यह विभाजन स्वीकार करना पड़ा। विभाजन के साथ ही साथ धार्मिक उन्माद फैला। हिंसा, आगजनी, लूटपाट, साम्प्रदायिक विद्वेष फैला और लोगों को लाखों की संख्या में इधर-उधर पलायन करना पड़ा। अपने आप में बहुत बड़ी त्रासदी है। इस भीषण त्रासदी को ध्यान में रखकर ही हमारे संविधान निर्माताओं ने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया। हमारा संविधान बड़े कठिन समय और परिस्थितियों में निर्मित हुआ था। उनका इसके निर्माण पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही था। उन्होंने यही उचित समझा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य हो। एक ऐसा राज्य जहां सबको समान धार्मिक स्वतंत्रता हो और इस आधार पर कोई पक्षपात या भेदभाव नहीं हो।
भारत में हिन्दू बहुमत में हैं। परन्तु फिर भी हिन्दू धर्म यहां का राज्यधर्म नहीं है। अतः धार्मिक दृष्टि से अल्पसंख्यक लोगों में सुरक्षा और विश्वास की गहरी भावना यहां देखने को मिलती है। हिन्दुओं में भी अनेक सम्प्रदाय और पंथ हैं।
उदाहरण के लिए हिन्दू समाज में रामानंदी, कृष्ण भक्त, शाक्त, शैव, कबीर पंथी, दादूपंथी, आर्यसमाजी, निरंकारी और भी अनेक संप्रदाय हैं। अतः यह हमारी राष्ट्रीय भावना, ऐतिहासिक परम्परा और शाश्वत संस्कृति के सर्वथा अनुकूल है कि भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया।
आज का युग विज्ञान और वैज्ञानिक सोच का युग है। किसी में किसी प्रकार के धार्मिक कट्टरपन को कोई स्थान नहीं मिल सकता। देश के समुचित विकास और प्रगति के लिए धार्मिक सद्भाव का होना बहुत आवश्यक है। धार्मिक आधार पर किसी तरह का पक्षपात और भेदभाव हमारी एकता और विकास में एक बहुत बड़ी बाधा सिद्ध हो सकता है। हमारे संविधान निर्माताओं ने धर्म को नकारा नहीं, उसका विरोध या निषेध नहीं किया। हां किसी धर्म को दूसरे धर्मों की तुलना में मान्यता देना ना मंजूर कर दिया।
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