शिक्षा का उद्देश्य पर निबंध Shiksha Ka Uddeshya Essay in Hindi – Purpose of Education
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शिक्षा का उद्देश्य पर निबंध Shiksha Ka Uddeshya Essay in Hindi
Shiksha Ka Uddeshya Essay in Hindi 900 Words
‘शिक्षा’ शब्द का सामान्य अर्थ है कुछ सीखना। कुछ सी, खने के लिए पढ़ना-लिखना आना विशेष आवश्यक नहीं है। एक व्यक्ति देखकर, सुनकर, जीवन-समाज के कई तरह के खट्टे-मीठे अनुभव प्राप्त कर के भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है। कहा जाता है सन्त कबीर ने ‘मसि-कागद’ कभी छुआ तक नहीं था। ‘कलम’ कभी हाथ में ‘धरी’ या धारण तक नहीं की थी, फिर भी उन्हें महान् ज्ञानी माना जाता है। कहा जाता है कि उन का सारा ज्ञान व्यापक अनुभवों और सत्संगति द्वारा अर्जित किया गया ज्ञान ही था। आज सारी दुनिया उसी ज्ञान की कायल है। सन्त कबीर का उदाहरण केवल यह दर्शाने के लिए ही दिया गया है कि मात्र सीखने के लिए उस तरह की शिक्षा की कोई बहुत आवश्यकता नहीं, जिसका अर्थ ‘कुछ सीखना’ होता है और जो आज कल के शिक्षालयों में बड़े ताम-झाम के साथ दी जा रही है।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली हमारे विचार में उतनी शिक्षा (सुशिक्षा तो कतई नहीं) नहीं दे पा रही, जितनी कि व्यक्तियों को साक्षर बना रही है। कहने का तात्पर्य यह है कि आज जिस घुट्टी को शिक्षा कह कर पिलाया जा रहा है, वह पीने (पढ़ने) वालों को एक सीमा तक पढ़ना-लिखना तो अवश्य सिखा देती हे यानि साक्षर तो अवश्य बना देती है; पर शिक्षित नहीं कर पाती। सुशिक्षित बना पाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यही कारण है कि आज अपने को शिक्षित यानि पढ़ा-लिखा समझने वाला व्यक्ति भीतर तक जितना खाली, जितना व्यर्थ और आधारहीन पाता है, उतना निरक्षर भट्टाचार्य जी अर्थात् अनपढ़ व्यक्ति कतई कदापि नहीं पाता। निरक्षर या अनपढ़ व्यक्ति तो अपनी स्थितियों और समय के साथ समझौता कर कुछ भी कर पाने या करने के लिए तैयार हो जाता है, जबकि डिग्री धारी व्यक्ति ऊहापोह में पड़ कर अन्यों के बारे में तो क्या अपने बारे में भी कोई निर्णय ले पाने में समर्थ नहीं हो पाता। इस से स्पष्ट है कि वर्तमान शिक्षा कुछ इस सीमा तक पथ से भटक या पटरी से उतर चुकी है कि वह अपना मूल उद्देश्य तक निभा पाने में समर्थ नहीं हो पा रही। शिक्षा का मूल उद्देश्य क्या होता है या होना चाहिए, वर्तमान उद्देश्यहीन शिक्षा-पद्धति को इस बात का ज्ञान नहीं है। है न विडम्बनापूर्ण स्थिति।
आइये, इस बात पर भी विचार कर लें कि शिक्षा का मूल उद्देश्य वास्तव में होता क्या है। साक्षरता का प्रचार-प्रसार भी उसका एक-आँशिक लक्ष्य है अवश्य; पर उतना ही सब कुछ नहीं होता। शिक्षा का उद्देश्य होता है व्यक्ति की सोई प्रतिभा और कार्य-शक्ति को जगा कर, उसके मन-मस्तिष्क में उमंग और उत्साह भर कर, आत्मा में नई चेतना भर कर इस सीमा तक सतेज एवं सक्रिय बना देना कि व्यक्ति अपने ही प्रकाश से परिचालित होकर स्वयं तो सब कुछ देख-समझ ही सके; बाकी सब को भी दिखा सके। अपने लिए उचित एवं आवश्यक मार्ग चुन ही सके, असमर्थों-असहायों के हाथ का दीपक भी बन सके। उसके मन में किसी प्रकार का विभ्रम, ऊहापोह एवं असमंजस की स्थिति न हो; बल्कि जीवन में चारों ओर खुली आँखों से निहार अपनी प्रगति एवं विकास के लिए, जीवन जीने के लिए उचित मार्ग का चयन कर सके। इस प्रकार व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को ज्ञान के प्रकाश से जगमगा देना, सहज आत्मविश्वास से भर कर दुविधाहीन बना देना ही शिक्षा का मूल एवं मुख्य उद्देश्य हुआ करता है; न कि मात्र साक्षर बना कर, शिक्षित होने के अनावश्यक भ्रम एवं दम्भ से भर कर बेकारों की भीड़ या लम्बी कतार में जा कर खड़े कर देना, जैसा कि देश में प्रचलित वर्तमान शिक्षा प्रणाली अधिकतर कर रही है।
वर्तमान शिक्षा-प्रणाली पढ़ा तो रही है; पर पढ़ने के साथ जिसे ‘गुढ़ना’ यानि वास्तविक ज्ञान के प्रकाश के अन्तर्तम में उतार कर आत्मविश्वास की ऊर्जा-उत्साह से भर उठना, कहा जाता है, वह सब कतई नहीं कर पा रही। जो शिक्षा व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में अपने प्रति ही विश्वास का शुभ भाव भर पाने में असमर्थ है, उसे सच्ची एवं उद्देश्यपूर्ण शिक्षा कैसे कहा जा सकता है। वह तो शिक्षा के नाम पर सफ़ेद हाथी पालने जैसा ही है कि जिस पर सवार तक हो पाना संभव नहीं हुआ करता। शिक्षित व्यक्ति के चेहरे पर जो एक विद्वता एवं जागृत योग्यता का ऊर्जास्वित भाव हुआ करता है, आज के व्यक्ति के चेहरे पर वह सब कहाँ दिखाई देता है। उसकी चाल में जो गम्भीरता, आँखों में जो सागर की-सी गहराई और विचारों में हिमालय की सी ठोस उच्चता आ जाया करती है, आज उसके कहीं भी तो दर्शन नहीं हो पाते। न पढ़ने वालों में और न पढ़ाने वालों में ही, फिर कैसे माना जा सकता है कि वर्तमान शिक्षा अपने उद्देश्य के निर्वाह में सफल-काम है।
जो शिक्षा अपने राष्ट्रीय मानों-मूल्यों का लक्ष्य तक नहीं साध सकती, उसे व्यर्थ ही कहा जा सकता है। इस व्यर्थता का बोध प्रत्येक उस व्यक्ति के चेहरे पर स्पष्ट अंकित देखा जा सकता है, जो अपने आप को शिक्षा प्राप्त कहता और मानता है। ऐसे प्रत्येक व्यक्ति की वाणी में भी गँजता हुआ सुना जा सकता है। इस का सब से बड़ा कारण है स्वतंत्र भारत के नेतवर्ग की अदूरदर्शिता एवं साहसहीनता। चाहिए तो यह था कि स्वतंत्र होने के साथ ही इस घिसी-पिटी शिक्षा को समेट कर इसके स्थान पर समय और आवश्यकता के अनुसार एक राष्ट्रीय शिक्षा-पद्धति लागू की जाती; पर वैसा नहीं किया गया, सो इसकी व्यर्थता का बोझ ढोए चलने को आज हम विवश है, बाध्य हैं।