Swadesh Prem Essay in Hindi स्वदेश प्रेम पर निबंध
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Swadesh Prem Essay in Hindi
देश अपने-आप में एक भू-भाग ही होता है। उसकी अपनी कुछ भौगोलिक और प्राकृतिक सीमाएँ तो होती ही हैं, कुछ अपनी विशेषताएँ भी होती है। वहाँ का रहन-सहन, रीति-रिवाज, खान-पान, बोलचाल और भाषा, धार्मिक-सामाजिक विश्वास और प्रतिष्ठान, संस्कृति का स्वरूप और अंतर्व्यवहार सब कुछ अलग हुआ करता है। यहाँ तक कि नदियाँ, पर्वत, जल तथा झरने के अन्य स्रोत, पेड़-पौधे और वनस्पतियाँ तक अलग होती हैं। देश अथवा स्वदेश इन्हीं सबके समन्वित स्वरूप को कहते हैं। इस कारण स्वदेश-प्रेम का वास्तविक तात्पर्य उस विशेष भू-भाग पर रहने ओर केवल अपनी मान्यताओं और विश्वासों के अनुसार चलने वालों से प्रेम करना ही नहीं, अपितु उस धरती के कण-कण से, धरती पर उगने वाली वनस्पतियों, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों और पत्तों-पत्तों से लगाव रखना है। इसके अभाव में कोई व्यक्ति स्वदेश-प्रेमी हो ही नहीं सकता। यदि वह इन सब में से किसी एक अथवा किन्हीं तत्वों के साथ ही लगाव रखता है, तो उसे अत्यंत स्वार्थी और उसके प्रेम को केवल एकांगी प्रेम ही कहा जाएगा।
संस्कृत में एक कहावत है – “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” अर्थात जन्म देकर भरण-पोषण करने तथा प्रत्येक जरूरी वस्तु प्रदान करने वाली मातृभूमि का महत्त्व स्वर्ग से भी बढ़कर है। यही कारण है कि स्वदेश से दूर जाकर व्यक्ति एक तरह रुग्णता और उदासी महसूस करने लगता है। अपनी मातृभूमि की रक्षा और स्वतंत्रता के लिए व्यक्ति अपने प्राणों की आहुति दे देता है, अपना प्रत्येक सुख-स्वार्थ न्यौछावर कर देने से नहीं झिझकता। बड़े-से-बड़ा त्याग, स्वदेश-प्रेम और उसके सम्मान की रक्षा के सामने तुच्छ प्रतीत होता है। जब भारत स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष कर रहा था, उस समय अपने नेताओं का एक इशारा पाकर लोग लाठियाँ-गोलियाँ तो खाया-झेला ही करते थे; फाँसी का फन्दा तक गले में डाल झूल जाने को भी तत्पर रहा करते थे। अनेक देशभक्तों स्वदेश प्रेम की भावना से प्रेरित होकर ही जेलों में जीवन बिता दिया, फांसी पर झूल गए और देश से दूर होकर काले पानी की सजा भोगते रहे।
वास्तव में स्वदेश प्रेम देवी-देवताओं और स्वयं भगवान की भक्ति-पूजा से भी बढ़ कर माना जाता है। घर से सैकड़ों-हजारों मील दूर, तन की हड़ियों तक को गला देने वाली बर्फ से ढकी चोटियों पर पहरा देकर सीमाओं की रक्षा करने में निरत सैनिक ऐसा मात्र कुछ रुपये वेतन पाने के लिए ही नहीं करते, अपितु उनके मन में स्वदेश-प्रेम की अटूट भावना होती है, जिससे प्रेरित होकर वे देश की रक्षा में जी जान से लगे रहते है। यह उनकी देश-भक्ति की भावना ही है, जो उन्हें आग उगलते टैंको-तोपों के बीच घुस कर अपने प्राणों पर खेलते हुए भी अपने कर्तव्य पथ से विचलित नहीं होने देती। स्वदेश-प्रेम की भावना से भरे लोग भूख-प्यास आदि किसी भी बात की परवाह किए बिना मर मिटने के लिए तत्पर दिखाई देते हैं। देश की एक इंच भूमि की रक्षा के लिए संघर्ष किया करते हैं।
प्रेम के जो अनेक तरह के स्वरूप माने गए हैं, उनमें से स्वदेश-प्रेम को सर्वोपरि माना गया हैं। नीति शास्त्र का यह कथन उचित ही प्रतीत होता है कि घर-परिवार की देखभाल के लिए व्यक्तिगत स्वार्थ एवं महत्त्व को त्याग देना चाहिए। अपने गली-मुहल्ले, प्रदेश अथवा प्रांत की रक्षा के लिए क्रमश: जिले और नगर का स्वार्थ-प्रेम त्याग देना चाहिए। लेकिन जब स्वदेश की रक्षा का प्रश्न हो तो सभी प्रकार के प्रेम और स्वार्थ त्याग देना इसलिए जरूरी होता है कि उसकी रक्षा पर ही बाकी सभी की रक्षा निर्भर करती है।
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