Uniform Civil Code Essay in Hindi | समान नागरिक संहिता पर निबंध
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Uniform Civil Code Essay in Hindi – समान नागरिक संहिता पर निबंध
Uniform Civil Code Essay in Hindi 300 Words
यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते हैं तो सभी धर्मों के शाश्त्रों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए – B.R.Ambedkar
परिचय
समान नागरिक संहिता का अर्थ है भारत में रहने वाले हर नागरिक के लिए एक समान कानून होना चाहिए चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो। समान नागरिक संहिता में शादी, तलाक और जमीन-जायदाद के बंटवारे में सभी धर्मों के लिए एक कानून लागू होगा। जिसका किसी धर्म से कोई ताल्लुक नहीं है।
मुख्य भाग
समान नागरिक संहिता का उल्लेख हमारे संविधान के “अनुच्छेद 44” में किया गया है। भारत में गोवा एकमात्र ऐसा राज्य है जहाँ समान नागरिक संहिता लागू है। यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होने से हर मजहब के लिए एक जैसा कानून आ जाएगा। मुस्लिमों में तीन शादियां करने और पत्नी को महज तीन बार तलाक बोले देने से रिश्ता खत्म कर देने वाली परंपरा खत्म हो जाएगी। विभिन्न धर्मों के विभिन्न कानूनों से न्यायपालिका पर बोझ पड़ता है। यूनिफॉर्म सिविल कोड आ जाने से इस मुश्किल से निजात मिलेगी। हर भारतीय पर एक समान कानून लागू होने से वोट बैंक और ध्रुवीकरण की राजनीति पर लगाम लगेगी। समान नागरिक संहिता के बारे में संभावित गलतफहमी ने विभिन्न धर्मों, विशेष रूप से अल्पसंख्यकों के बीच एक भय पैदा किया है कि समान नागरिक संहिता का उद्देश्य उनके धार्मिक रीति-रिवाजों और मूल्यों के खिलाफ है। समान नागरिक संहिता के कार्यान्वयन से पहले, अधिकारियों को अल्पसंख्यकों का विश्वास जीतना चाहिए। हमारे देश की व्यापक विविधता के कारण समान नागरिक संहिता का कार्यान्वयन एक बोझिल कार्य है।
“सभी धर्म की एक पुकार, एकता को करो साकार”
निष्कर्ष
मेरे विचार से एक आदर्श राज्य में नागरिक के अधिकारों की रक्षा के लिए समान नागरिक संहिता एक आदर्श उपाय होगा। बदलते परिस्थितियों के बीच सभी नागरिकों के मौलिक और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए धर्म की परवाह किए बगैर समान नागरिक संहिता को लागू किया जाना चाहिए, क्योंकि समान नागरिक संहिता द्वारा धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीय अखंडता को भी मजबूत किया जा सकता है।
Uniform Civil Code Essay in Hindi 1000 Words
भारत में विविध धर्मों, संप्रदायों, जातियों, भाषा, बोलियों आदि के लोग रहते हैं। उनके रीति रिवाजों, मान्यताओं, धार्मिक आचरण आदि में सभी प्रकार की विभिन्नता पाई जाती है। भारत एक लम्बी परतन्त्रता के पश्चात् 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हुआ है इसका अपना संविधान बना। इसके साथ ही भारत एक संप्रत गणराज्य बन गया। भारत संसार का एक सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यहां अब तक अनेक स्वतंत्र और निष्पक्ष आम चुनाव हो चुके हैं और सरकारें मतों के आधार पर लोकतांत्रिक तरीकों से बदलती रही हैं। आज भारत को स्वतंत्र हुए 59 वर्ष हो गये। परन्तु यह एक विडंबना ही है कि अभी तक भारत में समान नागरिक आचारसंहिता (Uniform Civil Code) का अभाव है।
हमारे संविधान की धारा 44 में यह स्पष्ट लिखा है कि सरकार भारतवर्ष में समान नागरिक आचारसंहिता लागू करने का प्रयास करेगी। संविधान निर्माता ऐसी आचार संहिता की जरूरत से भलीभांति परिचित थे। वे जानते थे कि देश की राजनीतिक, संगठनात्मक तथा भावनात्मक एकता को सुदृढ़ करने के लिए यह अति आवश्यक है। यह बात हमारी राज्य की नीति के निर्देशक तत्वों में बड़े साफ शब्दों में कहीं गई है। ये नीति के निर्देशक तत्व सिफारिशें है और “क्या होना चाहिये” की ओर इशारा करते हैं। ये किसी तरह हमारे लिए बाध्य नहीं हैं। इनकी अवहेलना पर न्यायालयों में कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती। आज सभी एकमत से इस आचार संहिता के पक्ष में दिखाई देते हैं। हाँ, कुछ, अपवाद अवश्य हैं।
समान नागरिक आचार संहिता का संबंध विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों के लोगों के नागरिक आचारण से संबंधित है। इनका मुख्य संबंध विभिन्न धर्मों के लोगों के वैवाहिक, तलाक वसीयत, संतान गोद लेने आदि अधिकारों और आचरण से है। अभी तक भारत में विभिन्न नियम हैं। विवाह, तलाक आदि मामलों में हिन्दुओं के लिए एक तरह के नियम कानून हैं, तो मुसलमानों के लिए दूसरे, तो ईसाइयों के लिए तीसरी प्रकार के विधि नियम। इस असमानता और अनेकरूपता के कारण राष्ट्रीय-भावना, भावनात्मक एकता और देश-प्रेम को ठेस पहुँचती है। यह असमानता और अनेकरूपता कई जटिलताओं, सामाजिक भेदों तथा परस्पर बैर का कारण भी है। बहुत से लोग इनका दुपयोग कर देश को हानि पहुँचा रहे हैं। आचरण संबंधी इस एकरूपता के अभाव में कई सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक सुधारों के लागू करने में रूकावटें आ रही है। स्पष्ट है कि वे विषमताएं हानिकारक हैं और देश की प्रगति में बाधक भी हैं। ये समान न्याय की भावना के भी विरूद्ध हैं। अत: आवश्यकता है कि इन पक्षपातपूर्ण कानूनों को हटाया जाए।
भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है। इसका तात्पर्य है कि यहां कानून की दृष्टि में सभी धर्म और सम्प्रदाय समान हैं। उन में किसी को कोई विशेष अधिकार या सुविधाएं नही हैं। यहां कोई राज्यधर्म नही हैं। सभी धर्मावलम्बियों को शांतिपूर्ण और विधिसम्मत उपायों से अपने-अपने धर्म का पालन करने, उसका प्रचार-प्रसार करने तथा उसके अनुरूप आचरण करने की पूर्ण स्वतंत्रता है। अत: अलग-अलग धर्म-संप्रदायों के लिए अलग-अलग आचरण संहिता का होना हमारी धर्मनिरपेक्षता की मूल भावना के सर्वथा विपरीत है। इसका अर्थ यह हुआ कि धर्म के आधार पर पक्षपात और अन्याय किया जा रहा है। एक धर्म विशेष के लिए कुछ विशेष अधिकार व सुविधाएं हैं जो दूसरे धर्मों के लोगों के लिए वर्जित हैं।
यह समय की मांग है कि अब उत्तराधिकार, वसीयत, विवाह, तलाक आदि मामलों में सबको समान नागरिक आचार-संहिता के अंतर्गत लाया जाए तथा वर्तमान भेदों, पक्षपातों तथा अन्याय को दूर किया जाए। इस एकरूपता के अभाव में एक ही धर्म या संप्रदाय में स्त्री और पुरूष में भी अंतर किया जाता है। स्त्रियों के साथ अन्याय हो रहा है और पुरुषों के साथ पक्षपात। उत्तराधिकार के मामलों में हिन्दू आचार संहिता लिंगभेद पर आधारित है, तो मुस्लिम व्यक्तिगत नियमों के आधार पर। एक मुसलमान पुरुष को इच्छानुसार अपनी पत्नी को तलाक देने की स्वतंत्रता है। महिला सशक्तिकरण के लिए ऐसे नियमों को हटाने की बहुत आवश्यकता है। यह एक सामान्य और समान नागरिक आचार संहिता से ही संभव हो सकता है।
कुछ लोग इस समान नागरिक आचरण संहिता के स्पष्ट विरोध में हैं। उनका कहना है कि अभी वह समय नहीं आया है जब हम इस तरह की आचार संहिता को अपनाएं। अत: इसलिए हमें और इंतजार करना चाहिये। ये लोग कहते हैं कि भारत एक धर्मप्रिय देश है। यहां धर्म का बहुत महत्त्व है। धर्माचरण व्यक्ति का अपना निजी मामला है और इसमें हस्ताक्षेप नहीं होना चाहिये या कम-से-कम हस्ताक्षेप होना चाहिये। भारत में अनेक धर्मों, संप्रदायों व जातियों के लोग रहते हैं। भारत जैसे लोकतंत्र में सभी धर्मानुयाइयों के विश्वासों, मान्यताओं और रीति रिवाजों का आदर होना चाहिये। उनमें एक समानता और एकरूपता लाने का प्रयत्न नहीं किया जाना चाहिये। सरकार को यह अधिकार कदापि नहीं है कि वह विविध धार्मिक धार्मिक भावनाओं और विश्वासों के विरूद्ध जाये या उन्हें समाप्त करे।
हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने भी कई बार एक समान नागरिक आचारसंहिता की आवश्यकता को रेखांकित किया है। अभी हाल ही में हमारे उच्चतम न्यायालय ने एक ईसाई व्यक्ति के मामले में कहा है कि यह बड़े खेद की बात है कि भारतीय सरकार तथा शासन अभी तक देश में समान और एक रूप नागरिक आचार-संहिता लागू नहीं कर सके हैं।
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